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भूमिका "तुह गामें गड भासह अहि वि। तुह पामें णासह मस्तकरि कर देंत विधाइ गरह हरि । तुह गानें हुपबह पड रहा
परबलु गय पहरण भउ वहद, . .....वह णाम संतोसिय सलउ
तुट्टैवि जंधि पमसंखलउ । सुह जामे पायरि तरइ णव, मोसरह कोह कंप्य-जरु । तुइ णाम केबल किरणरवि
गीरोय होति रोया तर वि 1918 भरत के इन सद्गारों में भामरस्तोत्रको छाया स्पष्ट रूपसे है कहीं-कहीं अक्षरषः अनुवाद है। एक उदाहरण देखिये :
"मसदिपेन्द्र-मगराज-दवानलाहिसंग्राम-वारिधि-महोदर बंधनोत्पम् । सस्थाशु नाशमुपयाति भभियेव यस्तावकं स्तवमिम भतिमानधीते ॥" भक्ता046
सेक्षणं समदकोकिलकंठनीलं क्रोधोवतं फणिनमुत्फणामापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशकस्वन्नाभनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ।।" भक्का 4i
श्रीपालको भागमे-से निकलने पर कविकी प्रतिक्रिया इस प्रकार है
जिनवरको स्मरण करनेवालोंको नाग नहीं खाता । विषसे धर्मद नाग सामने नहीं आता। तलबारो के संघर्षसे उत्पन्न अग्निवाले युद्ध में जिनका नाम स्मरण करनेवालोंको अच्छेसे अच्छे योवा घेखकर भाग जाते है? 33-11
यह भाव भन्नामरस्तोत्रके पलोक 39-40 में देखा जा सकता है। ऋषभदेवके महानिर्वाणपर भरतके उद्गारोंमें उसको मनोदिया देसी जा सकती है
'हे जिन, आपके बिना नेत्र अन्धे है। अशेष दिशाएँ सूनी है। प्रजा हाथ उठाये रो रही है। हे विश्वरूपी बालकके पिता, तुम मेरे पिता हो, तुम्हारे बिना कला विकल्प कौन बतायेगा ? तुम्हारे बिना इस प्रजाका पालन कौन करेगा ? महान् तपश्चरण निष्ठा कौन सहन करेगा? तुम्हारे बिना तत्वभेद कौन जानेगा ? हे देव, तुम्हारे बिना घेवाधिदेव कौन होगा ? हे स्वामी, तुम्हारे बिना यह त्रिलोक मनाथ है।'
"पई विपु जिण अंधई लोयगई दिसत असेसउ सुणियउ । जग्मिवि इत्य ओम्माहियर पर परायर प्रणियउ॥"37-23