SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हाथी मार २२ गृहिणियों के हार और करवलयोंका अपहरण करनेवाली तथा शुभकल्याण करनेवाली गन्ध हाथियोंसे रहित उस नमरीमें, योद्धाओं के लिए कालदूत, प्रतिकूल शत्रुओं के सिरके लिए शूल के समान वे दोनों साथ रहते थे। इतने में पिता के लिए दाहज्वर उत्पन्न हो गया। हार और चन्दनका लेप उसे जलाता । चन्द्रमा उसे प्रलयसूर्यके समान धकबक करता है। गोला वस्त्र अग्निज्वालाकी तरह जलाता है। आपत्तिके समय नींद नहीं भाती । उसका अंगदाह किसी भी प्रकार शान्त नहीं होता। वह श्रेष्ठ विद्याधर राजा अपना मुँह कायर करके रह गया। उस अवसर पर पित्ताने कमलके समान मुखनेवाले आपने पहले पुत्रको बुलाया । उसने उससे कहा"जहाँ सूर्यको किरणोंको आहत करनेवाले सघन वन और लताघर हों, जहाँ सुगन्धित काँपता हुआ देवदारु हो, और जहाँ शीतल हिम तुषार चल रहा हो, और जहाँ हवा बहती हो और शरीरको शान्ति देती हो, ऐसे शीतल जलके तटपर मुझे ले चलो। पचन वेगवाली अपनी विद्याको आदेश दो कि वह मुझे तुरन्त ले जाये ।" तब उसने 'जो आज्ञा' कहकर विद्याधर देवी समूहको पुकारा । २०. २४३] ... पत्ता -- पुत्रने अपनी विद्याएँ भेज दीं। लेकिन वे उसके सम्मुख नहीं देखतीं । मन्त्र, देव, औषध, स्वजन पुण्यके पराङ्मुख होनेपर पराङ्मुख हो जाते हैं ||२२|| २३ पापीके किसी प्रकार प्राण-भर नहीं जाते। उसने रोई ध्यान प्रारम्भ कर दिया कि सम्पति सुखमें लोगोंके द्वारा कहा जाता है कि सुधीजनोंके द्वारा सेवनीय हे देव तुम जिओ । अपने हाथों से पेटको पीटता हुआ, दुःखकथनके साथ राजा चिल्लाता है । लढ़ती हुई दोनों छिपकलियों के शरीर कट गये, उनके शरीरके मध्यसे रक्तको बूंद गिरी, उससे अरविन्द आश्वस्त हुआ । रक्तकण ऐसा शीतल लगा जेसे पूर्णचन्द्र हो । यह देखकर, "उसने अपने पुत्र हरिश्चन्द्रको आदेश दिया कि "यदि मैं रक्त सरोवरमें जलक्रीड़ा करता हूँ तो हे पुत्र ! मैं निश्चित रूपसे नहीं मारता हूँ । अनुचरोंके हाथों और सिररूपी घटकोंके द्वारा लाये गये खरगोश, मेंढा, महिष और हरिणोके खून से गड्ढा खोदकर इस प्रकार भर दो कि जिससे में फल उसमें स्नान कर सकूँ ।" धत्ता - हिंसा वचन और विधि सुनकर कुरुविन्द पिताको हाथ जोड़कर चला गया । सवेरे उसने बावड़ी बनवायी और कृत्रिम रक्तसे भर दी ||२३|! २४ सन्तुष्ट होकर राजा उसमें घुसा। स्नान करते हुए उसने स्वाद जान लिया कि रक्त नहीं निश्चित रूप से लाक्षारस है। मायावी इस पुत्र में गारता हूँ। उसके
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy