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________________ २१.८.३] हिन्दी अनुवाद करता हुआ, तथा शमभानसे अपने गोवनको शान्त हरारे हुए. लहान के लिए चला गया। उस वनमें जहाँ सुअरोंके द्वारा अंकुर खाये जा रहे हैं, मेघ शिखरोंसे लगे हैं, जो स्वरोंसे आवाज कर रहा है, जो बड़े-बड़े बांसोंसे युक्त हैं, जो लताओं और प्रियाल लताओंसे सहित है, जो शवरियोंके लिए प्रिय है, जिसमें अंकुर निकल रहे हैं, जिसमें विचित्र अंकुरोंका समूह है, जिसमें भ्रमर गन्धका पान कर रहे हैं, जिसमें नागराजोंका अधिवास है, जो मधुसे आद्रं है और दावानलसे प्रज्वलित है, जहाँ पीलू वृक्ष बढ़ रहे हैं। पीलु ( गज) गर्जना कर रहे हैं, जहाँ शीत गर्मी होती है, जो तपस्वियों के लिए हितकारी है, जो पवित्र और प्रसन्न है, जहाँ आहारादि अनेक संज्ञाएं नष्ट कर दो गयीं हैं, जिसमें मृत्युकी आशा समाप्त हो चुकी है, जिसमें दिशाएं खिली हुई है, जिसमें अवकाश शान्त है, और जिसकी दिशाओंमें तपस्वी है। ___पत्ता-सिंहोंसे अवस्थित उस काननमें कुकर्मको शान्त करनेवाले जयवर्माने पापोंको नष्ट करनेवाले आदरणीय भट्टारकको इस प्रकार देखा जैसे वह मोक्षके पथ हों ।।६।। ७ जिसका तीर्थगमन अथवा कायोत्सर्ग, जिसका धर्म कथन अथवा मौन । जिसका इन्द्रिय युद्ध अथवा परम करुणा, जिसकी अहंतु चिन्ता अथवा शास्त्रशरण, जिसकी योगनिद्रा अथवा जागरण । जिसके लिए दुष्टके द्वारा किया गया दुःख अथवा तपश्चरण । जिसका धरती पर सोना, अथवा काठ या तृण पर। जो मनके मलके बिना शरीरका मल धारण करते हैं अथवा जिसका जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया उपवास होता है, अथवा जिनके द्वारा शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं ऐसे उन दुर्मद कामदेवका नाश करनेवाले स्वयंप्रमको प्रणाम कर श्रीषेणके पुत्रके द्वारा चाहा गया अनगार धर्म स्वीकार कर लिया गया। शीघ्र ही उसने केशलोंच कर लिया। शीघ्र ही उसने इन्द्रियों के विकारोंको रोक लिया। तब इतने में महीधर नामका विद्याधर राजा परममुनिको प्रणाम करनेके लिए आया। पत्ता-जपानों और विविध विमानोंसे आकाशतल छा गया । नव प्रजित ( नया संन्यास लेनेवाले ) ने विस्मित होकर उसे बार-बार देखा ॥७॥ उसने यह निदान बांधा कि जिस कुल में इस प्रकारकी ऋद्धि हो, वहाँ मेरा जन्म हो। यदि मेरा मुनिधर्मका कुछ भी फल है तो शत्रुओंका नाश करनेवाला मेरा राज्य हो। इसनेमें उसी क्षण एक काला साप पहाइके विवरमेंसे निकला और उसके हाथमें काट खाया।
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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