________________
२२. १७. १४]
हिन्दी अनुवाद निवास करते हैं, जो पापसे रहित हैं, जिनकी चमड़ी और हड्डियाँ ही शेष बची हैं, जो नदियों के वैगसे रहित शिशिरकालमें बाहर शयन-आसन करते हैं, जो षड् आवश्यक कार्य करते हैं, जो तीन उष्णतासे महान् वैशाख और जेठमें रविकिरणोंको सहन करते हैं, योगसे शोभित होते हैं, जो मुनि शशांक (मुनिचन्द्र ) दूसरोंको शंकाको दूर करते हैं। ऐसे पिहितास्रव मुनिके वासपर जाकर राजा पैर पड़ते हैं और परलोकका मार्ग तथा स्वर्ग अपवर्गके विषयमें पूछते हैं। वह पूर्वके जन्मोंको जानते हैं। ऋषि ज्ञानधारी हैं और जिनधर्मका आचरण करते हैं, वह इस गिरिवरको धरतोमें लीन दुर्गतियोंके नष्ट करनेवाली कन्दरा (गुफा) में रहते हैं।"
घत्ता-तब स्थूल स्तनोंवाली मैंने अपना जीर्ण-शीर्ण वस्त्र फैलाकर स्थापित किया और महासभामें प्रवेश कर साधुके चरणकमलोंको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया |१६||
१७
अपने तपके प्रभावसे इन्द्रको प्रभावित करनेवाले पिहितानब मुनिसे उन लोगोंने पूछा, कि मैं किस देबसे दरिद्र और नीचगोत्रको स्त्री हुई। हे देव बताइए, आप सब जानते हैं, दान भी मुझे प्रिय वचनसे प्रसन्न करिये ।" तब श्रमणगणोंमें प्रमुख वह कहते हैं कि दोन और राजा, दोनों मुझे समान हैं। हे पुत्री ! सुनो, में जन्मान्तर कहता हूँ। दूसरे जन्ममें तुमने जो कर्मान्तक किया था। पलाश गांवमें वहां एक गृहपति था देवल नामका । मति रंजित करनेवाली उसकी सुमति नामकी पत्नी थी। उसकी कन्या तू हुई। किसान-कन्या होते हुए भी तू युवकोंके लिए मानो रतिको दूती यो। वीतराग सिद्धान्तको पढ़ते हुए, जीव और अजीवके भेदका विचार करते हुए, शान्तिसे युक्त समाधिगुप्त मुनिनाथको हंसी उड़ाते हुए एक दिन वनमें तुने कृमिकुल पोपरुधिरसे दुर्गन्धित, निकले हुए दांतोंवाला और खण्डित और छेदोंवाफा कुत्ता उनपर फेंका । लेकिन मुनिने उसे शरीरका भाभूषण समला। दूसरे दिन भो और तीसरे दिन भी तूने कुत्तेके शरीरको उसी प्रकार देखा।
पत्ता-पवित्र तथा कामके दपंको नष्ट करनेवाले मुनि न तो सन्तुष्ट होते हैं, और न प्रसन्न होते हैं, चाहे कोई अलंकृत करे और चाहे खण्डित करे दोनोंमें ही आदरणीय श्रमण समान रहते हैं ॥१७॥