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________________ २८. १४.७] " हिन्दी अनुवाद २०३ कहा-हे नृपवर ऋषि सुनिए, काशी देशमें वाराणसी नगरी है। उसमें राजा अकम्पन, रानी सुप्रभा है । अलंकरोंसे युक्त वह ऐसी लगती है मानो वरकविकी कथा हो। खिले हुए कमलोंके समान मुखबाले हेमांगद प्रमुख उसके एक हजार पुत्र हैं। उनकी बहन मगनमनी सुलोचना है। और छोटी सुखभाजन लक्ष्मीवती। उनमें-से बड़ीके रूपका क्या वर्णन किया जाये कि जिसके लिए कोई उपमान ही नहीं दिखाई देता। पैरोंको कमलके समान क्यों कहा गया ? वह क्षणभंगुर होता है, कविने इसका विचार ही नहीं किया। नक्षत्र दिनमें कहीं भी दिखाई नहीं देते, मानो जैसे वे उस कन्याके नखोंको प्रभासे नष्ट हो गये। पत्ता-जो कवि छोटेसे शंखको अंपायुगलके, तथा हाथीको क्षणभंगुर सूडको करुयुगलके समान बताता है, वह भ्रान्तिमें पड़ा हुआ है ।।१२॥ १३ उसके उन नितम्बोंके भारीपनका क्या वर्णन करूं कि जहां विभुवन छोटा पड़ जाता है। जलावर्त ( भंवर) उसकी नाभिके समान नहीं है, लोगोंके द्वारा उसका घूम-घूमकर भोग किया जाता है। चित्तको गतिको रोकनेवाला स्तनयुगल कहाँ ? और कहाँ कविगण उसे स्वर्णकलया बताता है ? एक तो वे ( स्वर्णकलश ) आग, तपाये जाते हैं, और दूसरे उनसे दासोके रिका मण्डन किया जाता है । खण्ड और कलंक सहित चन्द्रमा अच्छा, परन्तु उससे युवतीके मुखको उपमा क्यों की जाती है ? उसके समान तो उसीको कहा जाना चाहिए। जिस प्रकार कुमारीका हृदय प्रकट होता है, वैसा अवलोकन भुग नहीं जानता। फिर उसे मृगनयनी क्यों कहा गया ? कितनी उक्ति-प्रतिउक्ति दी जाये। नखसे लेकर केशोंके अग्रभाग तक उसके जितने उत्सम अंग हैं वे निरुपम है। इतनेमें शोन वसन्त मासमें लीलादोलन और क्रोडाको युक्तियाँ बा गयीं। पत्ता--अंकुरित, कुसुमित और पल्लवित वसंत समयका आगमन शोभित है। जिस बसन्तमें अचेतन तर भी विकासको प्राप्त होते हैं उसमें क्या मनुष्य विकसित नहीं होता ? ||१३|| शीन हो आम्रवृक्ष कण्टफित हो गया, मधुलक्ष्मीने आलिंगन करके उसे ग्रहण कर लिया। शीघ्र चम्पक वृक्ष अंकुरोंसे अचित हो गया, मानो कामुक हर्षसे रोमांचित हो गया। शीघ्र अशोक वृक्ष कुछ-कुछ पल्लवित हो उठा, मानो ब्रह्माकपी चित्रकारने उसकी रचना की हो; शीघ्र ही मन्दारकी शाखा पल्लवित हो गयी मानो चलदल (पीपल ) को मधुने नचा दिया हो। शीघ्र नमेरु ( पुन्नाग वृक्ष ) कलियोंसे लद गया, और मतवाले चकोर और कोरोंको ध्वनियोंसे गूंज उठा । शीघ्र ही काननमें टेसू वृक्ष खिल गया, और पथिकोंके लिए विरहाग्नि लगने लगी। शीघ्र
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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