Book Title: Granthtrai
Author(s): Vijayanandsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरीश्वरभगवत्प्रणीता ग्रन्थत्रयी॥ (प्रतिष्ठातत्त्वम्, आचेलक्यतत्त्वम्, पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥) सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरिः ॥ प्रकाशकः श्रीजैन ग्रन्थ प्रकाशन समितिः खम्भात Jain Educalon ternational For Private & Personal use only www.jalnelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरीश्वरभगवत्प्रणीता ग्रन्थत्रयी ॥ (प्रतिष्ठतत्त्वम्, आचेलक्यतत्त्वम्, पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥) सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरिः॥ प्रकाशकः श्रीजैन ग्रन्थ प्रकाशन समितिः खम्भात Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ग्रन्थत्रयी (संस्कृत जैनशास्त्रग्रन्थत्रयम् ) • कर्ता : आचार्य श्रीविजयनन्दनसूरिः • संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरिः • प्रकाशक : श्रीजैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, खंभात ॥ • प्रथम आवृत्ति : वि.सं. २०५५, ई.स. १९९९ आचार्य श्रीविजयनन्दनसूरि जन्मशताब्दी वर्ष सर्वाधिकार सुरक्षित प्राप्तिस्थान : १. श्री शनुभाई कचराभाई शाह २. सरस्वती पुस्तक भंडार जीराला पाडा ११२, हाथीखाना, रतनपोळ खंभात-३८८६२० अमदावाद ३८०००१ • मुद्रक : क्रिष्णा प्रिन्टरी, हरजीभाई एन. पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद ३८००१३ फोन : ७४८४३९३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय परमपूज्य परमदयालु संघनायक आचार्य भगवंत श्रीविजयनन्दनसूरीश्वरजी महाराजना रचेला अने अद्यावधि अप्रगट एवा त्रण शास्त्रग्रन्थोने, ते पूज्यपाद श्रीनी जन्मशताब्दीना मंगल वर्षे तेमज तेओ श्रीनी पुण्यस्मृतिमां प.पू. आचार्यमहाराज श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजनी प्रेरणा तथा मार्गदर्शनपूर्वक निर्माण पामेला श्रीनन्दनवन - तीर्थ (तगडी) नी प्रतिष्ठाना रूडा अवसरे, प्रकाशित करतां अमो अपार आनंदनी लागणी अनुभवीए छीए. पूज्य आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीए आ ग्रंथोनुं संपादन करीने तेना प्रकाशननो लाभ अमोने आप्यो छे, ते बदल अमो तेमना ऋणी छीए. आ प्रकाशनमां, प.पू.साध्वी श्रीपद्माश्रीजी - प्रमोद श्रीजीनां शिष्या साध्वी श्रीचंद्रप्रभाश्रीजी - हेमप्रभाश्रीजी वगेरेनी प्रेरणाथी, तेओना गुणानुरागी भक्तगणे आर्थिक सहयोग आपेल छे, ते बदल तेओ सर्वेना अमो खूब खूब आभारी छीए. ग्रंथनुं मुद्रणकार्य करी आपनार श्रीहरजीभाई एन. पटेलना पण अमो घणा आभारी छीए. लि. शाह शनुभाई कचराभाई कापडिया बाबुलाल परसोत्तमदास (जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति) खंभात Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय परमदयालु अने परमउपकारी पूज्यपादश्रीए १६ ग्रंथोनी रचना करेली. तेओना रचेला आ तमाम ग्रंथो तर्कबद्धता, भाषासौष्ठव, शास्त्रागमनिष्ठता अने समन्वयपरक अनाग्रही विचारसरणिने कारणे तेमने प्राचीन शास्त्रकारोनी हरोळमां मूकी आपे तेवा छे. आमांना अमुक प्रकाशित छे, तो अमुक अप्रकाशित. ते पैकी अप्रकाशित एवा त्रण ग्रंथोनुं यथामति सम्पादन करीने अहीं प्रस्तुत करवामां आव्या छे. प्रथम ग्रंथ 'प्रतिष्ठातत्त्व' नामे छे. तेमां जिनबिम्बनी प्राणप्रतिष्ठा एटले शुं ? ते पदार्थ विशे अत्यंत विशद विमर्श करवामां आव्यो छे. भिन्न भिन्न दार्शनिक मतोने पूर्वपक्ष तरीके स्थापी, ते मतोनां मंतव्योनी विसंगति दर्शावी छेवटे जैनमत-संमत प्रतिष्ठातत्त्वनी स्थापना शास्त्र-युक्ति पूर्वक, कर्ताए करी छे. एमां प्रसंगवश, श्रीशेरीसातीर्थनो सांप्रत इतिहास पण तेओए विशदताथी वर्णव्यो छे, जेने लीधे आ प्रकरण तार्किकतात्त्विक बनवानी साथे ऐतिहासिक पण बनी गयुं छे. बीजो ग्रंथ छे 'आचेलक्यतत्त्व'. कल्पसूत्रनां व्याख्यानोमां प्रारंभमां ज आवतां दश कल्पोना वर्णनमा प्रथम कल्पनुं नाम 'आचेलक्य कल्प' छे. आ कल्पना स्वरूप परत्वे टीकाकारोमां मतभेदो प्रवर्ते छे. आ मतभेदो, आग्रहरहितपणे-मध्यस्थभावे, शास्त्राधारपूर्वक निवारण आ प्रकरणमां करवामां आव्युं छे. बे मतोमां कोई एक ज मत, वास्तवमां, खरो होय छे. परंतु तेनो पक्ष लेवा जतां, खबर पण न पडे तेम, आपणे - सामान्य माणसो, ते पक्षना पक्षकार/पक्षपाती बनी जतां होईए छीए, अने पछी विरुद्ध पक्षनी टीका, विरोध, खण्डन माटे मची पडीए छीए. मोटे भागे आम करवा जतां विवेक अने सभ्यतानी हानि ज थाय छे, अने शास्त्रोनी तथा पूज्यपुरुषोनी आशातना थती होय छे. ग्रंथकार आ दूषणथी सर्वथा बची शक्या छे. तेमणे शास्त्रवचनोना टेके टेके, ते वचनोना ऐदंपर्य सुधी ऊंडा ऊतरीने, यथार्थ जणायेला पक्षनी स्थापना करी ज छे. परंतु तेम करवा जतां, बीजा पक्ष तथा पक्षकार प्रत्ये अनादर के आशातना न थई जाय तेनो विवेकपूत ख ल तेमणे राख्यो छे, अने ते पक्षकार पण शास्त्रसापेक्षभावे ज पोतानी स्थापना करतां होई, तेने पण नयदृष्टिए - अनेकांतदृष्टिए ज लेवा-मूलववा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकार ताके छे तथा अनुरोध पण करे छे. ग्रंथकार, इतरजनो जेवा पृथग्जन के सामान्य कक्षाना हठाग्रही - कदाग्रही के एकांतवादी नथी, तेनी आ द्वारा प्रतीति मळी रहे छे. आ समजवा माटे पण, आ प्रकरणनां उपसंहार - वचनोनुं वाचन-मनन करवा जोग छे. ग्रंथ मोटो त्रीजुं प्रकरण छे 'पर्युषणातिथिविनिश्चय'. प्रथमना बे ग्रंथोनी सरखामणीए आ - बृहत्काय गणी शकाय तेम छे. आमां तिथि अने संवत्सरी संबंधी शास्त्राधारितपरंपराधारित तार्किक प्रतिपादन थयुं छे. वि.सं. १९९२-९३मां नीकळेल शास्त्र - परंपराविरोधी नवा तिथिमतना 'बार पर्वीनी हानि - वृद्धि आराधनामां पण करी शकाय', तेवा, शास्त्रोना तात्पर्यथी साव विरुद्ध अने श्रीसंघमान्य गीतार्थोनी सुविहित परंपराथी तद्दन विपरीत एवा कदाग्रही अभिप्रायोनुं शास्त्र, परंपरा, तर्क, युक्ति वगेरेना परम आलंबने आमां निरसन - खण्डन थयुं छे. नवा तिथिमतना संदर्भमां आ प्रकरण, ए शुद्ध मार्गना पथिक- उपासक श्रीसंघ माटे एक अपूर्व मार्गदर्शक शास्त्रग्रंथ बनी रहे तेम छे. आ त्रण ग्रंथो अद्यावधि अप्रकाशित हता; तेनुं संपादन तथा प्रकाशन करवामां निमित्त बन्युं ग्रन्थकार महापुरुषनी जन्मशताब्दीनुं वर्ष पूज्य गुरुभगवंत श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजे फरमाव्युं के आ वर्ष - निमित्ते आ कार्य कर; अने आ पुस्तक आपना हाथमां छे. आ निमित्ते मने ग्रंथोना स्वाध्यायनो अने ग्रंथकार भगवंतना अक्षरदेहना सांनिध्यनो लाभ मल्यो छे, ते मारुं सद्भाग्य छे. आ ग्रंथोनी प्रतिलिपि (प्रेस कॉपी) लखवामां तथा प्रूफवाचनादिमां मारा त्रण साथी मुनिओ - श्रीरत्नकीर्तिविजयजी, श्रीधर्मकीर्तिविजयजी, श्रीकल्याणकीर्तिविजयजीनो पूर्ण सहयोग मल्यो छे. ग्रंथकार भगवंतना आशय विरुद्ध, मारी मर्यादाओने कारणे, आ संपादनमां कांइ क्षति रही गई होय तो ते तरफ मारुं ध्यान दोरवा विज्ञ जनोने नम्र विज्ञप्ति करूं छं. शीलचन्द्रविजय नन्दनवनतीर्थ - प्रतिष्ठा-दिन सं. २०५५ फा. शु. ५ तगडी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पणम् "त्वदीयं तुभ्यमर्पये" धीरो विशालहृदयः समदर्शी भिन्नमतसहिष्णुश्च । वात्सल्यामृतवर्षी शासनहितचिन्तने निरतः ॥ भवभीरुगीतार्थः सर्वजनोपकृतिप्रकृतिकः सुकृती । दम्भाहंकारादिक-दूषणरहितः सरलचित्तः ॥ निजपरसमसमयज्ञः समयज्ञो ग्रन्थषोडशीकर्ता । गच्छाधिप ओजस्वी सूरियः परमगुरुसेवी ॥ सद्गुणपूर्णः श्रीमान् परमदयालुः सुतीक्ष्णसद्धिषणः । जिनशासने धुरीणोऽसौ नन्दनसूरिजिज्जयतात् ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमः ॥ प्रतिष्ठातत्त्वम् आचेलक्यतत्त्वम् पर्युषणातिथिविनिश्चयः पृ. १ पृ. ४९ पृ. ६९ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक सहयोगः विदुषी साध्वीश्रीपद्माश्री-प्रमोदश्रीजीनां शिष्याओ साध्वीश्रीचन्द्रप्रभाश्रीजी-हेमप्रभाश्रीजीनी प्ररणाथी तेओना गुणानुरागी भक्तजनो तरफथी आ प्रकाशनमा उदार सहयोग प्राप्त थयो छे. अनुमादना. - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अहँ नमः ॥ अनन्ततीर्थकरगणधरादिसमलङ्कृत श्रीसिद्धगिरिभगवते नमः ॥ श्री कदम्बगिरितीर्थराजाय नमः । श्री सर्वलब्धिसम्पन्न श्रीगौतमस्वामिने नमः । सर्वतन्त्रस्वतन्त्र शासनसम्राट् सूरिचकचक्रवर्ति तपागच्छाधिपति भट्टारकाचार्यश्रीमद्विजय नेमिसूरि भगवद्भयो नमः ॥ आचार्य श्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं ॥ प्रतिष्ठातत्त्वम् ॥ समग्रैश्वर्यसंपन्नः, पूजितस्त्रिदशैः श्रिये । श्रीमान् सेरीसकाधीशः, पार्यो मेऽस्तु भवाऽपहः ॥१॥ श्रीमान् वीरजिनो जीयाद्, यच्छासनरसायनम् । रसयित्वाऽभवत्रूनं, शिथिला मे भवार्तयः ॥२॥ श्रीगौतमेन्द्रभूतिः स्ताद् भव्यानामिन्द्रभूतये । कवलैः केवलालोक-कर्ता योऽभूत्तपस्विनाम् ॥३॥ यन्नामस्मृतिमात्रेण, सिध्यन्ति सर्वकामनाः । सुधाधारोपमा यद्गी-रमोघा भव्यदेहिषु ॥ ४ ॥ पूज्यास्ते शासनोद्धार-धुरीणा धीरबुद्धयः । पवित्रप्रौढसाम्राज्या-जयन्ति नेमिसूरयः ॥ ५ ॥ (युगलम्) तेभ्यो भगवद्भयो भक्त्या कृताञ्जलिरहं सदा ।। सत्यब्रह्मतपःपूर्णा-स्ते स्युर्मे भूरिभूतये ॥ ६ ॥ तेषां भगवतां पाद-भक्तिलेशानुभावतः । स्वपरस्मृतये किञ्चित्, प्रतिष्ठातत्त्वमुच्यते ॥ ७ ॥ प्रतिष्ठाऽञ्जनशलाका, विधिमन्त्रादिभिः कृता । क्रिया चाभिहिता प्राण-प्रतिष्ठादिकपूर्विका ॥८॥ ततोऽञ्जनशलाकातः प्रतिमा स्यात्प्रतिष्ठिता । ततश्चैव भवेत्पूज्या, तत्पूजा च फलप्रदा ॥९॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी प्रतिष्ठाविधिशास्त्रेभ्यः, पूर्वाचार्यैर्महर्षिभिः । प्रणीतेभ्यश्च सा ज्ञेया, सदाम्नायाच्च सद्गुरोः ॥१०॥ रक्षणीया प्रयत्नेन, प्रतिमा च प्रतिष्ठिता । यतश्चाशातिता सा नो, तथा फलप्रदा भवेत् ॥११॥ यदा ह्याशातना तत्रा-स्पृश्यानां स्पर्शनादिभिः । व्याघातः स्यात्तदा भक्ते-स्ततोऽर्चा फलदाऽपि न ॥१२॥ तथा च जिनचैत्यादौ, मालिन्याधायकत्वतः । अस्पृश्यश्वपचादीनां प्रवेशोऽपि न युज्यते ॥१३॥ आशातनापरीहारे, विधिमन्त्रादिभिः पुनः । विहिते विधिरर्चाया रक्ष्या सा यत्नतस्ततः ॥१४॥ इदमप्यत्र विज्ञेयं, प्रवेशविधिना च यत् । क्रियते स्थापनामात्रं, जिनबिम्बस्य चैत्यके ॥१५॥ तत्रापि च प्रतिष्ठेति-व्यवहारोऽनुभूयते । व्यवहारत एतत्तु, नैव तद्वास्तवं परम् ॥१६।। (युग्मम्) प्रतिष्ठातोऽर्च्यता मूर्ती, यथा स्वपरदर्शने । आक्षेपपरिहाराभ्यां, तथा किञ्चित् प्रदर्श्यते ॥१७॥ नन्वत्र किं समुत्पन्नं, प्रतिमायां प्रतिष्ठया ? । अस्पृश्यस्पर्शतो यस्य, नाशे चाऽपूज्यता भवेत् ॥१८॥ प्रतिष्ठया हि पूज्यत्वं, पूजयेद्धि प्रतिष्ठितम् । इति क्लुसेन विधिनाऽनेकशास्त्रेषु बोधितम् ॥१९॥ शास्त्रोक्तविधिना सम्यग, महोत्सवपुरस्सरम् । प्रतिष्ठा कार्यते मूत्तौं, यजमानेन धीमता ॥२०॥ तत्र मीमांसकैः शक्ति-राधेयाऽख्याऽभ्युपेयते । अस्पृश्यस्पर्शतो नाश्या, प्रतिमादौ प्रतिष्ठया ॥२१॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिष्ठतत्त्वम् सहजा शक्तिरेका स्या-दाधेयाख्या तथाऽपरा । कार्येणैवानुमेया सा, व्यतिरेकमुखेन हि ॥२२॥ यादृशादेव हस्ताग्न्योः, संयोगाज्जायतेतराम् । दाहो नो तादृशादेव, मणिमन्त्रादिसंयुतौ ॥२३॥ तथा च हेतुसत्त्वेऽपि, सतीह प्रतिबन्धके । यदभावाद्भवेद्दाहा-भावः सा शक्तिरीरिता ॥२४॥ न चाऽदृष्टस्य वैगुण्यं, तत्र वाच्यं प्रयोजकम् । दृष्टसागुण्यसत्त्वे हि, तद्वैगुण्यमसम्भवि ॥२५।। तथा मण्यादिना तत्र, तच्छक्तिः प्रतिबध्यते ।। तेन वयादिसत्त्वेऽपि, दाहकार्य भवेन वै ॥ २६॥ प्रतिबन्धकताऽप्येवं, मण्यादेरुपपद्यते । . वह्यादौ दाहहेतूनां, शक्तीनां प्रतिबन्धनात् ॥२७॥ अन्यथा नोपपद्येत, प्रतिबन्धमकुर्वति । प्रतिबन्धकताऽप्यत्र, मण्यादौ सर्वसम्मता ॥२८॥ नन्वत्र हेतुता वाच्या, मण्यभावस्य वह्निवत् । तथा च मणिसत्तायां, दाहो नो हेत्वभावतः ॥२९॥ इति चेनैव, भावत्व-व्याप्या हि हेतुता मता । विधिरूपेण तुच्छत्वा-न्नाऽभावः कारणं ततः ॥३०॥ एवं शक्तौ च सिद्धायां, दाहादाहव्यवस्थितिः । मणिसत्त्वेन दाहः स्याद् वह्निशक्तेर्निरोधनात् ॥३१॥ तदभावे पुनर्दाहः, स्यादथोत्तेजकेऽपि वा । वह्वेश्च शक्तिमात्त्वेन, बोध्यैवं दाहहेतुता ॥३२॥ एवं सर्वत्र विज्ञेया, कलशादिषु लाघवात् । दण्डादीनां तथैवैक-शक्तिमत्त्वेन हेतुता ॥३३॥ . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी द्विप्रकारा च सा शक्ति-नित्यानित्येतिभेदतः । नित्ये नित्या च शक्तिः साऽनित्याऽनित्ये व्यवस्थिता ॥ तत्राऽनित्या भवेद्भाव-हेतुजाऽत्र यदाह च । नित्ये नित्यैव सा शक्ति-रनित्ये भावहेतुजा ॥३५॥ एषा चैवोच्यते शक्ति-विद्वद्भिः सहजाभिधा । अण्वादौ च तथाऽग्न्यादौ, सहजा शक्तिरीरिता ॥३६॥ एवमागन्तुकैरन्या, सहकारिभिरद्भुता । योत्पद्यतेऽत्र सा शक्ति-राधेयाख्योदिता बुधैः ॥३७॥ या व्रीहीन् प्रोक्षतीत्यस्मा-दपूर्वविधिवाक्यतः । क्रिया प्रोक्षणरूपा च, विहिता व्रीहिकमिका ॥३८॥ तज्जन्योऽतिशयः कश्चित्, कालान्तरीयकार्यकृत् । भावभूतोऽभ्युपेयः स, व्रीहिनिष्ठश्च निश्चितम् ॥३९॥ अन्यथा तु कथं व्रीही-नवहन्तीति वाक्यतः । नियमात्प्रोक्षितेष्वेवा-वघातः क्रियते ननु ॥४०॥ कालान्तरेऽवघातादौ, बोधिते नियमाद्विधेः । व्रीहेर्हि प्रोक्षितस्यैव, विनियोगः कृतो बुधैः ॥४१॥ इत्थं च प्रोक्षणोद्भूता, व्रीहावतिशयात्मिका । आधेयाख्या मता शक्ति-र्मीमांसामांसलैर्बुधैः ॥४२॥ परैस्त्वात्मगतोऽपूर्वा-त्मकश्चातिशयो मतः । प्रोक्षणादिकसम्भूत-स्तन्न युक्तिसहं खलु ॥४३॥ यद् व्रीहीन् प्रोक्षतीत्यत्र, द्वितीयाश्रुतिरस्ति या । तया प्रोक्षणकर्मत्वं, व्रीहेरेवावगम्यते ॥४४॥ तत्तु प्रोक्षणजन्येष्ट-फलशालित्वमामतम् । स्वीकृतेऽतिशये व्रीहौ, घटते तच्च नाऽन्यथा ॥४५|| Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठतत्त्वम् तुलादिविधिना शक्ति- राधेयाख्यैवमद्भुता । तुलादावपि विज्ञेया, विजयादिप्रयोजिका ॥ ४६ ॥ प्रतिमादावपीत्थञ्च सम्यग्भावपुरस्सरम् । प्रतिष्ठाविधिनाऽऽधेय-शक्तिरुत्पद्यते ध्रुवम् ॥४७॥ अद्भुताऽतिशयात्मा सा, पूज्यत्वस्य नियामिका । अस्पृश्यश्वपचादीनां, स्पर्शे मूर्ती विनश्यति ॥४८॥ मीमांसकमते चैवं, सम्यग्रीत्या विभाविता । प्रतिमादौ प्रतिष्ठादेः पूज्यत्वादिविचारणा ॥४९॥ .. नैयायिकमते देव - सन्निधिरभ्युपेयते । प्रतिष्ठाविधिना देव-प्रतिमायां फलप्रदः ॥५०॥ अहङ्कारो ममत्वं च, सन्निधिरत्र कथ्यते । अहङ्कारश्च मूर्त्यादा-वहं हीयमितीरितः ॥५१॥ ममायं देह इत्येवं, ममत्वं च प्रकीर्तितम् । यथा नृपस्य चित्रे धी-निजसादृश्यदर्शिनः ॥५२॥ द्विप्रकारोऽप्ययं बोध - आहार्यभ्रम उच्यते । विशेषदर्शनेऽप्यस्या-सम्भवो यन्न शङ्क्यते ॥ ५३॥ अनेन सन्निधानेन, गच्छन्त्याराधनीयताम् । रुद्रोपेन्द्रमहेन्द्राद्या मानिनः सकलाः सुराः ॥५४॥ अस्पृश्यानां च चाण्डाल - मुखानां स्पर्शने सति । समवाप्नोत्यपूज्यत्वं, मूर्तिः सन्निधिनाशतः ॥ ५५ ॥ देवताचेतनापक्ष-मालम्ब्येयं व्यवस्थिति: । सम्प्रणीताखिलापीय-मन्यां चेमां निबोधत ॥५६॥ देवतानामचैतन्य - वादिनां मतमाश्रिता । प्रक्रियाऽऽख्यायते मूर्ती, पूज्यापूज्यत्वबोधिका ॥५७॥ S Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी तन्मतेऽपि प्रतिष्ठातो, विधितः प्रतिमादिषु । जायते प्रत्यभिज्ञानं, पूज्यत्वस्य नियामकम् ॥५८॥ पूर्वपूर्वार्चितेयं च, प्रतिमासु प्रतिष्ठिता । इत्यस्याः प्रत्यभिज्ञाया, विषयस्य हि पूज्यता ॥५९॥ आवश्यकं च तज्ज्ञानं, पूजयेन्नु प्रतिष्ठितम् । इत्यस्माद् बलवद्वाक्यात् प्रत्यभिज्ञात्मकं खलु ॥६०॥ अत एव च तज्ज्ञानाभावेऽर्चायां प्रवर्त्तनम् । पूजकानां भवेनैव, तदा पूजा हि निष्फला ॥६१॥ नन्वेवं पूज्यतैव स्यात्, प्रतिमादिषु सर्वदा । अस्पृश्यस्पर्शसत्त्वेऽपि, प्रत्यभिज्ञासमुद्भवात् ॥६२।। अस्पृश्यस्पर्शतज्ज्ञाने, यन्न तत्प्रतिबन्धके । तदभावावगाहित्वा-दिकं तत्रास्ति नो यतः ॥६३।। तदसत्, प्रत्यभिज्ञाने, याऽर्च्यतां प्रति हेतुता । अस्पृश्यस्पर्शनाभाव-विशिष्टे ह्येव सा मता ॥६४॥ तथा चाऽस्पृश्यजातीनां, मलिनानां भवेद्यदि । स्पर्शनं प्रतिमाद्यासु, स्यात्तदाऽनर्चनीयता ॥६५॥ प्रत्यभिज्ञानसत्त्वेऽपि, तस्य पूज्यत्वहेतुता । तादृशस्य विशिष्टस्य, ह्यभावान्न कदाचन ॥ ६६॥ सन्निधिप्रत्यभिज्ञान-द्वाराऽभ्यर्च्यत्वहेतुता । सम्यगुक्ता प्रतिष्ठाया एवं प्राचां मते मता ॥ ६७॥ तथा चोदयनो विद्वान् , यदाह कुसुमाञ्जलौ । देवताः सन्निधानेन, प्रत्यभिज्ञानतोऽपि वा ॥६८॥ अथोच्यते मतं नव्य-न्यायमार्गानुसारिणाम् । यजमानगतं तत्रा-पूर्वं प्रोक्तं प्रतिष्ठया ॥६९॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् यत्तद्वदात्मसंयोगा-श्रयस्य स्यात्प्रपूज्यता ।। प्रतिमादेविशेषोऽपि, बोध्यः संयोगमाश्रितः ॥७०॥ ततः स्यान्नैव संयोगा-श्रयेऽप्यन्यत्र वस्तुनि । प्रतिमादिविभिन्ने हि, पूज्यभावः कदाचन ॥७१॥ अस्पृश्यानां च चाण्डाल-मुखानां स्पर्शतो ध्रुवम् । स्यादनभ्यर्च्यता तस्माद्, यतोऽदृष्टं विनश्यति ॥७२॥ मणिकारस्तु गङ्गेशो, नव्यनैयायिकाग्रणीः । ब्रूते ध्वंसं प्रतिष्ठायाः प्रतिमाऽर्च्यत्वकारणम् ॥७३॥ यतश्च विधिवाक्येन, पूजयेद्धि प्रतिष्ठितम् । इत्यनेन प्रतिष्ठाया हेतुत्वं नैव बोध्यते ॥७४॥ किन्त्वतीतप्रतिष्ठेऽत्र, पूज्यभावः प्रकाश्यते । यत्प्रतिष्ठितमित्येवं भूतार्थे क्तानुशासनम् ॥७५॥ तथा चात्र प्रतिष्ठाया ध्वंस एव प्रयोजकः । सम्यगुक्तः समईयां, प्रतिमायामवस्थितः ॥७६॥ शास्त्रोक्तविधिरूपाऽत्र, प्रतिष्ठा स्यात् क्रियात्मिका । नैयायिकमते सा च, चतुःक्षणविवर्तिनी ॥७७॥ नोदनश्चाभिघातश्च वेगश्चैव गुरुत्वकम् । द्रवत्वं चेति तच्छास्त्रे, कथिताः कर्महेतवः ॥७८॥ तेषामन्यतमे हेतौ, सत्यदृष्टेन संयुते । अन्यकारणसत्त्वे च, भवेदाधक्षणे क्रिया ॥७९॥ विभागः स्याद् द्वितीये च, क्षणेऽथो च तृतीयके । पूर्वसंयोगनाशः स्यात्, क्षणे तुरीयके तथा ॥८०॥ भवेच्चोत्तरदेशेन संयोगः कर्मनाशकः । ततश्च कर्मनाशः स्यात्-नियमात् पञ्चमे क्षणे ॥८१॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी चतुःक्षणावस्थायित्व-मेवं सर्वत्र कर्मणः । . न्यायशास्त्रेषु सङ्गीतं, ततस्तद्ध्वंस एव च ॥८२॥ एवमत्रापि संबोध्यं, प्रतिष्ठात्मककर्मणः चतुःक्षणावस्थायित्व-मेव न त्वधिका स्थितिः ॥ प्रतिष्ठानन्तरं तत्तद्-ध्वंस एवावशिष्यते । साधनन्तः स बिम्बेषु, पूज्यतायाः प्रयोजकः ॥८४|| विभागजविभागाङ्गी-कारपक्षावलम्बिनाम् । यद्यप्यस्ति क्रियासत्ता, पञ्चमादिक्षणेष्वपि ॥८५॥ तथापि कर्ममात्रैक-जन्यत्वाश्रयणं खलु । विभागस्य कृतं चात्र, प्रागुक्तं सम्यगेव तत् ॥८६॥ प्रतिष्ठाध्वंससत्त्वेऽप्य-स्पृश्यस्पर्शादिसम्भवे । कथं भवेदपूज्यत्वं, नन्वेवं प्रतिमादिषु ॥८७॥ इति चेत् केवलस्यैव, ध्वंसस्याय॑त्वहेतुता । नैव किन्तु विशिष्टस्य, तस्य सा सम्मता यतः ॥८८॥ यावदस्पृश्यसंस्पर्शा-भावेन सहितः खलु । हेतुव॑सः प्रतिष्ठाया-स्तत्कालीनोऽत्र सम्मतः ॥८९॥ अभावः प्रागभावोऽत्रा-त्यन्ताभावोऽथवा क्वचित् । विज्ञेयोऽनादिसंसर्गा-भावरूपो न चाऽपरः ॥१०॥ इत्थञ्चैव विशिष्टस्या-भावान् मूर्तिषु नाच॑ता । प्रतिष्ठाध्वंससत्त्वेऽप्य-स्पृश्यसंस्पर्शने सति ॥९१॥ एवञ्च शक्तिपक्षोऽपि, निहतोऽत्र हि सर्वथा । युज्यते शक्त्यभावेऽपि, मूर्तावर्च्यत्वभावना ॥१२॥ तथा दाहस्थले चापि, शक्ति वोपपद्यते । यतो मण्याद्यभावस्य, वह्निवद्धेतुता मता ॥९३॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् ततो मण्यादिसद्भावे, न दाहापादनं वरम् । वह्निकारणसत्त्वेऽपि, मण्यभावाद्यभावतः ॥९४॥ अभावस्यापि हेतुत्वं, यदुक्तं कुसुमाञ्जलौ । 'भावो यथा तथाऽभावः, कारणं कार्यवन्मतः' ॥१५॥ मतेऽस्मिन् कारणीभूताऽभावस्य प्रतियोगिता । प्रतिबन्धकता प्रोक्ता, मणेः साऽप्युपपद्यते ॥९६।। मणिमन्त्रादयो यद्वा, नैवात्र प्रतिबन्धकाः । किन्तु तेषां प्रयोक्तार-एवात्र प्रतिबन्धकाः ॥