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________________ २१.३.१२] हिन्दी अनुवार पड़ा यदि बिना कुम्भकारके स्वरूप ग्रहण कर लेता है, और मिट्टीका पिण्ड स्वयं कलश हो जाता है, तो में कर्ता और कर्मको एक कहता हूँ और नहीं तो भेदसे दोनोंको भिन्न मानता है। यदि ईश्वर भुवनतलका निमित्त है तो उसका कर्ता कौन है? यदि वह नित्य है तो उसमें परिणामवृद्धि नहीं हो सकती। परिणामरहितके कर्मसिसि कैसे हो सकती है ? भुवनकोपकी रचना कर यदि वह उसे नष्ट कर देता है, यदि उसकी ऐसी क्रीड़ा है, यदि वह समस्त जग और जीवोंको निष्क्रिय होकर भी बनाता है, और संहारके समय अपने शरीरमें धारण कर लेता है, उनके बन्धनका संयोग करता हुआ वह पापसे लिप्त नहीं होता? तो क्या वह अज्ञानी है ? यदि वह निडा है मोड से लिप नहीं होगा तो फिर ब्राह्मणका शिर काटनेसे वह अशुद्ध क्यों है ? यदि यह कहते हो कि शिव नहीं शिवका अंश चण्ड होता है, तो क्या हेमखण्ड नाग हो सकता है ? (यह कहलायेगी शिवकला ही ) नगरदाह, शत्रुवष, रक्तपान और नृत्य करना क्या यह सन्तोंका विधान है ? यदि शिवके द्वारा परित्राण किया जाता है, तो उसने फिर दानवोंकी रचना क्यों को ? यदि उसने वत्सलभावसे लोककी रचना की, तो उसने सबके लिए विशिष्ट भोग क्यों नहीं बनाये? पत्ता-जिससे मिथ्यात्वरूपी विषको बंदे झरती हैं, कुवादियोंके ऐसे शिवरूपी आकाशकमलके मकरन्दोंको जिन भगवान्ने नहीं देखा है, उनका क्या वर्णन किया जाये ॥२॥ अज्ञानी स्वयं अपना मार्ग नहीं जानता, नरक-श्विर स्वर्ग और अपवर्ग यदि जीवके लिए शिक्की प्रेरणासे होते हैं, तो फिर की गयो तपको भावनासे क्या? कौन जानता है कि शिवको चेष्टा कैसी है, क्या वह इष्टको नष्ट करनेवाली भीषण होगी? यदि यह कहते हो कि वह कर्मके अनुसार होती है, तो वह स्वजनोंका प्रलयमें संहार क्यों करता है ? शेव उसे गोपति ( इन्द्रियोंका स्वामी) क्यों कहते हैं ? जड़, पिशाच और मस्त असम्बद्ध ये मुझसे क्या कहते हैं ? नर जन्म देनेवाला पिता ब्रह्मचारी है और माता भी कुमारी है। जिस प्रकार शिव, उसी प्रकार ब्रह्मा और विष्णु मी नहीं हैं। हस्तिकुलके बिना हाथी नहीं हो सकता। इसी प्रकार बिना मनुष्य परम्पराके मनुष्य कैसे? इस प्रकार जग अनादि-निधन सिद्ध हो गया ।" सात, एक, पाँच और एक रज्जू विस्तारवाले क्रमशः अधोलोक, मध्यलोक, ऊवलोक ( ब्रह्म-अझोत्तर स्वर्ग तक ) और उसके भागेके लोकका भूतल है । अधोलोक वेत्रासनके समान, मध्यलोक झल्लरो और ऊर्ध्वलोक मृदंगके समान, कुल चौदह रज्जू प्रमाण ऊंचा है। उसके मध्यमें तिथंच लोक बसा हुआ है, जो असंख्य द्वीपों और समुद्रोंसे सहित है । एकने एकको वहाँ तक घेर रखा कि जहाँ तक स्वयम्भूरमण समुद्र है। - - -
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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