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________________ ३६. १५. १३] हिन्दी अनुवाद ४०१ "हे देवो सुलोचने ! तुम अवतरित हुई और में पापी सौत खारसे भर गयो। तुमने जो कथांग कहा, उसमें में श्रद्धा नहीं करती। लो मैंने सब देख लिया, अब क्या छिपाऊँ।" तब रमणीजनोंके लिए चूड़ामणिके समान उन दोनोंने उसे शल्यरहित बना दिया। जयकुमारने अपने छोटे भाईके लिए राज्य सौंप दिया और मेषके स्वरमें घोषणा की कि आज मैं आकाशमें वहाँ-वहाँ जाता हूँ जहाँ जिन, ब्रह्मा और स्वयम्भू स्वयं निवास करते हैं। उसने रस्नालंकारोंसे विच्छुरित विद्याधरका स्वरूप बनाया। जो प्रभावदोका रूप था, अपने पतिके लिए उस रूपको धारण कर सुलोचना आकाशपथमें प्रियके पास स्थित हो गयी। दोनों शीघ्र आकाशपथमें उछल गये। जन उन्हें देखता है और अपनी ऊपरको दृष्धि छोड़ देता है। वियोगको सहन नहीं करता हुआ रोता है। अन्तःपुर और परिजन निःश्वास लेता है, बान्धव जन याद करता हुआ शुष्क होता है। यत्ता-जिसने मेघोंका अतिक्रमण किया है ऐसे सुमेरु पर्वत और भद्रशाल वनके भीतर जिन-मन्दिरोंमें चंचल कोयलोंके समान हाथवाले वधूवर प्रवेश करते हैं ||१४|| दोनों जिनश्रेष्ठको वन्दना कर, सालवृक्षोंसे सरल उस भद्रशाल बनका परित्याग कर उनके ऊपर पांच योजन गये । वहाँ नन्दनवनमें चारों दिशाओं में अकृत्रिम चैत्यालयों और चैत्योंकी पूजा कर, फिर वेसठ हजार योजन ऊपर चढ़कर सुमेरु पर्वतके शिखरपर उन्होंने सौमनस नामका वन देखा, जिसमें हाथियोंके सँड़ोंसे आहत वृक्षोंसे रस रिस रहा है। वहाँपर भो जयसे भुवनत्रयमें उत्तम अकृत्रिम जिनवर प्रतिमाओंको प्रणाम कर फिर पैंतीस हजार पाँच सौ योजन ऊपर मेत्रोंको लांघकर पाण्डुक वनमें प्रवेश कर, अहंन्त बिम्बोंका अभिषेक कर, मेरुपर्वतको चूलिका देखकर, चालीस योजन और जाकर उत्तरकुरु और दक्षिणकुरुके दर्शन किये और दस प्रकारके कल्पवृक्षोंको देखा । छहों कुलपर्वत, चौदह नदियाँ और भेदगतिवाली अनेक नदियां देखीं। पत्ता-जहां अपने गुणों और गणोंसे युक्त लोगोंको रंजित करनेवाला अनुपम शरीर जम्बू स्वामी रहता है, ऐसा रत्नोंसे उद्योतित जम्बूदोपका धिल्लु जम्बू वृक्ष देखा ।।१५।। २-५१
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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