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________________ २४ २१. ५. १२] हिन्दी अनुवाद पत्ता-उसमें लवण समुद्रको मेखलासे घिरा हुआ और मन्दराचल के मुकुट से शोभित राब वीपोंमें श्रेष्ठ जगमें प्रसिद्ध जम्बूद्वीप है ||३|| उसके ऋद्धिसे सम्पन्न दस क्षेत्रमाग हैं { भरत, हैमवत, हरि, रम्यक, हैरण्यवत्व और ऐरावत, पूर्वविदेह, अपर विदेह, कुम और उत्तरमा दिवाले छह लाइ पर्वत है। दृढ़ व किवाड़ोंसे जिनके पथ अंचित (नियन्त्रित ) हैं, ऐसे चार द्वार और चौदह नदीमुख हैं। वहाँ जम्बूदेवका स्थान जम्बूवृक्ष है जो ससुरुषके चित्तकी तरह विशाल है, जिसको मरकत रत्नोंकी शाखाएं फैली हुई हैं, जो स्फटिकमय कुसुम मंजरियोंसे शोभित है और प्रवर इन्द्रनील मनियों के फलोंका घर है, जिसके निर्माण संस्थानको निश्चित रूपसे देवों द्वारा देखा गया है। उसके ऊपर दो चन्द्रसूर्य घूमते हैं, जो मानो निश्चित रूपसे विश्वरूपी लक्ष्मीक भूषणविकार हैं। नक्षत्रोंकी संख्या मुनि नहीं बताते, तो फिर हम-जैसे जड़कत्रि उसका क्या विचार कर सकते हैं ? उस द्वीपके सुमेरु पर्वतकी पश्चिम दिशामें सीतोधि है जिसमें मय जल-क्रीड़ा करते हैं। पत्ता-उसके रम्य और विशाल दक्षिण तटपर, नीलगिरिको उत्तर दिशाको अलंकृत कर, गंधेलु नामका विषयविद्ध है जो मानो धरतीरूपी वधूको आलिगित करके स्थित है ||४|| जो पारिजात, चम्पक, कदम्ब, मुचुकुन्द, कुन्द, मंदार, सार और सैरन्ध्रके पुष्पोंको गन्धसे गुनगुनाती हुई भ्रमरावती, और मिलते हुए बया, मयूर, फीर, कलहंस, कुरु, कारण्ड तथा कोयलोंके शब्दोंसे सुन्दर हैं ॥१॥ मदवाले हाथियों के गण्डस्थलसे झरते हुए मदरूपी धोके बिन्दुओं से रंग-बिरंगे जलमें विचरण करती और नहातो हुई; देवांगनाओंके स्तनों के होशरसे पोले हुए. फेनसे जिसके सरोवरों के किनारे शोभित हैं ||२|| जिसके सीमामार्ग विविध धान्यफलोंसे झुके हुए क्षेत्रोंके कोयो सुरभित परिमलके आमोदसे चंचल पक्षियों के समूहसे क्रुद्ध कृपकत्रालाके द्वारा किये गये छू-न्छू करनेके कलरवके प्रति कान देनेके कारण, स्थिर चरणवाले हरिणोंसे माच्छन्न हैं ॥३॥ जहाँपर धान्य, फंगु, जो, मूंग और उड़दसे सन्तुष्ट, और मन्द-मन्द जुगाली करते हुए गौमहिष-समूहसे दुहे जाते हुए दूध-दही और घोको वापिकाओंमें पथिकजन स्नान कर रहे हैं ।।४।। जहाँके गोठ पूर्णचन्द्रको किरणोंसे सुन्दर निशामें क्रीड़ा करते हुए गोपाल और गोपालनियोंके द्वारा गाये गये गेय रसके बशसे दुःखी बंधुओंके द्वारा मुक्त निःश्वासोंके सन्तापसे नष्ट होती हुई गोष्ठियोंसे शोभित हैं ॥५॥ जहां वृषभोंके सींगोंसे क्षत गड्ढेवाली धरतोसे उछलते हुए सरस स्थलकमलों (मुलाव) के मन्द पराग समूहसे पीले और ऊंचे वटवृझोंके आरोहों-प्रारोहों और शाखाओंपर झूलती हुई यक्षिणियों के कारण निकटवर्ती पामर जनसमूह लुप्त हो गया है ।।६।।
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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