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________________ ३३. ६.५] हिन्दी अनुवाद वहाँ वह आयेगा । उस दिनसे लेकर इस 'जिन मन्दिर' में वह योद्धाओं सहित अवतरित होगा। वह कुमारके कन्धेके टेपनको दूर करेगा। और कन्याका मुख चूमेगा, और भी वह शत्रुओंको मारनेवाले मण्डलको प्राप्त करेगा। तब वह धीर परोपकारी कहता है कि मुझे कम्यासे क्या उद्देश्य ? मैं धर्मसे अपनी सामर्थ्य और सिद्धिको प्रास करूंगा। तब आचार्यने उसे वेद्य घोषित किया। राजाने कहा कि पास आइए । श्रीपालके निकट आओ। कमलके समान जब उसने हाथसे उसे छुआ। जैसे ही उसने छुआ, वैसे ही उस लड़केका टेढ़ापन दूर हुआ। सीधी गर्दनका वह पुत्र मन्दिरमें गया, पिता उसे देखकर प्रसन्न हुआ। परमेश्वरोके परके आँगन में जिन मन्दिरमें स्थित, दूसरों का काम करने के लिए उत्कण्ठित किसी कंचुकीने व्याधि नष्ट कर दी। मन्त्रियोंने यह पवित्र बात राजासे कही। पत्ता-रची गयी कपट मायाके द्वारा जिसने अपनो नयो काया ढक रखी है, ऐसे उस दामादके पास राजा चला ||४|| .. .. . . . . . . : शीघ्र ही उसने मद सरनेवाले हाथीको प्रेरित किया। और जिसमें छह जीवोंकी दया निवास करती है, ऐसे जिन-मन्दिर में पहुंचा। जिन-मन्दिरमें जबतक सुधीजनोंके लिए दर्शनके लिए तिसिर नामका विद्याधर पहुँचता है, तबतक प्रवंचना बुद्धि रखनेवाली मायाविनी वह शोभावती उस सुन्दरको उसी प्रकार ले गयी जिस प्रकार हरिणी हिरणको ले जाये | प्रियके जीवनरूपी धान्यको रक्षाके विचारसे उस सुखावतीने उसे एक मणि बागोंमें रख दिया। जिसने आकाशमें पवनवेगसे अपने विमानका संचालन किया है, ऐसा वह तिसिर विद्याधर कुमारको नहीं देखकर लोट आया। यहाँपर उस मुग्धाने अभिनव वर उस राजाको हाथकी अंगुलीमें पहनी गयी तथा मनुष्योंके नेत्रोंका मदन करनेवाली अंगूठीसे विद्युतवेगाके आकारका बना दिया। वह वहाँसे चली गयी और वहां पहुंची जहाँ सुखोदय नामको दूसरी बाबड़ी थी। पत्ता-वह बावड़ीरूपी विलासिनी शोभित थी। नव नीलकमल ही उसके नेत्र थे। राजहंसोंके साथ निवास करनेवाली और जलरूपी वस्त्र उसने पहन रखा था ॥५॥ बह कन्या जलक्रीड़ाके लिए अपने कर-कमलको बढ़ाती हुई जैसे ही कन्याओं को पुकारती है वैसे ही उसे एक भी कन्या दिखाई न दी। इसने जान लिया कि वे तालाबसे चली गयी हैं। या वे सरोवरको चली गयी हैं। यहाँ राजा 'श्रीपाल' ने उद्दाम वेगवाले अपने विद्युत्-रूपको देखा। अपने महत्त्ववाली औलोको उसने हटा लिया और अपना रूप धारण करके स्थित हो गया। उसने अपना मन्त्र पढ़ा, उस अवसरपर उसकी दासीने कहा कि तुमने अपने हायसे मुद्रिका श्यों हटा दो। २-४
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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