९७॥ सामग्रीविरहो ह्येव, प्रतिबन्धो यदाह च । 'प्रतिबन्धो विसामग्री तद्धेतुः प्रतिबन्धकः' ॥९८॥ उत्तेजकस्य सद्भावे, सत्यपि प्रतिबन्धके । अस्ति यद्दाहसम्भूति-स्तदप्यत्रोपपद्यते ॥१९॥ मणेरुतेजकाभाव-विशिष्टस्यैव सम्मता । प्रतिबन्धकता चात-स्तदभावस्य हेतुता ॥१००। तथा चोत्तेजको यत्र, मणिकालेऽस्ति तत्र च । विशेषणस्याभावेन, विशिष्टाभावसम्भवः ॥१०१॥ यत्र चोत्तेजको नास्ति, मणिश्चापि न तत्र च । विशिष्टाभावसद्भावो, विशेष्याभावतो मतः ॥१०२।। यत्रोत्तेजकसद्भावो-मणेनैव च सम्भवः । तत्राऽभावद्वयाधीनो विशिष्टाभाव इष्यते ॥१०३॥ यत्र तूत्तेजकाभावो-विद्यते, विद्यते मणिः । तत्र सत्त्वाद्विशिष्टस्य नैव दाहस्य सम्भवः ॥१०४॥ शक्तेरनादरेऽप्येवं, सर्वत्रोक्तस्थलेष्वपि । दाहस्योत्पत्त्यनुत्पत्ती, घटेते एव युक्तितः ॥१०५॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० इत्थञ्चाऽनन्तशक्तीनां ध्वंसादीनामकल्पनात् । ज्ञेयमत्र लघीयस्त्वं, शक्तिपक्षे च गौरवम् ॥१०६॥ शक्तिव्रहावपीत्थं नो जायते प्रोक्षणादिना । किन्त्वात्मन्येव सम्बद्ध-मपूर्वं जायते ततः ॥ १०७॥ यत्प्रसूनाञ्जलौ विद्वानुदयनः प्रणीतवान् । संस्कार: पुंस एवेष्टः, प्रोक्षणाभ्युक्षणादिभिः ॥ १०८ ॥ कारीरीयागतो जन्य-मपूर्वं चात्मवर्त्यपि । यथा परम्परायोगात्, सम्बद्धं स्यात्पयोमुचा ॥१०९॥ तथात्र व्रीहिनिष्ठस्या - पूर्वं प्रोक्षणसम्भवम् । कालान्तरीयकार्यस्य, पारम्पर्येण कारकम् ॥११०॥ एवं खल्ववघातादा-वङ्गापूर्वप्रयोजकः । व्रीहेः संप्रोक्षितस्यैव, विनियोगोऽपि सङ्गतः ॥ १११ ॥ शास्त्रोक्तकर्मकर्त्रादे-र्वैगुण्यात्साधनस्य तु । उभयत्र फलाभाव - स्तुल्य आगमिकत्वतः ॥ ११२ ॥ नन्वेतस्मिन् मते व्रीहीन्, प्रोक्षतीतिविधानतः । कथं घटेत कर्मत्वं, द्वितीयाश्रुतिबोधितम् ॥११३॥ यतो नु व्रीहिवृत्तित्वं, संभवेन्न कदाचन । प्रोक्षणादिकजन्यस्या-पूर्वस्यात्मविवर्तिनः ॥ ११४॥ न च स्वाश्रयसंयोगात्, सम्बन्धात्तद् घटिष्यते । सम्बन्धस्य हि साक्षात्त्वे, पारम्पर्यं न युक्तिमत् ॥११५॥ अत्रोच्यते, यतः कैश्चिद् धात्वर्थस्य विचारणे । फलेनैव विशिष्टे हि व्यापारे शक्तिरिष्यते ॥ ११६ ॥ व्यापारोऽर्थो यथा विक्लि - त्त्यनुकूलः पचेर्मतः । पदार्थस्यैकदेशे च द्वितीयार्थान्वयादरः ॥११७॥ ग्रन्थत्रयी Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्छतत्त्वम् विक्लित्त्या द्विविधं भानं प्रयोगे चात्र कर्मणि । अनिष्टापत्तितश्चेदं, गौरवान्न परैर्मतम् ॥ ११८॥ विशिष्टशक्तितस्तैस्तु, लाघवस्य विभावनात् । व्यापारे च फले चैव, खण्डशः शक्तिरिष्यते ॥११९॥ पदार्थो हि पदार्थेने-त्येवं व्युत्पत्तिरत्र च । अव्याहतापि विक्लित्त्या, द्विधा भानं न कर्मणि ॥ १२० । इत्थञ्चैवात्र विक्लित्त्या, व्यापारस्य परस्परम् । अनुकूलत्वसम्बन्ध - श्वाकांक्षाभास्य एव हि ॥१२१ ॥ केचित्त्वत्रापि पक्षे नो, सम्मता किन्तु तैर्मता । धातोः शक्तिर्लघीयस्त्वा-व्यापारे शुद्ध एव नु ॥१२२॥ ननु कस्य पदस्यात्र, फलार्थत्वमुरीकृतम् । द्वितीयार्थो हि वृत्तित्वं, फलवाचि न विद्यते ॥१२३॥ न चैतत्सुन्दरं यस्माद्, द्वितीयार्थः फलं मतम् । आधेयत्वं च संसर्गः, प्रकृत्यर्थफलार्थयोः ॥१२४॥ चैत्रेण पच्यते सूपः, प्रयोगे कर्मणीह तु । चैत्रोत्तरतृतीयायाः, कृतिरर्थः प्रकीर्तितः ॥१२५।। चैत्रस्य त्वन्वयस्तत्र, वृत्तिसंसर्गतः खलु । व्यापारे चाऽन्वयः कृत्या, व्यापारस्यान्वयः फले ॥१२६ ॥ आख्यातार्थश्च सङ्गीतो, बुधैरत्र फलात्मकः । प्रयोगे कर्मणीत्येवं, घटना दोषवर्जिता ॥१२७।। एवं मतत्रयेऽप्यत्र, व्रीहिषु प्रोक्षणस्थले । कर्मत्वानुपपत्तिों, शङ्कनीया कदाचन ॥१२८॥ तथाहि प्रोक्षतीत्यत्र, धात्वर्थः प्रथमे मते । संयोगेन विशिष्टा हि, विशेषव्यापृतिर्मता ॥१२९ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी तत्रावच्छेदकं यच्च, धात्वर्थत्वे फलात्मकम् । तच्छालित्वं च कर्मत्वं, निराबाधं विराजते ॥१३० ॥ यतोऽवच्छेदकस्तत्र, संयोगस्तस्य सत्त्वतः । साक्षादेव च सम्बन्धाद्, व्रीहौ कर्मत्वसङ्गतिः ॥१३१॥ खण्डशः शक्तिमन्तृणां, मते तत्र द्वितीयके । संयोगे व्यापृतौ चैव, मता शक्तिः पृथक् पृथक् ॥१३२ ॥ तृतीये तु मते शक्तिः, संयोगं प्रविमुच्य नु । व्यापारे संमता नूनं, विशेषे शुद्ध एव हि ॥१३३॥ युज्यते सुष्ठ कर्मत्व-मत्रापि मतयोर्द्वयोः । व्रीहौ यत्तत्क्रियाजन्य-फलशालित्वमीरितम् ॥१३४॥ प्रोक्षणादिक्रियाजन्य-संयोगात्मफलं यतः । साक्षादेव च सम्बन्धाद्, व्रीहिषु वर्तते ध्रुवम् ॥१३५।। इत्थञ्च प्रोक्षणोद्भूत-शक्तेरस्वीकृतावपि । व्रीहौ च वृत्त्यभावेऽपि संस्कारस्यात्मवर्तिनः ॥१३६।। संयोगात्मफलस्यैव, व्रीहिषु सत्त्वतः किल । कथं घटेत कर्मत्व-मित्याशङ्का शमं गता ॥१३७॥ तुलादावपि तुल्यस्य, जयभङ्गौ न शक्तितः । तुलारोहणसामग्री, तत्राधिवासपूर्विका ॥१३८॥ सत्यासत्यप्रतिज्ञत्व-सहिता किन्तु कारणम् । सा धर्माऽधर्मयोस्तुल्ये जयभङ्गफलार्पिणी ॥१३९।। निष्पापः पापवान् वाह-मित्याकारेण संगता । सा वा ज्ञानविशेषेण, जयभङ्गप्रयोजिका ॥१४०॥ प्रतिज्ञाशुद्धयशुद्धी वा सामग्याऽपेक्ष्य वा तया । धर्माधर्मों च जन्येते, ताभ्यां जयपराजयौ ॥१४॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् यद्वा, तुलादिसामग्या, जायते देवसन्निधिः । लिङ्ग कर्मानुरूपं च, व्यञ्जयन्त्येव देवताः ॥१४२॥ पाप्ययं वाऽथ निष्पाप-स्तुलारूढ इतीह धीः । तज्जन्यो वाऽथ संस्कारः, सन्निधिः कथितो बुधैः ॥१४३॥ लिङ्गं चैवमपि ज्ञेयं, नमनोन्नमनादिकम् । शक्त्यभावेऽपि सर्वत्र, सर्वं चैवं व्यवस्थितम् ॥१४४॥ विस्तरेण कृतं चात्र, प्रकृतं तन्यतेऽधुना । अथ जैनमते मूत्तौ, प्रतिष्ठा पूज्यतोच्यते ॥१४५॥ न्यायोपार्जितवित्तेन, कारितस्याहंतः प्रभोः । शुद्धभावेन बिम्बस्य, प्रतिष्ठा स्यान्महोदया ॥१४६|| संक्षेपतस्त्रिधा ज्ञेया, प्रतिष्ठा शास्त्रसम्मता । व्यक्त्याख्या क्षेत्रनामा च, महारख्या च प्रकीर्तिता ॥ १४७॥ विहरत्तीर्थनाथस्य, तत्काले या विधीयते । प्रतिष्ठा, सा भवेव्यक्ति-प्रतिष्ठा प्रथमाऽनघा ॥१४८॥ सर्वेषां ऋषभाद्यानां, भवेत्तीर्थकृतां च या । सा क्षेत्राख्या प्रतिष्ठा स्याद्भरतादौ भवाऽपहा ॥१४९।। तीर्थङ्कराणां सप्तत्य-धिकस्यात्र शतस्य या । ज्ञेया महाप्रतिष्ठा सा, सदातनशिवावहा ॥१५०॥ प्रतिष्ठा नाम किन्न्वत्र मुख्यस्य मुक्तिवासिनः । स्याद्देवताविशेषस्य, सन्निधानमभीप्सितम् ॥१५१॥ संसारवर्तिनः किं स्या-त्तदनुजीविनोऽथवा । सन्निधानं नु देवस्य, प्रथमस्तत्र नोचितः ॥१५२।। शिवं गतस्य देवस्य, क्षीणरागादिभावतः । प्रबलैरपि मन्त्राद्यै-र्भवेदानयनं न यत् ॥१५३॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ देवजातिप्रविष्टस्य, संसारस्थस्य नाकिनः । नियमात्सन्निधानस्या दर्शनान्मन्त्रतोऽपि च ॥ १५४ ॥ अकिञ्चित्करभावाच्च, कादाचित्कस्य सन्निधेः । द्वितीयोऽपि न पक्षः स नत्र सम्यगथोच्यते ॥ १५५ ॥ तथा ह्यात्मीयभावस्य, विशिष्टस्यैव सूरिभिः । प्रतिष्ठात्वं समाम्नातं, ग्रन्थे षोडशकाभिधे ॥१५६॥ या मुख्यदेवतोद्देशात् स्वात्मनि स्थापनाऽनघा । निजभावस्य सा ज्ञेया, प्रतिष्ठा पारमार्थिकी ॥ १५७॥ समापत्त्यात्मिका चेयं, निजात्मनि परात्मनः । समापत्तिः स एवाहं, परमात्मेति सोदिता ॥ १५८॥ ध्याताऽन्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्तितः । ध्यानं चैकाग्ग्रसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥ १५९ ॥ मणाविव प्रतिच्छाया, समापत्तिः परात्मनः । क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्याना - दन्तरात्मनि निर्मले ॥ १६०॥ यस्यैकस्य गुणस्यात्र, सिद्धेरुद्देशतः कृतम् । अनुष्ठानं ततः प्राय-स्तदेकगुणगोचरा ॥१६१ ॥ परमात्मसमापत्तिर्व्युत्पन्नस्येह जायते । ध्यात्रादिकल्पनापेता, ध्येयमात्रावलम्बिनी ॥ १६२॥ प्रतिष्ठायां तु विज्ञेया, समापत्तिर्विलक्षणा । यतोऽत्र स्थापनोद्देशा-दनुष्ठानप्रवर्तनम् ॥१६३॥ तस्याः सर्वगुणारोप - विषयत्वाच्च भावतः । गुणैर्भागवतैः सर्वैः समापत्तिस्ततो भवेत् ॥ १६४॥ यत्स एवाहमित्येवं, परात्मस्थापनात्मिका । निजात्मनि प्रतिष्ठोक्ता, प्रतिष्ठातत्त्ववेदिभिः ॥१६५॥ ग्रन्थत्रयी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् क्रियाणामपि सर्वासां, तत्फलानां च यद्यपि । सर्वत्रोद्देश्यसम्बन्ध-भावो हि व्यवहारतः ॥१६६॥ तथापि निश्चयात्त्वत्र, भाष्यादौ सुव्यवस्थिता । सर्वक्रियाफलानां च, स्वात्मसम्बन्धितैव नु ॥१६७॥ आत्मनिष्ठफलोद्देशात् क्रियमाणस्य कर्मणः । हेतुत्वकल्पनौचित्यं, तत्रैवातिशयं प्रति ॥१६८॥ प्रतिष्ठाविधिना चैवं, जनितो जीववर्त्ययम् । अतिशयो ह्यदृष्टाख्यः, पूजाफलप्रयोजकः ॥१६९॥ प्रतिष्ठाध्वंसतश्चात्रा-न्यथासिद्धत्वशङ्कनम् । नैव युक्तमदृष्टस्य, मूर्तिपूजाफलादिषु ॥१७०॥ तत्तद्ध्वंसाददृष्टस्य, दानयागादिकर्मसु । अन्यथासिद्धभावस्य, तुल्यापत्तिप्रसङ्गतः ॥१७१॥ प्रतिष्ठाजन्यशक्तेर्वा, तस्या ध्वंसस्य वा कृतौ । पूजनाफलहेतुत्वेऽ-निष्टापत्तिर्भवेदपि ॥१७२॥ यतोऽप्रतिष्ठितत्वस्य, प्रतिमायां भ्रमेऽपि नु । विशिष्टार्चाफलापत्तिः शक्तिध्वंसादिसत्त्वतः ॥१७३॥ किञ्च ध्वंसस्य यद्यत्र, पूजनाफलहेतुता । पूजाफले प्रतिष्ठायाः, प्रतिबन्धकता तदा ॥१७४॥ यतः सा कारणीभूता-भावस्य प्रतियोगिता । अतथाव्यवहाराच्च, नातेष्टापत्तिरप्यथ ॥१७५।। क्तप्रत्ययस्थलेऽप्येवं, प्रोक्षिता इति वाक्यतः । ध्वंसव्यापारकत्वस्या-ऽकल्पनापि वरीयसी ॥१७६।। फले कालान्तरीये च, चिरनष्टस्य कर्मणः । भावव्यापारकत्वैक-नियमोऽपि हि विश्रुतः ॥१७७॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी भवेदेवाऽन्यथाऽपूर्वो-च्छेदापत्तिरसुन्दरा । एवमन्योऽपि दोषोऽत्र, भाव्यतां कृतबुद्धिभिः ॥१७८॥ यतो यस्मिन्नभूद्विम्बे प्रतिष्ठा विधिनाऽनघा । तत्र किञ्चिद्विभागानां, नाशाद्विम्बान्तरोद्भवः ॥१७९॥ तत्र प्रतिष्ठाध्वंसस्य, सर्वथा सम्भवोऽपि न । तथा बिम्बान्तरे तत्र, सर्वदा स्यादपूज्यता ॥१८०॥ इत्थं मूर्ती प्रतिष्ठातः शक्तेरप्यप्रकल्पनम् । आत्मनिष्ठफलोद्देशात्, प्रतिष्ठायाः कृतत्वतः ॥१८१॥ एवं मूर्तिषु देवानां, सान्निध्यमपि दुर्घटम् । अहङ्कारममत्वस्य, वीतरागेष्वसम्भवात् ॥१८२॥ सरागेषु च देवेषु, मिथ्यात्वाद्देवताधियः । व्यासङ्गे च तथा तेषां, सानिध्यानुपपत्तितः ॥१८३॥ प्रतिष्ठा नाम चेयं या, निजभावात्मिकोदिता । बीजन्यासो बुधैः प्रोक्तः, परमः सोऽयमद्भुतः ॥१८४॥ यतो बीजस्य पुण्यानु-बन्धिपुण्यस्य वाऽथवा । सम्यक्त्वस्यानया न्यास-आत्मनि क्रियतेतराम् ॥१८५॥ एवमस्य भवेद्वीज-न्यासस्याभ्युदयः फलम् । मुक्तौ चित्तनिवेशाच्चा-ऽवञ्चकावाप्तिरप्यतः ॥१८६॥ तत्रावञ्चकयोगाश्च, योग-क्रिया-फलाभिधाः । सम्प्रणीतास्त्रयो योग-दृष्टिग्रन्थे तथा हि च ॥१८७।। 'सद्भिः कल्याणसम्पन्न-दर्शनादपि पावनैः । तथादर्शनतो योग-आद्यावञ्चक उच्यते ॥१८८॥ तेषामेव प्रणामादि-क्रियानियम इत्यलम् । क्रियाऽवञ्चकयोगः स्या-न्महापाक्षगोदयः ॥ १८९॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् फलावञ्चकयोगस्तु, सद्भ्य एव नियोगतः । सानुबन्धफलावाप्ति-धर्मसिद्धौ सतां मता' ॥१९०॥ लवमात्रमयं बीज-न्यासरूपः क्रमात् क्रमात् । प्रतिष्ठागतभावश्च, बृंहणीयः सुयत्नतः ॥१९१॥ नियमाद्देशकालाद्या-नुरूपा योचिताचिता । भाववृद्धिस्तथा शान्ति-रार्जवं मार्दवं तथा ॥१९२॥ सन्तोषश्चैव मैत्र्यादि-भावनं चैभिरादरात् । सेवितैः साधनैः सोऽयं, पुष्टो भवति निश्चितम् ॥१९३।। बीजन्यासात्मकः सोऽयं, भावो ब्रह्मरसात्मकः । सिद्धार्थो निरपायश्च, मन्त्रराडात्मसंस्थितः ॥१९४॥ तत्वज्ञमुष्टिरानन्दो, ह्यसङ्गोऽचिन्त्य एव च । उच्यते स्तूयते चैव, गीयते पूर्वसूरिभिः ॥१९५॥ क्रमाच्चैव प्रतिष्ठातः, प्रतिष्ठा परमा भवेत् । जीवरूपस्य लोहस्य, स्वर्णता सिद्धतात्मिका ॥१९॥ नियोगवाक्यतः स्थाप्ये, परात्मनि भिदा लयात् । भवेत्कर्ममलं सर्वं, समापत्तेहि भस्मसात् ॥१९७॥ ननु प्रतिष्ठितत्वेऽपि, जीवस्यैवं प्रतिष्ठया । मूर्ती प्रतिष्ठितत्वं नो, तत्कथं पूज्यता भवेत् ॥१९८|| अदृष्टस्य क्षये चैवं, प्रतिष्ठाकर्तृवर्तिनः । प्रतिमा नैव पूज्या स्या-दिति चेत्, प्रोच्यतेऽत्र नु ॥१९९॥ तात्त्विकीयं प्रतिष्ठा तु, निरुक्ताऽऽगमनीतितः । बाह्ये तु जिनबिम्बादौ, सोपचारात्मिका मता ॥२०॥ प्रतिष्ठातत्त्वविज्ञाना-हितभक्तिविशेषतः ।। प्रतिष्ठा सा च लोकानां, पूजाफलनियामिका ॥२०१॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी तथा ह्यात्मसमापन्ना, प्रतिष्ठाजनिताऽनघा । समापत्तिर्भवेन्नूनं, पारम्पर्येण मूर्तिगा ॥२०२॥ निजनिरूपकस्थाप्या-लम्बनत्वेन सा यतः । मूर्ती प्रतिष्ठितत्वस्य, व्यवहारस्य कारणम् ॥२०॥ मूर्तिगां तां समापत्ति, प्रत्यभिज्ञाय पूजना । विहिता हि मता शीघ्रं, विशिष्टफलदायिनी ॥२०४।। मूर्ती यतश्च लोकानां, प्रतिष्ठितत्वगोचरम् । यथार्थं प्रत्यभिज्ञानं, पूजाफलप्रयोजकम् ॥२०५।। ततश्चैव प्रतिष्ठायां, गुणिनामधिकारिता । विशिष्टस्याशयस्यात्र, स्फूर्तये स्वीकृता नये ॥२०६।। इयं प्रतिष्ठिता मूर्ति-विशिष्टगुणशालिना । इत्येवं प्रत्यभिज्ञाने, भाववृद्धिर्हि दृश्यते ॥२०७॥ प्रतिष्ठाविधिसामग्र्य-सम्पत्तावप्युपस्थितात् । मनसः प्रत्यभिज्ञानात्, प्रतिष्ठाफलमीप्सितम् ॥२०८॥ वैकल्प्ये बाह्यसामग्र्यास्तत्र हि फलदायिता । मनसाऽपि कृताया वै, स्थापनाया बुधोदिता ॥२०९॥ अत एव प्रतिष्ठाया-माकाङ्क्षायां विभाव्यताम् । इतिकर्तव्यतायाः श्री-हारिभद्रमिदं वचः ॥२१०॥ न्यासकाले तु मन्त्रस्य, सिद्धानुस्मृतिपूर्वकम् । मुक्तौ तत्स्थापनस्येव, कर्तव्यं स्थापनं हृदा ॥२११॥ यतो भक्तिविशेषस्या-धायकत्वेन सत्फला । प्रतिष्ठाऽन्ये ततो भेदा, हारिभद्रवचस्यपि ॥११२॥ ग्रन्थे भगवता तेन, यत्पूजाविंशिकाभिधे । स्वप्रतिष्ठापितत्वाद्या-विशेषा अपि कीर्तिताः ॥२१३॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठतत्त्वम् ते हि मूर्तिगता भेदा-आद्रियन्ते फलावहाः । आत्मविशेषके भक्ति-विशेषाधायकत्वतः ॥२१४॥ तथाहि सुधियः केचित्, स्वयंकारितया ध्रुवम् । स्थापनयाऽत्र मन्यन्ते, पूजां बहुफलप्रदाम् ॥२१५॥ अन्ये च ब्रुवते पूज्याः, पूजां कारितया तया । गुरुभिर्मातृपित्राद्यैः, पूजकानां फलावहा ॥२१६॥ विधिनैव विशिष्टेन, तया कारितया परे । विशिष्टफलदायित्वं, पूजनायाः प्रचक्षते ॥२१७॥ विशिष्टविधिसामग्री, विनापि भक्तिशालिभिः । लेपनादौ कृते भूमौ, गोमयादिकवस्तुभिः ॥२१८।। मनःस्थापनया शुद्ध-स्थानमात्रेऽपि सत्फला । मता पञ्चनमस्कार-स्थापनामात्रतोऽर्चना ॥२१९॥ सर्वं हि कर्म सर्वस्यो-पयोगसदृशं मतम् । प्रशस्तं जातितः किञ्चि-नियतं नैव कस्यचित् ॥२२०॥ ततस्तस्य तदिष्टं यत, कर्म यस्योपकारकम् । इति सर्वेऽपि ते पक्षा-विशेषेण फलावहाः ॥२२१॥ अत एव नयाभिज्ञैर्यशोविजयवाचकैः । प्रतिमाशतकस्यैवं, वृत्तौ न्यायविशारदैः ॥२२२॥ तिसृणामेव मूर्तीनां, समाख्याता ह्यवन्द्यता । शुद्धाशयापरिस्फूर्ते-स्तत्राऽनादरणीयता ॥२२३॥ तत्र दिगम्बरैर्या च, कटुकैश्च प्रतिष्ठिता । या च द्रव्येण निष्पन्ना, द्रव्यलिङ्गभृतामिह ॥२२४॥ तद्भिन्नाः प्रतिमाः सर्वा- वन्दनीयाश्च सम्मताः । वासक्षेपाच्च साधूनां, वन्द्यास्तिस्रोऽपि ताः खलु ॥२२५॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्रीहीरनामधेयानां सूरिषु चक्रवर्तिनाम् । आज्ञैषा यत्ततः शुद्धा - शयस्फूर्तेः समुद्भवात् ॥२२६॥ इत्थञ्चानुपयोगित्वं, प्रवदन्तीह सर्वथा । ये प्रतिष्ठापितत्वस्य, गुर्वाद्यैश्चैव मूर्तिषु ॥ २२७॥ विधिना च प्रतिष्ठापि-तत्त्व एव च निर्भरम् । कुर्वन्ति ये बुधास्ते स्वा-शयं जानन्ति नापरे ॥२२८॥ एवञ्च बाह्यबिम्बाद, मुख्यदेवैकगोचरः । निज एव हि भावोऽपि स्यात्प्रतिष्ठोपचारतः ॥२२९॥ निजभाव: स एवाय- मित्यभेदोपचारतः । प्रतिमायां यतोऽर्च्यत्व - मापादयति निश्चितम् ॥ २३०॥ स्यात्तदध्यवसायस्य, नाशे नन्वेवमाकृतौ । अप्रतिष्ठिततापत्तिरिति चेदत्र कथ्यते ॥२३१॥ तद्विनाशेऽपि बिम्बादौ, तदाहितस्य सत्त्वतः । सदोपचरितारव्यस्य, स्वभावस्य न दूषणम् ॥२३२॥ द्विधोपचरिताख्यः स, स्वभावो गीयते बुधैः । एकः स्वाभाविकश्चान्य- औपाधिक इति स्मृतः ॥२३३॥ तत्राप्याद्यः परज्ञत्व- परदर्शकतात्मकः । अन्त्यो विचित्ररूपश्च तथा सर्वं समञ्जसम् ॥२३४॥ एवञ्च विधिशास्त्रेण, सद्गुरूणां प्रसादतः । सदाम्नायेन लब्धेन, बोधिताद्विधिवृन्दतः ॥ २३५॥ स्थानवर्णार्थयोगादि - विशिष्टगुणशालिना । श्रद्धाबोधसदध्यात्म-निर्मलेन महात्मना ॥ २३६॥ विहितायां प्रतिष्ठाया - मर्हतो जगदीशितुः । विधिमन्त्रादिसामर्थ्याच्चमत्कारोऽपि जायते ॥ २३७॥ ग्रन्थत्रयी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् असंशयं; यतोऽनेक-तीर्थेष्वन्यत्र खल्वपि । जातोऽसावद्भुतः सम्यक् , शुद्धानुभवगोचरः ॥२३८॥ शास्त्रेषु विनियुक्तस्य, यतः पूज्यैर्महर्षिभिः । अङ्गाङ्गिभावसम्पन्न-मन्त्राद्वानादिसद्विधेः ॥२३९॥ समग्रकर्मकाण्डस्य, सत्प्रभावादनुत्तरात् । सद्भक्त्या च समाकृष्टा, दूरस्थानस्थिता अपि ॥२४०॥ तत्ततीर्थकृतां तीर्थो-नतिभक्तिपरायणाः । तत्तच्छासनदेवा वा, देव्यो वा दिव्यशक्तितः ॥२४१॥ तत्र सान्निध्यमाधाय, तीर्थे चैत्येऽथवाऽऽकृतौ । तीर्थप्रभावनार्थाय, दर्शयन्ति चमत्कृतिम् ॥२४२॥ विशिष्टपुरुषेणात्र, कृतायाः सम्यगुह्यताम् । प्रतिष्ठायाश्चमत्कार-माहात्म्यमिदमद्भुतम् ।।२४३।। यदत्राकर्षणं दूर-वर्तिनामपि नाकिनाम् । संनिधानं च सान्निध्या-द्दर्शनं च चमत्कृतेः ॥२४४|| सर्वः सोऽयं प्रभावश्च, मन्त्रादीनां निबुध्यताम् । स्थानवर्णार्थशुद्धानां, विशुद्धेर्मनसस्तथा ॥ २४५।। मणिमन्त्रौषधीनां च, प्रभावोऽचिन्त्य एव हि । गीयन्ते परमाणूना-मप्यचिन्त्या हि शक्तयः ॥२४६।। यथा लोहमयस्कान्तो, दूरगोऽप्यपकर्षति । तथा मन्त्रादिशब्दाद्यैः, कृष्यन्ते देवता अपि ॥ २४७ ॥ यथाग्ग्रे सर्वमन्त्राणां, प्रस्थानपञ्चकात्मके । सूरिमन्त्रे महामन्त्रे, सर्वशुद्ध्याऽधिकारिणा ॥२४८॥ विधिनाऽऽराधिते सम्यक्, तदधिष्ठायकाः सुराः । सान्निध्यं कुर्वते नूनं, काम्यसिद्धीश्च तन्वते ॥ २४९॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ मन्त्रेणाऽऽहूयमानाश्च, फणिनो मन्त्रवादिभिः । यथाऽऽगत्य विषं प्रत्या- ददते जीवितेच्छवः ॥२५०॥ दाहानुकूलसामर्थ्यं, दूरस्थेऽपि हुताशने । सुप्रयुक्तो यथा मन्त्रः, प्रतिबध्नाति सत्वरम् ॥२५१॥ यथाऽऽकाशस्थिताः सर्वे, ग्रहा अपि वितन्वते । इष्टानिष्टं यथा स्थानं, ज्योतिःशास्त्रे विनिश्चितम् ॥ २५२॥ यथा वा ग्रहशान्तिः स्याद्-ग्रहशान्तिस्तवादिभिः । सामर्थ्यं सर्वमेतन्नु, पुद्गलादेर्निबोधत ॥ २५३॥ भाषैकवर्गणास्कन्धा - भाषापरिणताः खलु । अत्र शब्दतया यस्मान्मते जैनेश्वरे मताः ॥२५४॥ एवं मनोऽपि विज्ञेयं, दर्शनेऽत्र जिनेशितुः । तद्वणात्मकस्कन्धा मनस्त्वपरिणामिनः ॥ २५५ ॥ पुण्यं पापमपीत्थं च, विज्ञेयं पुद्गलात्मकम् । कार्मणवर्गणास्कन्धा-यतः कर्म शुभाशुभम् ॥ २५६॥ तैरेव जीवसम्बद्धै- रात्मनाऽऽत्मनि सर्वतः । औदारिकादयः सर्वे, कृष्यन्ते परमाणवः ॥ २५७॥ एवञ्च सिद्धजीवानां, मुक्तानां सर्वकर्मभिः । पुद्गलस्य न कस्यापि, सम्बन्धः स्वात्मसान्मतः ॥२५८॥ आहारपुद्गलादानं, नाप्यतः सिद्धदेहिनाम् । अभावात् सर्वथा तेषां तदाकर्षककर्मणाम् ॥ २५९ ॥ सामर्थ्यं परमाणूना-मचिन्त्यं, यान्ति ते यतः । समयैक्येन लोकान्ता लोकान्तमपरं ध्रुवम् ॥ २६०॥ `नयन्त्यात्मानमपि ते, समयेनैव निश्चितम् । लोकान्तमेव लोकान्ता-दित्यनेका विचारणा ॥ २६१ ॥ ग्रन्थत्रयी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठतत्त्वम् यश्च तीर्थकृतां काले, जन्मकल्याणकादिके । इन्द्रसिंहासनस्यापि, कम्पनं जन्मसूचकम् ॥२६२॥ एवं भगवतां तेषां, जन्मकल्याणकादिषु । उद्योत एव सर्वत्र, जायते नरकेष्वपि ॥ २६३॥ तत्पुण्यपरमाणूना-मेव सामर्थ्यमद्भुतम् । दूरस्थितेऽपि तीर्थेशे, कम्पनोद्योतनादि यत् ॥ २६४॥ आज्ञया देवराजस्य, यद्धरिणैगमेषिणा । अनीकाधिपदेवेन, सुघोषाघण्टवादनम् ॥ २६५।। तदुच्छलितशब्दानां, घण्टास्वन्यासु कर्षणम् । योजनासङ्ख्यसंख्येय-दूरगास्वपि यद्दिवि ॥ २६६।। घण्टाशब्दश्रुतौ पश्चा-दुपयुक्तेषु नाकिषु । उत्सुकेषु च शक्राज्ञां, संश्रोतुं सुप्रयत्नतः ॥ २६७॥ तेन देवेन तद्घण्ट-द्वारेणैव यदञ्जसा । जिनजन्मादिकाशेष-ज्ञापनं तद्दिवौकसाम् ॥ २६८।। तेषामपि च संख्येया-संख्ययोजनवर्तिनाम् । यद्रतश्च शकाज्ञा-शब्दसंश्रवणं भवेत् ॥ २६९।। एवञ्चाऽनेकधा शक्ति-रचिन्त्या पुद्गलेष्वियम् । कियती वर्ण्यते तत्र, दुर्जेया ह्यस्मदादिभिः ॥ २७०॥ सर्वं लोकं समन्ताच्च, चतुभिः समयैरपि । शब्दाद्याः पुद्गलस्कन्धा व्याप्नुवन्तीति नाद्भुतम् ॥ २७१॥ शक्तौ सत्यामचिन्त्याया-मेवं च परमाणुषु । किमसम्भावनास्थानं, सर्वमित्युपपत्तिमत् ॥ २७२।। एवं मन्त्रादिसामर्थ्यात्, प्रतिष्ठादौ च कर्मणि । मूर्ती देवस्य सान्निध्ये, किमशक्यं चमत्कृतौ ॥२७३॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ चमत्कृतौ च दृष्टान्तो, वर्ण्यतेऽत्र मयाऽद्भुतः । समुत्पन्नो महातीर्थे, श्रीमत्सेरीसकाभिधे ॥ २७४॥ साक्षात्कृतो मयाऽन्यैश्च, सूरिभिः साधुभिस्तथा । श्रावकाणां सहस्त्रैश्च, जनैरन्यैश्च भूरिभिः ॥ २७५ ॥ तथाहि - तन्महातीर्थं, सेरीसेति प्रसिद्धिभाक् । कलावपीह निस्तुल्य-प्रभावं वर्णितं बुधैः ॥ २७६ ॥ यत्र श्रीवस्तुपालेन, प्रासादे स्थापितं पुरा । बिम्बं श्रीनेमिनाथस्य, स्वबन्धोः पुण्यहेतवे ॥ २७७॥ ग्रन्थान्तरेभ्यो विज्ञेयं, वर्णनं चास्य विस्तृतम् । असंशयं महातीर्थ - मिदं पूर्णप्रभावभृत् ॥ २७८ ॥ कालानुभावतः किन्तु, नष्टप्रायमभूदिदम् । इयत्कालं च केनापि, नैव तस्य समुद्धृतिः ॥ २७९॥ एकदा पुण्ययोगेन, भव्यानां बोधहेतवे । विहरन्नेमिसूरीश - स्तत्तीर्थं समुपागमत् ॥ २८०॥ दृष्टानि तत्र नष्टानि, जिनचैत्यानि सर्वथा । तद्विम्बानि विकीर्णानि कानिचिच्च क्वचित्क्वचित् ॥ २८१ ॥ बिम्बानि तत्र चासीरन्, कानिचित् खण्डितान्यपि । इतस्ततश्च विक्षिप्ताः, खण्डाः परिकरादयः ॥२८२॥ तथा चाशातनां बह्वीं, पशुपक्षिनरैः कृताम् । दृष्ट्वा सर्वेषु बिम्बेषु, सूरिः खिन्नोऽभवत्तदा ॥ २८३॥ चत्वार्येव च बिम्बानि, पार्श्वनाथजिनेशितुः । अखण्डितानि चासीरन्नद्भुतानि महान्ति च ॥ २८४॥ प्रतिष्ठितानि सर्वाणि, पुराचार्यैः प्रभावकैः । दर्शनादेव भव्यानां भवनाशीनि तानि च ॥ २८५॥ ग्रन्थत्रयी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् २५ पद्मासनाकृतौ बिम्ब-द्वयं लक्ष्म्या निकेतनम् । कार्योत्सर्गाकृतौ बिम्ब-द्वयं मङ्गलमन्दिरम् ॥ २८६।। तदाऽर्हद्दर्शनात्सर्वे-ऽप्यमन्दानन्दमेदुराः । सञ्जाता जातरोमाञ्चाः कृताञ्जलय आदरात् ॥ २८७।। सूरिसम्राट् ततः सर्वैः साधुभिः श्रावकैः सह । स्तोत्रादिभिः स्तुतिं चक्रे, भवतापशमावहाम् ॥ २८८।। कृत्वा स्तुतिं प्रभोः सम्यग्, भावनाश्च भवापहाः । तीर्थाधिष्ठायकान् देवान् , तीर्थोद्धाराय प्रार्थयत् ॥ २८९॥ तदैव च स्वयं तीर्थो-द्धारकार्यविनिश्चयम् । चक्रे चेतसि सूरीश - स्तीर्थभक्त्यैव प्रेरितः ॥ २९०॥ तानि बिम्बानि तत्कालं, सूरेः सदुपदेशतः । श्राद्धाः सहाऽऽगताः स्थाने, शुभेऽन्यत्र न्यवेशयत् ॥२९१॥ तथा चैकाम्बिकादेव्या-मूर्तिर्मन:प्रमोदिनी । अखण्डिता च तत्राऽभूत्, सर्वसिद्धिविधायिनी ॥ २९२॥ साऽपि न्यवेशि तैस्तत्रा-ऽकारयत् स्थापनां पुनः । तेषां सामान्यतः सूरिः, कृत्वा पञ्चनमस्कृतिम् ॥ २९३॥ सर्वामाशातनां तां च, दूरीकृत्य प्रयत्नतः । प्रारेभे श्रावकैस्तत्र पूजनाभावनादिकम् ॥ २९४॥ तथा चाङ्करसाङ्केन्दौ, वैक्रमेऽब्दे सिते दले। . दशम्यां मृगशीर्षस्या-ऽभूत्तत्तीर्थप्रवर्तना ॥ २९५॥ एवञ्च नेमिसूरीशात्, पुनः ख्यातिमवाप्तवत् । सर्वत्र तन्महातीर्थं, प्रत्यहं वृद्धिमद् भृशम् ॥ २९६॥ तद्दिनस्याऽपराह्ने च, सूरिराड् व्यहरत्ततः । मध्ये मार्गस्य तत्राऽभू-दाश्चर्यं चैकमद्भुतम् ॥ २९७॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मार्गद्वयेऽन्तरा प्राप्ते, विभ्रान्त्याऽभीष्टवर्त्मनः । सर्वेऽपि प्रययुर्मार्गा-दुन्मार्गमनभीप्सितम् ॥ २९८॥ तन्मध्यात्साधुरेकस्तु मार्गमेवाऽन्वगात्परम् । न ज्ञातं केनचित् सोऽगात्, कुत्र वा केन वर्त्मना ॥ २९९॥ चलत्सु मार्गविभ्रान्त्या सर्वेषु सह सूरिणा । अकस्मादागमद्वयोम्नः, काचिद्वाणी सुपेशला ॥ ३००॥ नाभीष्ट एष पन्था भोः, किन्तून्मार्गः प्रयात तत् । अनेनाऽपरमार्गेण, स्थानमिष्टमवाप्स्यथ ॥ ३०१। , अग्रे द्रक्ष्यथ यूयं च, क्षेत्रं कर्पासितं सितम् । इति चिह्नं सुमार्गस्य, यात भोः सुखपूर्वकम् ॥ ३०२ ॥ सूरिणैषा श्रुता वाणी, साधुभिः सकलैरपि । चलद्भिरन्यलोकैश्च, सौच्चैः स्पष्टं विनिर्गता ॥ ३०३ ॥ केनेयं भाषिता भाषा ? कुतोऽयं ध्वनिरागतः ? | दृश्यते कोऽपि नैवात्र, सर्वेऽपीति व्यचिन्तयन् ॥ ३०४ ॥ कोऽस्त्ययं भाषते कश्च ? यः कोऽपि वदतूत्तरम् । घोषितं सूरिणाऽप्येवं, न च कोऽप्यवदत्पुनः ॥ ३०५॥ किमियं देवभाषा स्यात्तस्या वा सम्भवः कथम् । सम्भवो न नरस्यापि, गताः सर्वेऽपि विस्मयम् ॥ ३०६ ॥ सर्वापि भ्रान्तिरेवैषा, नूनमस्माकमद्भुता । सर्वेऽप्यग्रे ततश्चेलु-र्वाणीमवगणय्य ताम् ॥३०७॥৷ अग्रे चलत्सु सर्वेषु, मार्गे कुण्डलितः फणी । छत्रीकृतफणः सर्वैर्दृष्टो मार्गनिरोधकृत् ॥ ३०८॥ ध्रुवं देवानुभावोऽयं, श्रीमत्पार्श्वप्रसादतः । श्रुतपूर्वाऽपि सा वाणी, नूनं देवकृतैव नु ॥ ३०९ ॥ ग्रन्थत्रयी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् उन्मार्गपतितानस्मा-नेवं निवारयत्यसौ । सूरिणा सकलैश्चेत्थं, साक्षात्त्वेन विनिश्चितम् ॥ ३१०॥ प्रतिजग्मुस्ततस्तस्मात्, सर्वेऽपि भ्रान्तवर्त्मनः । मार्गं दिव्यानुभावेन, दर्शितं वरमन्वयुः ॥ ३११॥ कियद्दूरं गते मार्गे, व्योमगी: सूचितं सितम् । सर्वेऽपि ददृशुः क्षेत्रं, निरचिन्वँश्चमत्कृतिम् ॥ ३१२॥ क्रमेणेष्टपुरं प्राप्ताः सर्वेऽपि सुखपूर्वकम् । " प्रागेवागतवान् सोऽपि, साधुः सम्मिलितः सुखम् ॥३१३॥ आश्चर्यव्याजतो मन्ये, तीर्थाधिष्ठायकोऽमरः । व्यतनोत्सूचनां सूरे- स्तीर्थोद्धारस्य भाविनः || ३१४॥ क्रमेण विहरन् सूरिः शिष्यवृन्दसमन्वितः । ग्रामे कार्पटवाणिज्ये, चतुर्मासीं मुदा व्यधात् ॥ ३१५॥ ततोऽपरां चतुर्मासीं, राजनगर आतनोत् । ततश्चार्बुदतीर्थस्य, यात्रायै प्रययौ प्रभुः || ३१६ || मरुदेशे हि भव्यानां, प्रतिबोधनहेतवे । क्रमाद्वधाच्चतुर्मासीं, पुरे जावालनामनि ॥ ३१७॥ प्रतिबोध्य जनाम् सर्वान्, स्तुतित्रयमतानुगान् । ददौ तेभ्यश्च सन्मार्ग चतुर्थस्तुतिशोभितम् ॥ ३१८।। अनन्तरं चतुर्मास्या - स्ततो विहृत्य सूरिराट् । सर्वतन्त्र स्वतन्त्रः स, मेदपाटेऽगमत् क्रमात् ॥ ३१९॥ दयादानजिनार्चादि- धर्मकृत्यपराङ्मुखान् । तत्र प्रबोधयन् भव्याँ - स्त्रयोदशपथानुगान् ॥ ३२० ॥ स्तिमितान्तर मिथ्यात्त्व - ध्वान्तविध्वंसमञ्जसा । कृत्वा तेषां च सन्मार्गं व्यतरन्निभरैर्गवाम् ॥ ३२१॥ २७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी विहरनेवमाचार्यो - दुर्गेऽगात्कोमलाभिधे । सहस्राण्यत्र षटत्रिंशत्,श्राद्धागाराः पुरा बभुः ॥ ३२२।। शतानि जिनचैत्यानां, त्रीणि षष्ट्यधिकानि च । तद् व्यनेशत् कमात्सर्वं, किन्तु कालानुभावतः ॥३२३|| यं दुर्गं शरणीकृत्य, मेदपाटनराधिपः । प्रतापः प्राणभोगेना-ऽप्यार्यधर्म ररक्ष सः ॥३२४|| निभाल्य तत्र तत्सर्वं, दृश्यं सूरिः पुरातनम् । कल्पद्रुर्जङ्गमः साक्षा-त्ततश्चावातरन्मरौ ॥३२५।। पञ्चतीर्थ्यां च चैत्यानि, वन्दित्वा तत्र बोधयन् । भगवद्विम्बतत्पूजा-विमुखान् पुष्कलान् जनान् ॥ ३२६।। ग्राहयंश्चैव सद्धर्म, धर्मसाम्राज्यमद्भुतम् । विस्तारयश्च सर्वत्र, वादिवारणकेसरी ॥३२७॥ क्रमात्साद्रौ चतुर्मासी, विधाय सादरं वराम् । ततो निष्क्रम्य सूरीशः, पञ्चतीर्थां गतो लघुम् ॥३२८॥ नमस्यन् भूरिचैत्यानि, पावयन् मरुभूमिकाम् । आगमत् पालडीग्राम, शिरोहीराज्यवर्तिनम् ॥३२९॥ सूरीश्वरोपदेशेन, यतस्तत्र पुराऽभवत् । जेसलमेरतीय, सङ्घयात्राविनिर्णयः ॥३३०॥ माघासितद्वितीयेऽह्नि, सुलग्ने सर्वसिद्धिदे । प्रयाणं कृतवान् सङ्घः, सूरिणा सह सोत्सवम् ॥३३१|| ग्रामानुग्राममातन्व-न्नपूर्वां शासनोन्नतिम् । साधर्मिकाणां वात्सल्यं, साफल्यं द्रविणस्य च ॥३३२॥ एवञ्च मधुमासस्य, पूर्णिमायां कमात् क्रमात् । तीर्थं जेसलमेराख्यं, श्रीसङ्घः प्राप्तवान् सुखम् ॥३३३॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् त्रयोदशदिनीं सङ्घः स्थित्वा यात्रोत्सवादिभिः । पुराणं तत्र चित्कोशं दृष्ट्वा च हर्षितोऽभवत् ॥३३४|| त्रयोदश्यां च चैत्रस्याऽसितपक्षस्य सूरिराट् । मालां सङ्घपतेः सम्यग्, विधिनाऽऽरोपयत्तराम् ॥ ३३५॥ श्रीसङ्घस्तद्दिनेनैव ततः प्रतिविनिर्गतः । सूरिणा सह सम्प्रातः फलवर्द्धिपुरं क्रमात् ॥ ३३६|| सूरीशश्च चतुर्मासीं कृतवांस्तत्र साग्रहम् । स्वस्थानं च पुनः संघः क्रमात्प्रतिगतः सुखम् ||३३७|| ततः परं चतुर्मास्याः सूरीशो विहरन् क्रमात् । तन्वन् वचोऽमृतैर्भव्य-भवसन्तापसान्त्वनम् ॥३३८॥ कर्पटटकाख्येऽगात्, तीर्थे यत्र विमानवत् । स्वयम्भूपार्श्वप्रासादो, राजते सप्तभूमिकः ॥ ३३९॥ विहृत्याऽऽगात्ततः सूरिः पालीग्रामे पुरातने । स्थित्वा तत्र चतुर्मासी - मन्यत्र व्यहरत्ततः ॥३४०|| भव्यान् प्रबोधयन् सूरिः खाण्डग्रामे समागमत् । सैव सङ्घपतिश्चाऽन्येऽप्यागतास्तत्र वन्दितुम् ॥३४१॥ सङ्घपत्यादिभिस्तत्र, प्रतिष्ठानिर्णयः कृतः । तीर्थे सूर्युपदेशेन, कर्पटहेटकाभिधे ॥ ३४२ ॥ यात्रायै तस्य तीर्थस्य सङ्घस्तदुपदेशतः । पालीतो निरयात्तत्र, सङ्घ सूरीश्वरोऽप्यगात् ||३४३|| प्राप्तः क्रमेण तत्तीर्थं श्रीसङ्घः सूरिणा सह । शुभे दिने च मालाया विहितं परिधापनम् ॥ ३४४॥ प्रतिष्ठासत्ककर्माऽथा-ऽऽरब्धं श्राद्धैश्च सूरिणा । प्रावर्तन्तोत्सवाः कुम्भ - ग्रहार्चागीतकादयः ॥ ३४५॥ २९ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी स्वयम्भूपार्श्वनाथस्य, तत्रासीद्विम्बमद्भुतम् । अन्यतोऽन्यानि बिम्बानि, सूरिणाऽऽनायितानि च ॥३४६।। अत्यद्भुतं महद्विम्बं शान्तिनाथस्य चाऽनघम् । पालीग्रामं स्वयं सूरि-र्गत्वाऽऽनायितवांस्ततः ॥३४७। तच्च प्रतिष्ठितं पूज्यै-भगवद्भिः सुहस्तिभिः । पुरा सम्प्रतिराजेन, श्रेयसे स्वस्य कारितम् ॥