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________________ - - -- - - - - --- - - भूमिका कारण है ) और शाखाएं नीचे है (ब्रह्मा इस संसारका विस्तार करता है जो परमात्मासे उत्पन्न है और उनके मीचे ब्रह्मलोकमें पास करनेके कारण नीधे है) जिसे अविनाशी कहते है, और वेद जिसके पत्ते है । उस वृक्षाकी जड़ें बढ़ो इई है, और विषयरूपी कोंपलोंवाली शाखाएं कपर-नीचे फैली बुई है। तथा मनुष्ययोनिमें कर्मों के अनुसार बांधनेवाली ममता और वासनारूप जड़ें नीचे ऊपर-फैली हुई है। इस संसाररूपी वृक्ष का पैसा स्वरूप कहा गया है, वैसा वह विचारकालमें नहीं पाया जाता। इसका न तो अन्त है और न आदि और न इसकी अच्छी प्रकारसे स्थिति ई, अतः दृढ़ मूलोंवाले इस वृक्षको असंग ( वैराग्य ) रूपी शस्त्रसे काटकर उसके बाद उस परम पदकी खोज करनी चाहिए कि जिसमें गये हुए पुरुष धापस संसारमै नहीं आते। मैं उसो आदि पुरुषको शरणमें हूँ कि जिससे संसारवृक्षको प्रवृत्ति विस्तार पा सकी। थीमद्भागवतमें संसारको सनातन वृक्ष कहा गया है जो प्रकृतिस्वरूप है एफायनोऽसौ डिफलस्त्रिमू महचतूरसः पञ्चविषः षडात्मा । सातत्वगटविटपो नवाक्षो दशच्छदो द्विखगो ह्याविवक्षः ।। 10-3-27 त्वमेक एवास्य सलः प्रमूलिस्वं मनिषानं त्वमनुग्रहण । स्वन्मायया संवृतवेलसत्त्वां पश्यन्ति नाना न विपश्चिती ये 10-3-23. दह संसार एक सनातन वृक्ष है. इसका आश्रय -एक प्रकृति । इसके दो फल है-मुल और दुन्न । तीन जड़ें है-सत्य, रज और तम । चार रस है-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । इसे जानने के पाँच प्रकार है-बोटललानेत्र, रसना और सिमट सके छह स्वभाव है-पैदा होना, रहना, पढ़ना, पदलना, घटना बौर नष्ट हो जाना । इसकी सात छाल है-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । इसकी बाट शाखाएं है-पंच महाभूव, मन, बुद्धि, महंकार । इसमें नौ द्वार है (शरीरके नौ छिद्र)। प्राण, अपान, पान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कमल, देवदत्त और धनंजय मे इस प्राण दस पत्ते हैं । इस संसाररूपी वृत्तपर दो पक्षो बैठे है-जीव मौर ईश्वर | इस संसाररूपी वृक्षकी उत्तिके एकमात्र आषार बाप ही है। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके हो अनुपहसे इसकी रक्षा होती है। आपको मायासे आवृत चित्तवाले जो तत्त्वज्ञानी पुरुष नहीं है, ये आपको नाना रूपोंमें देखते हैं । श्रीमद्भागवत 1012127-28 तुलमारमा दधिसे देखनेपर स्पष्ट है कि बक्षका रूपक ईश्वर जीव और संसारको पारस्परिक स्थिति को समझाने के लिए है। उपनिषद् यह कहती है कि संसार ( प्रकृति ) के वृक्षपर दो पक्षी बैठे है-सुन्दर पंखोंवाले, जो साथी है. मित्र. एक वापर आसीन है। एक बक्षक फलको ला रहा है, जबकि दूसरा नहीं खाता । गीताकारका कहना है कि इस संसाररूपी वृक्षके जनक वासुदेव है, ब्रह्मा जिसे विस्तार देते है, वेद उसके पसे हैं, इसी प्रकार वह बढ़ता जाता है, उसका न तो आदि है और न अन्त है । गोताकारके अनुसार वृक्षाकी परम्पराको वैराग्यसे काटकर ही व्यक्ति परमपदको पा सकता है, यह तभी सम्भव है कि जब आदिपुरुषको शरणमे जाया जाये । श्रीमद्भागवत संसारको सनातन वृक्ष कहती है। वह अपने रूप में कुछ नयी बातें जोड़ देतो है, इस वृक्षका सृजन-संहार-संरक्षण ईश्वरके हाथमें है। 'पुष्पदन्त' अपने वृक्षरूपक में कुछ नयी बातें जोड़ देते हैं। एक तो वह जनतत्वों को इलमें घटित करते है। दूसरे जीव और ईश्वर के स्थानपर इन्द्रियोंको पक्षी माननेके पक्ष में है। तोसरे, ईश्वरको जगह मिथ्यात्वको संसारका कारण मानते हैं जिसे ध्यानकी अग्निमें भस्म किया जा सकता है। गीलाकार भी कहते है कि दर भूलवाले इस संसाररूपी वृक्षको वैराग्यसे काटकर आदिपुरुष में मिलाया जा सकता है। प्रश्न यह है कि जब जीव संसारवृक्षसे स्वतः नहीं बंधा, तो सस बन्धनको बह वैराग्यसे कसे काट सकता है, यह भी एक प्रश्न है कि पहले-पहल जोवफा मिथ्यात्वसे किसने बांधा ? संसारको वृक्ष कहनेका अभिप्राय यही है कि वह एक अन्तहीन अनादि प्रवाह है।
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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