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________________ हिन्दी अनुवाद १३ हे सुमट, बचपन में मेरी माँकी मृत्यु हो गयी । बिना माँके बच्चे के लिए किसकी छाया ? भूयय ( धनसे सम्पन्न ) पिताने भी नहीं देखा और मैं तुम्हारे पुरवरमें आ गया। तब उस शक्तिषेणने निष्पाप उस बालकको सत्यदेव के दर्म कारक व अमितमती और अनन्तमतीके द्वारा कहा गया कर्मोंका नाश करनेवाला धर्मं पांचोंने स्वीकार कर लिया । राजाने मद्य, मधु और मांस छोड़ दिया। रानीने भी प्रशंसापूर्वक वही सब किया। सामन्त शक्तिषेणने अनागार बेलाका व्रत लिया, और वह जिनराज ( मुनि) को पारणाकी बेला ( समय का पालन करने लगा । ( अर्थात् वह मुनियोंके आहार ग्रहण करने के समय के बाद ही भोजन करता है। उसकी पत्नी बटवीने पापका अन्त करनेवाला अनुप्रवृद्धकल्याणका तप किया । वह बालक और गुरुभारवाली मृगनयनी पत्नी वहाँ ( मृणालवती नगरीमें ) गयौ जहाँ उसकी माँ रहती थी । शिविर छोड़कर वनके भीतर वह सर्पसरोवर के तटपर अपने पति के साथ जब रह रही थी, तभी सुधियोंके लिए सेकड़ों सुख देनेवाली, पिताकी मृणालवती नगरी में कनकश्री पत्नी और उसका पति सेठ सुकेतु था। उसका भवदेव पुत्र मानो कलिकृतान्त था । वह अत्यन्त उन्मत्त और दुर्मुख कहा जाता था। उसी नगरीमें एक और बनिया था । २९. १४.१२] २४५ धत्ता -- अपने पिता के चरणोंका भक्त श्रीदत्त, उसकी गृहिणी विमलश्री थी। रतिको नदी सुन्दर शुभ करनेवाली रतिवेगा नामकी उसकी कन्या थी ||१३|| १४ विमलीका भाई शोकसे रहित एक और सेठ था अशोकदत्त। उसकी गृहिणी जिनदत्ता थी । उसका पुत्र सुकान्त था। सुन्दर और सौम्य वह सोमकी तरह सुकान्त था । तब ससुर के निवास और द्वारपर धरना देकर और बारह वर्षकी यह मर्यादा कर कि यदि मैं (इस बीच ) नहीं आता हूँ तो तुम अपनी कन्या अन्य वरको दे देना । में निर्धन हैं, है ससुर, अभी कन्या ग्रहण नहीं करता। और जब वह वाणिज्य के लिए चला गया, तबतक बारह वर्ष पूरे हो गये और समय के साथ कन्या के स्तन भर गये। साक्ष्य और निबन्धसे मुक्त होकर उसने कन्याको पुकारा और सुकान्त के लिए दे दी | ( इतनेमें) दुश्मन आ पहुँचा, निर्दय और तीखी तलवार लिये हुए। वह कहता है कि मैं वरको विदीर्ण करूंगा - मारूंगा । वृद्धसमूहने उसे बलपूर्वक रोका। वधूवर भी धरके पीछे दरवाजेसे भाग गये। तब गरजकर और कंचुकियोंको डांटकर तथा दम्पतिको धरण-परम्पराको देखकर -- धत्ता -- अभग्न दुष्ट ईर्ष्यालु वह क्रुद्ध होकर पीछे लग गया। अपनी गृहिणी के साथ वह वनमें पहुँचा, जैसे हरिणीके साथ हरिण हो ||१४||
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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