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________________ २२९ २८. १८.५३] हिन्दो अनुवाद ___ पत्ता-जिसके पितामह जिन थे, और पिता राजाओंका स्वामी, तो भी वह बन्धनको प्राप्त हुआ । हे माँ ! देखो, कुमार राजाने अपने दुष्कृतका फल किस प्रकार भोगा ? ॥३६|| Here :..चाही समसार हार इस प्रकार कहते हुए घनस्तोंवाली सुरवनिताओंने जयकुमारके साहसको प्रशंसा की । देवसमूहने पुष्पोंको वर्षा की । रुनरुन करते हुए भ्रमरोंने गान किया। जयकुमारका विलास और देवकी चेष्टा विपरीत होती है। रघमें बैठकर कान्तिवान्, हाथको अंगुलियोंके अंकुशसे गजको प्रेरित करता हुआ मेघस्वर (जयकुमार ) अपने मसुरके घरमें प्रविष्ट हुआ। पुरबरमें विजयका आनन्द बढ़ गया। सभी लोग उसी समय परभवको तुप्तिसे युक्त परमक्तिसे जिनभवन गये। जन्म और आवासके बन्धनोंसे मुक्त, त्रिलोककी पूजाके योग्य अहंन्तको सभी राजाओंने मिलकर अपने हाथ जोड़कर मुखरूपी कुहरसे निकलती हुई सुन्दर वाणीसे वन्दना की-"बहुमिथ्यात्वके बीजसे उत्पन्न यह विशाल मोहरूपी जडयाला, (संसाररूपी वृक्ष) विस्तीर्ण, चार गतियों के स्कन्धोंबाला, सुखकी आशाओंको शाखाओंवाला, पूत्र-कलत्रोंके सुन्दर प्रारोहोंसे सहित, बहुत प्रकारके शरीररूपी पत्तोंको छोड़ने और ग्रहण करनेवाला, पुण्य-पापरूपी कुसुमोंसे नियोजित, सुख-दुःखरूपी फलोंकी श्रोसे सम्पूर्ण, इन्द्रियरूपी पक्षिकुलोंके द्वारा आश्रित । पत्ता-इस प्रकारके संसाररूपी वृक्षको आपने ध्यानरूपी अग्निके द्वारा भस्म कर दिया है ऐसे हे जिन, जन्म-जन्म में तुम मेरी शरण ही, कामदेवको जीतनेवाले आपकी जय हो" ||३|| ३८ 'मेरे कारण आघात करनेवाले अकीति और दुर्जेय जयकुमार इन दोनोंमें से यदि एक भी मरता है, और उसके बाद यदि इन्द्र भी मुझे चाहता है तो भी मेरी आहार, लक्ष्मी और कुत्सित कुणिम शरीरसे निवृत्ति ।' इस प्रकार सोचती हुई, कायोत्सर्गमें स्थित पुत्रीको पिताने पुकारा, "हे सती, तुम्हारो सामर्थ्यसे क्रोधसे भरे हुए दोनों महायशस्वी राजा युद्धसे बच गये। शान्ति हो गयी। अब तुम क्या ध्यान करती हो, हे सुन्दरी! करपल्लव ऊंचा करो।" अपने पिताके वचन सुनकर कुमारी कामकिशोरी ने अपना विनय समाप्त कर दिया। वह जयकुमारके हाथसे उसी प्रकार जा लगी, जिस प्रकार विष्णुसे श्री जा लगती है । कुमारके पास स्नेहसे जाकर और धरतीपर दण्डासनसे देहको धारण करते हुए, पेरोंपर पड़ते हुए स्वामीकी भकिसे भरकर अकम्पन कहता है, "हम लोग मनुष्य है, आप परमेश्वर हैं । हम लोग पक्षी हैं, आप कल्पवृक्ष हैं। हम लोग कमलोंके आकर हैं, आप दिवाकर है। हम कुमुदोंके सरोवर हैं, आप चन्द्रमा हैं। अपने अनुपालितोंसे क्या रूठना, अपने भृत्योंको अभयदान दीजिए।"
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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