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________________ २७.६.८] हिन्दी अनुवाद १७२ समस्त जीवोंके साथ कृपा करनेवाले पीठ-महापीठ राजाओंने, राजघरके अधिपति धनदेवने भी जो सतजीव, प्रभुको रजमें नत, और विविध रत्नसमूहको त्यागनेवाला था । ( इस प्रकार ) दसों राषाओं और एक हजार ( दस सौ) पुत्रोंने उनके साथ मुनिपद ग्रहण कर लिया। लेकिन मुनि पचनाभि अकेले ही भ्रमण करते थे वह अपने शरीरपर चलते हुए सोको नहीं गिनते। पत्ता-धरतीपर घूमते हैं, शरीरको बर्षिता करते हैं, और कहीं भी आमहीन प्रदेश : रहते हैं । आश्रय प्रदेशोंसे शून्य एक भयानक मरघटमें वह स्थित हो गये ।।४॥ (१) दर्शन विशुद्धि, (२) गुरुओंकी विनयसे श्रेष्ठ ( विनय सम्पन्नता ), (३) शीलवतोंमें अनतिचार (शीलत), (४) निरन्तर स्थिर शानका उपयोग करते रहना ( अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ); (१) अपनी शक्ति के अनुसार तप ( शक्तितः तप), (६) और संवेगभाव ( जिनधर्मसे अनुराग )। उन्होंने बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर दिया और मुनिसंघका वैयावृत्य योग किया। बिनभक्ति, प्रचुर श्रुत और साघुक्ति, तथा प्रजित लोगोंमें उन्होंने परमति की। छह प्रकारके कायोत्सर्गमें वह कमोका आचरण नहीं करता, अपने ज्ञानसे अहंत मार्गका प्रकाशन करता है। वह भव्योंके पापमलका शमन करता है। वात्सल्य प्रबोधन और धर्मकी स्थापना। इस प्रकार वीतराग भावसे पापका हरण करनेवाली बहन्तको ये सोलह कारण भावनाएं मोक्षका आरोहण करानेवाली और त्रिलोकचक्रको क्षुब्ध करनेवाली हैं। उन्होंने उस भावसे इनकी भावना की कि जिससे घोर पाप नष्ट हो गये। पत्ता-काल कमसे उन्होंने सम्पूर्ण प्रतको ग्रहण कर लिया और पा लिया। जगल्पिता तीर्थकर नामगोत्रका उन्होंने बन्ध कर लिया ॥५|| कोन देव, इस प्रकार देवसे परिपूर्ण है । इतना बड़ा पुण्य कौन संचित कर सकता है ? उसने उग्र तप तपा, ( और उग्र तप ऋद्धिका धारक बना) घोर तप किया। उसने दीप्ति तप, ऋद्धि तर किया, संक्षोणगात्र तप किया, अमृत-औषधियों, श्वेल-औषषियों, विप्र-औषधियों, सर्व-औषधियों, पृथ्वीको रंजित करनेवाली औषधियोंसे वह मुनि शोभित हैं। उन्हें श्रेष्ठ बुद्धिऋद्धि ( कोठारीकी तरह जिन सिद्धान्तोंका रहस्य बतानेवालो ) वर बीज बुद्धि-ऋद्धि ( बीजाक्षर ज्ञानसे सिद्धान्तोंका निरूपण करनेवाली), सम्भिन्न श्रोत्र-बुद्धि-ऋद्धि ( भिन्न शास्त्रोंका रहस्य आननेवाली ); पादानुसारिणी बुद्धि-ऋद्धि, ( पदके अनुसार अर्थ जाननेवाली ), तनुविक्रिया-ऋद्धि, अणिमा-महिमा-लधिमादि सिद्धि, सुरसिद्धि और महान महानस सिद्धिर्या उत्पन्न हुई। वह आठवें
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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