३४८॥ प्रासादे तत्र तीर्थे च, चतस्रश्चैव भूमयः । प्रतिमा स्थापनायोग्या नाऽन्या ह्याकृतिमात्रतः ॥३४९।। माघशुक्लस्य पञ्चम्यां, चतसृष्वेव भूमिषु । विधिना जिनबिम्बानि, सूरिरस्थापयत्ततः ॥३५०॥ मिलितानि सहस्राणि, जनानां तत्र भूरिशः । विहितश्चोत्सवः श्राद्ध-वृद्धस्नात्रादिकैर्महान् ॥३५१॥ उत्सवं पालडीवासी, सैव सङ्घपतिळघात् । चत्वारिंशत्सहस्राणां, रूप्यकाणां व्ययेन च ॥३५२॥ मदिरा-जीवहिंसाद्यै-झटिलोकादिभिः कृताम् । तत्राप्याशातनां घोरां, प्रयत्नेन न्यवारयत् ॥३५३॥ विविधान् विघ्नसंघातान्, प्राणस्याप्यनपेक्षणात् । सहित्वापि तदुद्धारं, धर्मवीरो व्यधापयत् ॥३५४॥ कर्पटहेटकोद्धार-विस्तृतं वर्णनं परम् । प्रसङ्गाद्दर्शितं किञ्चिद्, ग्रन्थबाहुल्यभीतितः ॥३५५॥ विहत्याथ मरौ देशे, क्रमादाचार्यपुङ्गवः । प्रयातश्चार्बुदे तीर्थे, तथा कुम्भारिकागिरौ ।३५६॥ तारङ्गाख्यगिरेस्तीर्थात्, क्रमात् सेरीसकात्पुनः । गौर्जरात्याग्रहाद्राज-नगरे समुपागमत् ॥३५७॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ प्रतिष्ठातत्त्वम् कृता तत्र चतुर्मासी, तत्र सूर्युपदेशतः । धूलेवातीर्थयात्रायै, सङ्घस्याऽभूद्विनिश्चयः ॥३५८॥ सेरीसकस्य तीर्थस्य, वर्त्मना सूरिसद्गिरा । प्रयाणं कृतवान् सङ्घः, क्रमात्ततीर्थमागतः ॥३५९॥ सूरीश्वरोऽपि तत्तीर्थ-समुद्धारैकमानसः ॥ तदोपदेशतस्तीर्थो-द्धारारम्भमसूत्रयत् ॥३६०॥ क्रमशोऽगाच्च धूलेवा-तीर्थं सङ्घश्च सूरिराट् । समाप्याऽशेषतत्कार्यं सङ्घः प्रतिगतः क्रमात् ॥३६१॥ सूरिराजः पुनस्त्वग्रे, मेदपाटे प्रयातवान् । उदयपुरमायात-श्चतुर्मासी च तस्थिवान् ॥३६२॥ राणकपुरतीर्थस्य यात्रायै निर्गतस्ततः । सूरीश्वरगिरा सङ्घ-स्तत्र सूरि ः प्रयातवान् ॥३६३॥ यात्रां कृत्वा ततः सूरि-र्जावालाव्यपुरेऽगमत् । ततोऽपि निर्गतः सङ्घः, सिद्धाचलगिरि प्रति ॥३६४॥ जीरावस्यभिधं तीर्थ, सङ्घ आगतवान् क्रमात् । ततोऽर्बुदगिरि-कुम्भा-रिकातीर्थं ततोऽगमत् ॥३६५॥ तदा कुम्भारिकातीर्थो-द्धारोऽभूत् सूरिसद्गिरा । ततः शङ्केश्वरं तीर्थं, सूरिस्तत्रैव तस्थिवान् ॥३६६॥ सङ्घः शत्रुञ्जयं यातः, सूरिशिष्यैरलङ्कृतः । क्रमात्सेरीसकं तीर्थं, यात आचार्यपुङ्गवः ॥३६७॥ चतुर्मास्यभवद्राज-नगरे श्रीभृते ततः । तद्भक्त्येकमनाः सूरि-र्गत: सेरीसकं पुनः ॥३६८॥ स्तम्भतीर्थे महातीर्थे, पावने च पुरातने । क्रमात्संघाग्रहात् सूरि-श्चतुर्मासीमवस्थितः ॥३६९॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ग्रन्थत्रयी तत्र नाभेयचैत्यस्योद्धारं कारितवान् स्वयम् । भव्योपदेशदानेन, पुष्कलाच्च धनव्ययात् ॥३७०॥ एवमासन्नग्रामेऽप्य-कारयत् शर्करे पुरे। विहरज्जिनचैत्यस्य, समुद्धारं प्रयत्नतः ॥३७१॥ ततो व्यधात् पुना राज-नगरे सूरिचक्रिराट् । चतुर्मासी तथाऽन्यां ता-मपि तत्रैव चक्रिवान् ॥३७२॥ एवञ्चैव चतुर्मासी, व्यधाच्चाणसमापुरे । ततः सा चाभवत्सूरेः, पत्तनाख्ये महापुरे ॥३७३॥ तत्रापि तीर्थयात्रायाः, संघस्य निर्णयोऽभवत् । रैवताचलयात्रार्थं, सल्लग्ने प्रस्थितश्च सः ॥३७४।। सूरिणा सह संघोऽगा-त्तीर्थं शंखेश्वराभिधम् । तत्र मालाविधिं सूरि-य॑धात् संघपतेः स्वयम् ॥ ३७५॥ ततः क्रमाच्चलन् संघो,-ध्राङ्गध्रापुरमागमत् । ततोऽग्रे प्राचलत्संघः, सूरिस्तत्रैव तस्थिवान् ॥३७६।। वर्त्मनश्चातिदीर्घत्वा-त्तीर्थसत्कादिकार्यतः । चतुर्मासी क्रमाद्राज-नगरे सूरिराड् व्यधात् ॥३७७॥ ततोऽगात् स्तम्भतीर्थे स, नवीने तत्र कारिते । प्रासादे स्तम्भनेशस्य, प्रतिष्ठां च व्यधापयत् ॥३७८॥ तथाऽञ्जनशलाकाऽपि, व्यधाय्याचार्यचक्रिणा । बहूनां जिनबिम्बानां, चतुर्मास्यपि तत्र च ॥३७९।। यात्रार्थं निरयात्सङ्घः, शत्रुञ्जयगिरि प्रति । सूरेः सदुपदेशेन, स्तम्भतीर्थाच्च पुण्यभाक् ॥३८०।। सूरिणा सह सङ्घोऽगात् क्रमाच्छत्रुञ्जयाचलम् । समाप्याऽखिलमालादि-कृत्यं सङ्घश्च प्रत्यगात् ॥३८१॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् कदम्बगिरिमाचार्यो, यात्रार्थं च ततोऽगमत् । तदुद्धारैकचेतस्कः, सदा तद्ध्यानतत्परः ॥३८२॥ कदम्बगिरिराजो हि तद्ध्यानारूढचेतसाम् । साधकश्चिन्तितार्थानां शत्रुञ्जयगिरिर्यथा ॥ ३८३॥ यत्स शत्रुञ्जयस्याद्य-शृङ्गवत् सर्वसिद्धिभृत् । महाप्रभावकश्चैव, शास्त्रेषूक्तो यदाह च ॥ ३८४॥ 'अथो कादम्बकगिरौ, श्रीनाभं भरतोऽवदत् । भगवन् ! किंप्रभावोऽयं, पर्वतः ख्यातिमान् बहु ? ||३८५॥ गणाधीशोऽप्यथोवाच, चक्रिन् ! श्रृणु कथानकम् । उत्सर्पिण्यामतीतायां चतुर्विंशो जिनोऽभवत् ॥३८६ ॥ सम्प्रतेरर्हतस्तस्य, कदम्बाख्यो गणाधिपः । मुनिकोटिभिरत्रागात्, सिद्धिं कादम्बकस्ततः ॥ ३८७॥ सन्त्यत्र दिव्यौषधयः, प्रभावपरिपेशलाः । रसकूप्यो रत्नभुवः, कल्पवृक्षास्तथाऽपरे ॥३८८॥ दीपोत्सवे शुभे वारे, संक्रान्तावुत्तरायणे । न्यसेन्मण्डलमत्रैत्य, स्युः प्रत्यक्षा हि देवताः ||३८९॥ न ता औषधयः काश्चिद्रसकुण्डानि तानि च । सिद्धयोऽपि न ताः सन्ति, या न सन्ति गिराविह ॥ ३९०॥ सुराष्ट्रमण्डलभुवो- दारिद्र्येण कथं जनाः । पीड्यन्ते यत्र कादम्ब - गिरिः सिद्धिनिकेतनम् ? ॥३९१॥ कदम्बेनापि नो यस्य, दारिद्र्यदुरघाति हा । निर्भाग्य इति तं नैव, रोहणाद्रिः प्रतीच्छति ॥३९२॥ तुष्टो यस्यास्त्ययं शैलः कामधेनु-सुरद्रुमाः । चिन्तामण्यादयस्तस्य, सर्वे तुष्टाः समन्ततः ॥ ३९३॥ ३३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ नक्तमौषधयो यत्र, निजभादीपसंचयैः । तमो हरन्ति दारिद्र्य - मिव निर्भाग्यमन्दिरात् ॥ ३९४॥ छायावृक्षाः कल्पवृक्षा अत्र सन्ति सनातनाः । रुचकाद्राविव स्वैरं यच्छन्ति बहु वाञ्छितम् ॥ ३९५॥ कालहानेः क्रमेणैते, न भविष्यन्ति गोचराः । मर्त्यानामिव वर्षासु, मेघच्छ्न्नरवेः कराः ॥ ३९६॥ परशृङ्गवदेतच्च, शृङ्गं कालुष्यनाशनम् । भवद्वयोपकारित्वात्, ख्यातिमेति पुनर्भृशम् ॥ ३९७|| महिमानमिति श्रुत्वा, चक्री कादम्बभूभृतः । तत्रानेकद्रुमाकीर्णे, धर्मोद्याने महामनाः || ३९८|| प्रासादं वर्द्धमानस्य, चतुर्विंशस्य भाविनः । अचीकरद्वर्धकिना, नाकिनायकसम्मतम् ॥ ३९९॥ कादम्बात्पश्चिमे शृङ्गे शत्रुञ्जयनदीतटे । गजवाजिमयी सेना, चक्रिणोऽस्थाच्च काचन ॥ ४०० || तत्र रोगादिनिर्मुक्ता, हस्त्यश्ववृषपत्तयः । केचित्स्वर्गमयुस्तीर्थ-योगादप्यविवेकिनः ॥ ४०१ ॥ तेऽथ स्वर्गात्समागत्य, प्रणिपत्य नराधिपम् । स्वस्वर्गसौख्यलाभं तं, कथयामासुराशु च ॥ ४०२ ॥ तत्र स्वमूर्त्तिसंयुक्तान्, प्रासादानप्यकारयन् । स तदादिगिरिर्जातो - हस्तिसेनाभिधो महान् ' ॥४०३|| कदम्बाख्यगिरेरेवं, वर्णनं वर्णितं बहु । श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्ये, श्रीधनेश्वरसूरिभिः ॥ ४०४ ॥ सूरिराजोऽपि तत्तीर्थ- समुद्धारस्य देशनाम् । व्यतरद्भव्यदेहिभ्यो - वचः पीयूषधारया ॥४०५॥ ग्रन्थत्रयी Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रतिष्ठातत्त्वम् तदैव जिनप्रासादो-महानारभ्यताऽञ्जसा । कदम्बगिरिराजस्या -धस्तात्परिसरे वरे ॥ ४०६॥ स क्रमात् पूर्णतामापद् द्वापञ्चाशज्जिनालयैः । शोभनः पुष्कलद्रव्य - व्ययेनाऽत्यन्तबन्धुरः ॥४०७॥ एवं गिरेः कदम्बस्यो - पत्यकायामपि क्रमात् । प्रारम्भो जिनचैत्याना-मभवद्भरिभूतिदः॥४०८॥ विहर॑श्च सुखं सूरिः, कदम्बपुरतः शनैः । गत्वा भण्डारिकाग्रामे, प्रतिष्ठां च व्यधापयत् ॥ ४०९॥ स्वोपदेशेन सुश्राद्ध - निर्मापितजिनालयम् । तालध्वजगिरिं गत्वा, पुरीं मधुपुरीं गतः ॥ ४१०॥ तत्राभूच्च चतुर्मासी, ततोऽपि विमलाचलम् । प्रति निर्गतवान् सङ्घः, तत्र सूरीश्वरोऽप्यगात् ॥ ४११॥ विहरन् सह सङ्केन, सूरिरागतवान् क्रमात् । कदम्बाख्यगिरि हस्त-गिरि सिद्धाचलं तथा ॥ ४१२॥ यात्रां विधाय सङ्घश्च, प्रत्यगान्निजकां पुरीम् । पुनः प्रयातवान् राज-नगरं सूरिपुङ्गवः ॥ ४१३॥ चतुर्मासी स्थितस्तत्र, पुनः सेरीसकं गतः । प्रत्यागत्य चतुर्मासी, पुनस्तत्रैव संस्थितः ॥ ४१४॥ क्रमात्सेरीसके तीर्थे, नूतने जिनचैत्यके । पार्श्वनाथप्रवेशस्य, निर्णयः श्रावकैः कृतः ॥ ४१५॥ सूरीश्वरोऽप्यगात्तत्र, प्रारब्धश्च महोत्सवः । कुम्भस्थापनमुख्याश्च, क्रियाः सर्वाः प्रवर्तिताः ॥ ४१६॥ एवं भगवद्विम्बेषु जाता या भूरिकालतः । अनेकाशातनास्तासां, परिहारकृते पुनः ॥ ४१७॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ग्रन्थत्रयी । ४२०॥ अभिषेकादिकान् सर्वान्,कारयित्वा क्रियोत्सवान् । मन्त्रादिविधयोऽप्युच्चैः, सूरिणैव स्वयं कृताः ॥ ४१८॥ कृत्वाऽखिलविधानानि, पार्श्वनाथजिनेशितुः । महातेजस्विनी मूर्ति-र्नीता द्वाराग्रतः प्रगे ॥ ४१९।। तदानीमपि सूरीशो-मुद्रामन्त्रादिकान् विधीन् । विधाय प्रार्थनामेकां, प्रभोः प्रारब्धवान् पुनः ॥ ४२०॥ प्रार्थनाधीरगम्भीर-ध्वनि श्रोतुमिवोत्सुका । कीर्णा जनसहनैश्च, पृथिव्यप्यचलाऽभवत् ॥ ४२१॥ 'सेरीसकमहातीर्थ - नायक ! त्वं प्रसीद मे । इयत्काल प्रभावस्ते, नाज्ञायि मतिमौढ्यतः ॥ ४२२॥ आशातना कृता मूढै- रुपेक्षा चाऽस्मदादिभिः । तत्सर्वं क्षम्यतां देव !, करुणाक्षीरसागर ! ॥ ४२३॥ चिरकालमिदं तीर्थ - भभूद्भरिप्रभावकम् । ततः कालानुभावेन, जीर्णशीर्णमजायत ॥४२४॥ नागतं दृक्पथं नाथ ! केषाञ्चिदपि भाविनाम् । जीवानां भाग्यदोषेण, कियत्कालं जिनेश्वर ! ॥ ४२५।। भाग्यसाङ्गत्यतो देव !, ततः प्राकट्यमागतम् । तीर्थसेवकदेवाना-मनुभावादिदं महत् ॥ ४२६॥ सुश्राद्धानां सुभक्तानां, भाग्यभाजां च धीमताम् । सूरीणां च मुनीनां च, जातेहाऽत्र तदुद्धृतौ ॥ ४२७॥ तवाऽत्र कारितं चैत्यं, प्रभावाढ्ये सुतीर्थके । तावत्कालमिह स्थाने, स्थापना नाथ ! ते कृता ॥४२८॥ भव्यरुपासकैः श्राद्धैः, प्रासादेऽथ प्रवेशनम् । नवीने क्रियते नाथ !, सुमहोत्सवपूर्वकम् ॥४२९॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ प्रतिष्ठातत्त्वम् इयत्कालं कृतं नाथ ! शास्त्राबोधादिदोषतः । आशातनादिकं यद्यत्, तत्तन्मे क्षम्यतां प्रभो ! ॥४३०॥ जगतां नाथ ! मे जाता, न्यूनता भक्तिकर्मणि । विधेरज्ञानतो वापि, देवते ! दीनवत्सल ! ॥ ४३१॥ क्षम्यतां क्षम्यतां देव !, करुणासरितां पते ! । भव्यानां भूरिभक्तानां, तत्प्रसीद प्रसीदतात् ॥ ४३२।। ॐ हीं श्रीं श्रीधरणेन्द्र -पद्मावतीनिषेवित ! । सेरीसकमहातीर्थ - नायकानन्ददायक ! ॥ ४३३॥ श्रीमत्श्रमणसङ्घस्य, ऋद्धि वृद्धि च मङ्गलम् । शिवं कुरु कुरु स्वाहा, तुष्टि पुष्टिं च सर्वतः' ॥ ४३४॥ कृतैवं प्रार्थना प्रौढा-ऽऽह्लाददा सूरिणा स्वयम् । विज्ञापितश्च भगवा-नथ चैत्ये प्रवेशनम् ॥ ४३५॥ मुहूर्ते च क्रमात्प्राप्ते, गजाष्टाङ्केन्दुसंमिते । वैक्रमे वत्सरे माघे, मासे शुक्ले दले वरे ॥ ४३६।। तिथौ षष्ठ्यां भृगौ वारे, शनौ लाभे स्वसद्मगे । चन्द्रमस्यश्विनीयुक्ते, लाभे लाभावहे रवौ ॥ ४३७॥ लग्नोच्चगे भृगौ कर्क-स्थिते पञ्चमगे गुरौ । गुरुणा चैव दृष्टेषु, सकलेषु ग्रहेष्वपि ॥ ४३८॥ कुमाराख्ये महायोगे, रवियोगे महोत्तमे । श्रीसेरीसकपार्श्वस्य, प्रवेशः परमोऽभवत् ॥ ४३९।। अवशिष्टाः क्रियाश्चैत्य-वन्दनं प्रविधाय च । पुनर्व्यधात् स्तुति सूरिः, साधुभिः श्रावकैः सह ॥ ४४०॥ ततोऽथ निर्गताः पार्श्व-नेत्रयोर्जलबिन्दवः । मूलस्थानागमाद्धर्षो-च्छलितास्तत्कणा इव ॥ ४४१॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ग्रन्थत्रयी क्रमात् फणेषु सर्वेषु, सर्वेष्वङ्गेष्वपि क्रमात् । सुधाधारा इवाऽम्बूनां वृष्टा धाराः सहस्रशः ॥ ४४२॥ प्रासादेऽपि च सर्वत्रा-ऽधश्चोपरि तथाऽभवत् । सुगन्धाद्वैतरूपश्च, समस्तोऽभूज्जिनालयः ॥ ४४३।। स्थितं तदद्भुतं यावत्, प्रहराणां चतुष्टयम् । जातं चाऽऽबालगोपालं, दर्शनं तच्चमत्कृतेः ॥ ४४४॥ नेदं भगवतो बिम्बं, किन्तु साक्षादयं प्रभुः । इत्येवं हृदये प्रायः, सर्वेषां स्फुरितं तदा ॥४४५।। साक्षाद्भगवता ह्येव, प्रसन्नीभूय भूतले । भव्यानिवामृतीकर्तुं, सुधाधाराः प्रवाहिताः ॥ ४४६॥ वस्तुतस्तस्य तीर्थस्या-ऽधिष्ठात्राऽतश्चमत्कृतेः । सेरीसापार्श्वनाथस्य, प्रभावः प्रकटीकृतः ॥ ४४७॥ मूर्ती प्रतिष्ठितत्वस्य, विधेमन्त्रादिकस्य च । सर्वमेतद्धि माहात्म्यं विज्ञेयं विशदाशयैः ॥ ४४८॥ उपायशतकेनापि, नान्यथेयं चमत्कृतिः । पाषाणमयबिम्बेषु, धारावाहः कथं यतः ॥ ४४९।। मन्त्रादिभिः समाकृष्टाः, सुरास्तीर्थप्रभावकाः । किन्त्वेवमेवमाश्चर्य, भक्तिभावाय तन्वते ॥ ४५०॥ श्रीसेरीसकतीर्थस्य, चमत्कारस्य वर्णनम् । इत्येवं किञ्चिदाख्यातं, प्रसक्तानुप्रसक्तिमत् ॥ ४५१।। एवं शङ्गेश्वराधीश-पार्श्वनाथप्रभावतः । गीयतेऽनेकशास्त्रेषु, जराया विनिवारणम् ।। ४५२॥ एवंच स्तम्भनाधीश-पार्श्वनाथप्रसादत : । आचार्याभयदेवस्य, कुष्ठरोगस्य निर्वृतिः ॥ ४५३॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् तन्मन्त्रादेः प्रतिष्ठादे- विधेर्माहात्म्यमद्भुतम् । बोध्यमन्यत्र सर्वत्रा-ऽथाऽतः प्रकृतमुच्यते ॥ ४५४॥ प्रतिष्ठा चात्र सद्भक्ति - विशेषद्वारतः खलु । हेतुः पूजाफलेष्वित्थं, मूर्तिषु विधिना कृता ॥ ४५५ ।। प्रतिष्ठितत्वविज्ञानं, प्रतिष्ठातो यतो भवेत् । ततश्चाऽऽधीयते भक्ति - विशेषो ह्येव पूरुषे ॥ ४५६॥ भक्तिद्वारा च सा पूजा, फलदा सम्मता बुधैः । प्रतिष्ठाध्वंसतज्जन्य- शक्त्योर्नादर एव हि ॥ ४५७॥ अस्पृश्यश्वपचादीनां, स्पर्शादौ सति मूर्तिषु । तस्य च प्रतिसन्धाने, भक्तिर्द्वारं न जायते ॥ ४५८ ॥ तथा भक्तिविशेषात्म-द्वारस्याऽभावतो भवेत् । प्रवर्तनं न पूजायां न च साऽपि तथाफला ॥ ४५९॥ यतो भक्तिविशेषैक - व्याघातकत्वमीरितम् । उक्तस्य प्रतिसन्धान- स्येति नात्राऽसमञ्जसम् ॥ ४६०|| स्पृश्यास्पृश्यविचारोऽत्र, शास्त्रसिद्धान्तबोधितः । ग्रन्थान्तरात् सुविज्ञेयो- गौरवान्नेह तन्यते ॥ ४६१॥ अथ प्रतिष्ठितत्वेऽपि, प्रतिमायां न वन्दना । पूजना नापि भक्तिर्नो, तत्फलान्यपि नैव च ॥ ४६२॥ यतोऽयं जिन एवेति जिनतादात्म्यगोचरम् । बिना बोधं कथं पूजा- दिकं तत्र नु सम्भवेत् ॥ ४६३ ॥ पूजादिविषये तत्र, भगवत्त्वधियं विना । यत्र पूजादिकं हेतु - सहस्रेणापि सम्भवि ॥ ४६४ ॥ तादृशाया धियश्चात्र, सम्भवो नैव सर्वथा । पाषाणत्वादिना भेद - प्रत्यक्षे तु स्वभावतः ॥ ४६५ ॥ . ३९ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० तदभावविनिश्चित्यां तद्बुद्धिर्नैव जायते । तदभावस्य यद्व्याप्यं तद्वत्तानिश्चयेऽपि नो ॥ ४६६ ॥ एवं तद्व्यापकाभाव- निश्चयेऽपि न सा भवेत् । यतोऽनुभवसंसिद्ध-मेतत्सर्वत्र तद्यथा ॥ ४६७॥ धूमाभावविनिश्चित्यां, धूमबुद्धिर्न जायते । धूमाभावस्य यद्व्याप्यं, जलं तनिश्चयेऽपि नो ॥ ४६८ ॥ तथार्द्रेन्धनसंयोगो-यो धूमव्यापकः खलु । निश्चये तदभावस्य न तद्बुद्धिः समुद्भवेत् । ४६९॥ प्रतिमायां तथैवात्र, कथं स्याज्जिनभावधीः । प्रत्यक्ष एव यत्तत्र, जिनत्वाभावनिश्चयः ॥ ४७०॥ जिनत्वाभावनियता - धर्माः पाषणतादयः । ये तेषां निश्चयाच्चापि नैव सा तत्र धीर्भवेत् ॥ ४७१ ॥ जिनत्वव्यापका ये च, धर्मा मनुजतादयः । मूर्ती तेषामभावस्य, निश्चयादपि सा न धीः || ४७२॥ तथाऽयं जिन इत्येवं, न मूर्ती धीः कदाचन । न चातो घटनाऽऽर्चादे - रित्युक्तं सम्यगेव नु ॥ ४७३॥ इति चेत्सत्यमेवैतत्, यत्र तत्र जिनत्वधीः । प्रमा नैवाऽप्यनाहार्य - भ्रमरूपापि सम्भवेत् ॥ ४७४। परमाहार्यरूपोऽयं, भगवानित्यसौ भ्रमः । सम्भवति ध्रुवं मूर्ती जिनाऽभेदैकगोचरः || ४७५|| बाधकालेऽपि आहार्य-भ्रमोत्पत्तेरबाधनात् । ज्ञानं यद्बाधकालेच्छा - जन्यमाहार्यमुच्यते ॥ ४७६ ॥ अत एवाक्षपादाद्यैः सन्निधेरुपगम्यते । आहार्यभ्रमरूपत्वं, बाधकालेऽपि मूर्तिषु ॥ ४७७ ॥ ग्रन्थत्रयी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठतत्त्वम् तथाऽलङ्कारिकैरित्थं चाध्यवसानवृत्तितः । अतिशयोक्त्यलङ्कारः, सङ्गीतः सङ्गतिं गतः ॥४७८॥ 'पश्य नीलोत्पलद्वन्द्वा-निःसरन्ति शिताः शराः' । इत्येतस्मिन्नलङ्कारे, भ्रम आहार्य एव हि ॥४७९॥ तथा च पूजकादीनां, दर्शनाभ्यर्चनादिकम् । आहार्यारोपतो बिम्बे, जिननाथस्य जायते ॥४८०) संग्रहे स्थापनायाः सं-स्थापनाया विचारणे । ग्रन्थे नयोपदेशाख्ये, यदाह वाचकाग्रणीः ॥४८१॥ प्रतिष्ठितप्रत्यभिज्ञा-समापनपरात्मनः । आहार्यारोपतः सा च, द्दष्ट्रणामपि धर्मभूः ॥ ४८२।। प्रसिद्धं च यतो गुण्य-भेदाध्यारोपतः खलु । तद्गतोत्कर्षवत्वस्य, प्रतीति: फलमद्भुतम् ॥४८३॥ अत एवहि गङ्गायां, घोष इत्यस्य भिन्नता । घोषो गङ्गातटे वाक्या-दित्यस्माच्छास्त्रविश्रुता ॥४८४|| गङ्गायां घोष इत्यत्र, गङ्गतीरे हि लक्षणा । गङ्गापदस्य तात्पर्या-नुपपत्त्या प्रकल्प्यते ॥४८५॥ तया च गङ्गया तत्रा-भेदस्याऽध्यवसायतः । व्यक्त्या प्रतीयते तीरे, शैत्यपावनतादिकम् ॥४८६॥ न च गङ्गातटे घोष, इत्यत्रैवं प्रतीयते । लक्षणाभावतोऽभेदा-ध्यारोपस्याप्यभावतः ॥ ४८७॥ इत्थं च रूपकालङ्का-रादिगर्भः स्तवादिभिः । स्तोतॄणां निर्जरालाभो-भक्त्युत्कर्षान्महान् मतः ॥४८८॥ यदाह लुम्पको मूर्ती-जिनोऽयं मोक्षदोऽस्तु मे । इत्यादीदं वचो मिथ्या कर्मबन्धाय केवलम् ॥४८९॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ग्रन्थत्रयी तदप्यपास्तमेतेन, यतो भक्त्या विशिष्टया । तादृशस्तुतिभाषायाः श्रेयोमूलत्वमेव हि ॥४९०॥ स्थाप्यस्थापनयोश्चोप-मेयोपमानयोस्तथा। भाषाविशेषतो भेद-तिरोधानविशेषतः ॥४९१॥ भावाद्भक्तिविशेषस्य, श्रेयोमूला हि बोधिता । सत्या सत्यामृषा भाषा, स्थापनायाचनादिषु ॥४९२॥ आरोपाध्यवसानाभ्या-मत एवापि लक्षणा । भेदाभेदविशेषेण, द्विविधोक्ता यदाह च ॥४९३॥ 'विषयस्याऽनिगीर्णस्या-न्यतादात्म्यप्रतीतिकृत् । सारोपा, स्यान्निगीर्णस्य, मता साध्यवसानिका' ॥४९३।। प्रतिष्ठितां यजेन्मूर्ति-मित्यर्चाया विधावपि । अभावात्तद्विधेस्तत्र, कथमाहार्यधीः परम् ॥४९४॥ इति चेदुक्त एवायं, विधिरप्येष वाङ्मये । इष्टसाधनताबुद्धि-द्वाराऽऽहार्यप्रयोजकः ॥४९६॥ . यद्भगवदभेदेन, प्रोर्मूर्ति प्रतिष्ठिताम् । आरोपयेदिति ज्ञान-विधिः शास्त्रेषु बोधितः ॥४९७।। ततस्तद्विधिवाक्येन, तादृशारोपगोचरा । इष्टसाधनताधीः स्या-दारोपेच्छाप्रयोजिका ॥४९८॥ यत आहार्यविज्ञानं, बाधकालेच्छयोद्भवेत् । ततः सिद्धैवमिच्छाया-आहार्यारोपहेतुता ॥ ४९९।। जिनाभेदे न मूर्ती मेऽ-ध्यारोपो जायतामिति । आरोपेच्छा च तत्र स्या-दिष्टसाधनताधिया ॥५००॥ मदिष्टसाधनं तत्रा-ध्यारोपस्तदभेदतः । इतीष्टहेतुताधीश्च, विधिवाक्येन नान्यतः ॥५०१॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ प्रतिष्ठतत्त्वम् इत्यावश्यकता तस्य, प्रागुक्तस्य विधेः खलु । इत्ययं कल्पितः शास्त्रे, दर्शितस्तत्त्ववेदिभिः ॥५०२॥ अङ्गाङ्गिभावमापन्नः, सम्यगेवं निरूपिताः । शास्त्रेषु विधयः पूजा-प्रतिष्ठादिकगोचराः ॥५०३॥ आहार्यभेदरूपेयं, मूर्ती चाऽर्हन्मतिर्मता । योग्यतां समपेक्ष्यैव, प्रतिष्ठाद्यात्मिकां ध्रुवम् ॥५०४॥ आहार्यारोपहेतोर्हि, विधिनियन्त्रितत्वतः । इच्छाया विधियोग्यत्वं, नाऽनपेक्ष्य प्रवर्तनम् ॥५०५।। अत एव च जन्मादि-समयं विहितं विना । शकादयोऽपि नो शक-स्तवनादि पठन्त्यपि ॥५०६॥ यथा जन्मादिसमये, शक्राद्या निजकल्पतः । द्रव्यतो जिनजीवेषु योग्यतां समपेक्ष्य नु ॥५०७॥ भावार्हत्त्वं समारोप्य, तन्वते स्तवनादिकम् । तथा च योग्यतापेक्षा सुष्ठुक्ताऽऽहार्यसिद्धियः ।.५०८॥ द्रव्यलिङ्गिन्यतश्चैव, तत्र तत्र प्रकीर्तितः । साध्वन्तरगुणारोपा-नमस्कारोऽपि नोचितः ॥५०९।। सावद्यकर्मयुक्तत्वा-दारोपाविषयत्वतः । निरवद्यक्रियारूप-योग्यताया अभावतः ॥५१०॥ स्यादेतज्जिनमूर्त्यादौ, नोचिता तदभेदधीः । तस्या आरोपरूपत्वात, तस्य भ्रान्त्यात्मकत्वतः ।।५११॥ इति चेन्नैव, यद् भ्रान्ति-रप्यस्तीह फलावहा । यतोऽनेकत्र संवादि-भ्रमोऽनुभवगोचरः ॥५१२॥ भ्रमो द्विधा विसंवादि-संवादिभेदतो यतः । परैरप्युक्त एवायं, ध्यानदीपे तथा हि च ॥५१३॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8389 ४४ 'संवादिभ्रमवद्ब्रह्म-तत्त्वोपास्त्याऽपि मुच्यते । उत्तरे तापनीयेऽतः श्रुतोपास्तिरनेकधा ॥ ५१४ ॥ , मणिप्रदीपप्रभयो - मणिबुद्धयाऽभिधावतोः । मिथ्याज्ञानविशेषेऽपि, विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ॥५१५ ॥ दीपो ऽपवरकस्याऽन्त - र्वर्तते तत्प्रभा बहिः । दृश्यते द्वार्यथान्यत्र, तद्वद् दृष्ट्वा मणेः प्रभा ॥ ५१६॥ दूरे प्रभाद्वयं दृष्ट्वा मणिबुद्धयाऽभिधावतोः । प्रभायां मणिबुद्धिस्तु, मिथ्याज्ञानं द्वयोरपि ॥ ५१७॥ न लभ्यते मणिर्दीप- प्रभां प्रत्यभिधावता । प्रभायां धावताऽवश्यं, लभ्येतैव मणिर्मणेः ॥५१८ ॥ दीपप्रभामणिभ्रान्ति - विसंवादिभ्रमः स्मृतः । मणिप्रभामणिभ्रान्तिः संवादिभ्रम उच्यते ॥५१९ ॥ बाष्पं धूमतया बुद्ध्वा तत्राङ्गारानुमानतः । वनिर्यदृच्छया लब्धः, स संवादिभ्रमो मतः ॥५२०|| गोदावर्युदकं गङ्गोदकं मत्वा विशुद्धये । संप्रोक्ष्य शुद्धिमाप्नोति, स संवादिभ्रमो मतः ॥५२१॥ ज्वरेणाप्तः संनिपातं भ्रान्त्या नारायणं स्मरन् । मृतः स्वर्गमवाप्नोति, स संवादिभ्रमो मतः ॥ ५२२॥ प्रत्यक्षस्यानुमानस्य, तथा शास्त्रस्य गोचरे । उक्तन्यायेन संवादि-भ्रमाः सन्ति हि कोटिशः ॥५२३॥ अन्यथा मृत्तिकादारु-शिलाः स्युर्देवताः कथम् । अग्नित्वादिधियोपास्याः, कथं वा योषिदादयः ॥ ५२४ || अयथावस्तुविज्ञानात् फलं लभ्यत ईप्सितम् । काकतालीयतः सोऽयं, संवादिभ्रम उच्यते ॥५२५॥ ग्रन्थत्रयी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठातत्त्वम् स्वयं भ्रमोऽपि संवादी, यथा सम्यक् फलप्रदः । ब्रह्मतत्त्वोपासनापि, तथा मुक्तिफलप्रदा' ॥ ५२६ ॥ तथा चाऽऽहार्यरूपायाः प्रतिमायां धियोऽप्यथ । भक्तिश्च निर्जरा मुक्तिः, संवादित्वात् फलं मतम् ॥५२७॥ प्रत्यभिसन्दधानस्य, यथा चित्रितकामिनीम् । प्रादुर्भावो विकारादे-स्तथातो निर्विकारता ॥५२८॥ तंत्र चाऽशुभसंकल्पात् पापबन्धो यथा तथा । मूर्तौ च शुभसंकल्पाद्, ध्रुवं पुण्यपरम्परा ॥५२९॥ इत्थं विधिप्रतिष्ठायाः, पूजनातत्फलं प्रति या प्रयोजकता बोध्या, कृत्रिमप्रतिमासु सा ॥५३०|| शाश्वतेषु तु बिम्बेषु तथाऽनादिप्रतिष्ठया । बोध्या प्रतिष्ठितत्वस्य प्रत्यभिज्ञा प्रयोजिका ॥ ५३१ ॥ शिष्टस्याचारतस्तत्र, तथैव विधिबोधनात् । शास्त्रे नयोपदेशाख्ये, यदाह वाचकाग्रणीः ॥ ५३२॥ तत्कारणेच्छाजनक-ज्ञानगोचरबोधकाः । विधयोऽप्युपयुज्यन्ते, तेनेदं दुर्मतं हतम् ||५३३॥ प्रतिष्ठाद्यनपेक्षायां, शाश्वतप्रतिमार्चने । अशाश्वतार्चापूजायां को विधिः किं निषेधनम् ॥५३४॥ पूजादिविधयो ज्ञान - विध्यङ्गित्वं यदाश्रिताः । शाश्वताशाश्वतार्चासु, विभेदेन व्यवस्थिताः ||५३५ ॥ तत्त्वमेतस्य तद्वृत्तौ, ज्ञेयं विस्तरतोऽथवा । नयोपनिषदि ग्रन्थे, जगद्गुरुविनिर्मिते ॥५३६॥ प्रतिष्ठितस्य बिम्बस्य, पूजा च क्रियतेऽर्हतः । भक्त्या सुपुष्पधूपाद्यै- बहुधा सा यदाह च ॥५३७॥ ४५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ग्रन्थत्रयी पूजा प्रतिष्ठितस्येत्थं, बिम्बस्य क्रियतेऽर्हतः । भक्त्या विलेपनस्नान-पुष्पधूपादिभिः शुभैः ॥५३८॥ सा च पञ्चोपचारा स्यात्, काचिदष्टोपचारिका । अपि सर्वोपचारा च, निजसंपद्विशेषतः ॥५३९॥ इयं न्यायोत्थवित्तेन, कार्या भक्तिमता सता । विशुद्धोज्ज्वलवस्त्रेण, शुचिना संयतात्मना ॥५४०॥ पिंडक्रियागुणोदारै-रेषा स्तोत्रैश्च संगता । पापग परैः सम्यक्-प्रणिधानपुरःसरैः ॥५४१।। कायादियोगसारैवं, त्रिधाऽन्यापि मताऽर्चना । तच्छुद्धयुपात्तचित्तेन, तदतिचारवजिता ॥५४२॥ काययोगप्रधानाधा, विघ्नोपशमनी मता । वचोयोगप्रधानाऽन्या, मताऽभ्युदयसाधनी ॥५४३।। मनोयोगप्रधाना च, परा निर्वाणसाधनी । मनोवाक्कायशुद्धया च, कृतास्ताः सत्फलावहाः ॥५४४॥ आद्ययोश्चारुपुष्पाद्या-नयनैतन्नियोजने । अन्त्यायां मनसा सर्वं, सम्पादयति सुन्दरम् ॥५४५।। नामान्तरेण विद्वद्भि-रेताश्चैवापि कीर्तिताः । आद्या समन्तभद्रा स्या-द्योगावञ्चकयोगिनाम् ॥ ५४६॥ द्वितीया सर्वभद्रा स्यात् क्रियावञ्चकयोगिनाम् । सर्वसिद्धिफला चान्त्या, फलावञ्चकयोगिनाम् ॥ ५४७॥ सात्त्विक्यादिप्रभेदेन भक्तिरप्युदिता त्रिधा । सात्त्विकी राजसी चैव, तामसी च यदाह च ॥५४८॥ सात्त्विकी राजसी भक्ति-स्तामसीति त्रिधाऽथवा । जन्तोस्तत्तदभिप्राय-विशेषादर्हतो भवेत् ॥५४९॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रतिष्ठतत्त्वम् अर्हत्सम्यग्गुणश्रेणि-परिज्ञानैकपूर्वकम् । अमुञ्चता मनोरङ्ग-मुपसर्गेऽपि भूयसि ॥५५०॥ अर्हत्सम्बन्धिकार्यार्थं सर्वस्वमपि दित्सुना । भव्याङ्गिना महोत्साहात्, क्रियते या निरन्तरम् ॥५५१॥ भक्तिः शक्त्यनुसारेण, निःस्पृहाशयवृत्तिना । सा सात्त्विकी भवेद्भक्ति-र्लोकद्वयहितावहा ॥५५२॥ यदैहिकफलप्राप्ति-हेतवे कृतनिश्चया । लोकरञ्जनवृत्त्यर्थं राजसी भक्तिरुच्यते ॥५५३।। द्विषदां यत्प्रतीकार-भिदे या कृतमत्सरम् । दृढाशयं विधीयेत, सा भक्तिस्तामसी भवेत् ॥५५४।। रजस्तमोमयी भक्तिः, सुप्रापा सर्वदेहिनाम् । दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः शिवावधि सुखावहा ॥५५५॥ उत्तमा सात्त्विकी भक्ति-मध्यमा राजसी पुनः । जघन्या तामसी ज्ञेया, नादृता तत्त्ववेदिभिः ॥५५६॥ पूजा देवाधिदेवस्य, दृष्टिनैर्मल्यकारिणी । ध्यानधारा ततः शुद्धा, समाधिश्च ततः परा ॥५५७॥ युष्मदस्मत्पदोल्लेखा-भावतोऽभेदबुद्धितः । किञ्चिदगोचरं ज्योति-श्चिन्मयं भासते ततः ॥५५८॥ इलिका भ्रमरीध्यानाद, भ्रमरीत्वं यथाऽश्नुते । तथा ध्यायन् परात्मानं, परमात्मत्वमाप्नुयात् ॥५५९॥ अज्ञानध्वान्तविध्वंसे, ज्ञानाञ्जनस्पृशा दृशा । आत्मन्येव हि पश्यन्ति, परमात्मानमञ्जसा ॥५६०॥ अत एव च योऽर्हन्तं, स्वद्रव्यगुणपर्यवैः । वेदात्मानं स एव स्वं, वेदेत्युक्तं महर्षिभिः ॥५६१॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ग्रन्थत्रयी जिनचैत्यं जिनबिम्बं, जिनार्चा जिनदर्शनम् । यः कुर्याद्भावतस्तस्य, शिवावधि सुखावलिः ॥५६२॥ इत्थं संक्षेपतश्चेदं, प्रतिष्ठातत्त्वमीरितम् । सद्गुरूणां प्रभावेन, विस्तृतं बोध्यमन्यतः ॥५६३॥ निराकारोऽपि भक्तैक-कृपया धृतमूर्तिकः । श्रीवीरः शिवदो भूयात्, श्रीकदम्बपुरीस्थितः ॥५६४॥ अनिद्रमुनिवृन्दैर-प्याराध्यपदपङ्कजः । सर्वलब्धिनिधानं श्री-गौतमो मेऽस्तु सिद्धिदः ॥५६५।। गाम्भीर्योदयमर्यादा-स्थैर्यधैर्यादिसद्गुणैः । जयत्वब्धिरिवाचार्यो-नेमिसूरिर्जगद्गुरुः ॥५६६।। जीयानेमीति नामापि, पावनं भव्यदेहिनाम् । धर्मवृक्षस्य सद्बीजं, सर्वाभीष्टार्थसिद्धिदम् ॥५६७॥ श्रीतपागच्छनाथस्य, सूरीणां चक्रवर्तिनः । सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य, तीर्थसाम्राज्यशालिनः ॥५६८।। तस्य पट्टधरः पूज्यः, सर्वशास्त्रविशारदः । सूच्यग्रवेधकप्रज्ञो-जयत्युदयसूरिराट् ॥५६९।। तस्य पट्टधरः सूरि-नन्दनश्चेदमुक्तवान् । प्रमादस्खलितं चात्र, सद्भिः शोध्यं कृपापरैः ॥५७०॥ अङ्काष्टाङ्कविधौ वर्षे, वैक्रमे फाल्गुने सिते । तृतीयायां शुभे सोमे, प्रतिष्ठाया महोत्सवे ॥५७१॥ अचिन्त्यपुण्यशालिश्री-नेमिसूरिप्रभावतः । कादम्बकमहातीर्थ-पुनरुद्धारवासरे ॥५७२।। श्रीकदम्बपुरीमध्ये, स्वपरस्मृतिहेतवे । ग्रन्थोऽयं पूर्णतामापद्-भव्योऽतः शिवमाप्नुयात् ॥५७३॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहं नमः ॥ श्रीस्तम्भनपतिपार्श्वनाथाय नमः ॥ श्रीमहावीरस्वामिने नमः ॥ सर्वलब्धिसम्पन्नश्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-शासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवर्ति-जगद्गुरु-तपागच्छाधिपति-भट्टारकाचार्य श्रीमद्विजयनेमिसूरिभगवद्भ्यो नमः ॥ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ नत्वा श्रीस्तम्भनाधीश, नेमिसूरिं च सद्गुरुम् । आचेलक्यस्य सम्बन्धि, किञ्चित्तत्त्वं वितन्यते ॥१॥ इह हि तीर्थकरानाश्रित्याऽऽचेलक्यविचार प्रस्तूयते । तत्र कल्पकिरणावल्यां महोपाध्यायाः श्रीमन्तो धर्मसागरगणिनः-तच्च तीर्थकरमाश्रित्य चतुर्विंशतेरपि तेषां देवेन्द्रोपनीतदेवदूष्यापगमे तदभावादेवे'त्याहुः । कल्पसुबोधिकायां महोपाध्यायाः श्रीमन्तो विनयविजयगणिनस्तु-तच्च तीर्थेश्वरानाश्रित्य प्रथमान्तिमजिनयोः शक्रोपनीतदेवदूष्यापगमे सर्वदाऽचेलकत्वम्, अन्येषां तु सर्वदा सचेलकत्वमेव । यच्च किरणावलीकारेण चतुर्विशतेरपि जिनानां शक्रोपनीतदेवदूष्यापगमेऽचेलकत्वमुक्तं तच्चिन्त्यम्'उसभेणं अरहा कोसलिए संवच्छरं साहिअंचीवरधारी होत्थ' त्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवचनात्, 'सको अ लक्खमूलं सुरदूसं ठवइ सव्वजिणखंधे । वीरस्स वरिसमहिअं सया वि सेसाण तस्स ठिइ' ॥१॥ त्ति सप्ततिशतस्थानकवचनाच्चेति ज्ञेयमि'त्याहुः । अथाऽत्र 'दुविहो होइ अचेलो संताचेलो असंतचेलो य । तित्थगर असंतचेला संताचेला भवे सेसा ॥' इति बृहत्कल्पषष्ठोद्देशकभाष्यवचनम् । तवृत्तिश्चैवम्-'द्विविधो भवत्यचेलः । तद्यथा-सदचेलोऽसदचेलश्च । तत्र तीर्थकरा असदचेलाः । देवदूष्यपतनानन्तरं सर्वदैव तेषां वस्त्राभावात् । शेषाः सर्वेऽपि जिनकल्पिकादिसाधवः सदचेला भवेयुः । जघन्यतोऽपि रजोहरणमुखवस्त्रिकालक्षणोपकरणद्वयसम्भवा'दिति । एवं पञ्चाशकेऽपि - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी 'दुविहा एत्थ अचेला संतासंतेसु होति विण्णेया । तित्थगरऽसंतचेला संताचेला भवे सेसा ॥' इति वचनम् । 'द्विविधा-द्विप्रकारा अत्राऽऽचेलक्यविचारे अचेला-निर्वाससः सदसत्सुविद्यमानाऽविद्यमानेषु, चेलेष्विति गम्यम्, भवन्ति-स्युः विज्ञेया-ज्ञातव्याः । तत्र तीर्थकराजिनाः असच्चेलाः सन्तोऽचेला भवन्ति, शक्रोपनीतदेवदूष्यापगमानन्तरम् । तथा सद्भिर्वस्त्रैरचेलाः सन्तोऽचेलाः भवेयुः-स्युः शेषा:-जिनेभ्योऽन्ये साधवः' इति तवृत्तिः श्रीमदभयदेवसूरिभगवत्पादीया । - तत्र प्रथमपक्षानुसारिण:-'तीर्थकरा-जिना असच्चेलाः सन्तोऽचेला भवन्ति, शक्रोपनीतदेवदूष्यापगमानन्तर मिति वचनेन नाऽनगारवदाचेलक्यं तीर्थाधिपानामौपचारिकं किन्तु वास्तवमेव । तच्च भवत्यसति वस्त्रे, असत्ता चाऽपगमे देवदूष्यस्येति सर्वेषां जिनानां देवदूष्यापगमं तदनन्तरं चाऽसदचेलकत्वरूपं वास्तवमचेलकत्वं मन्यन्ते । द्वितीयपक्षानुसारिणस्तु-तीर्थकराणां यदि आचेलक्यं स्यात्तदा वास्तवमेव असदचेलकत्वरूपम् । यथा-चरमजिनपतेराद्यदिन एव गतेऽपि वस्त्रार्धेनाऽऽचेलक्यं, किन्तु साधिकसंवत्सरादूर्ध्वं सर्वथाऽपगतवस्त्रत्वे । शेषमुनीनां तु न तथेति प्रतिपादनपरं'तित्थगर असंतचेला' इत्यादिवचनमिति । नैतावद्वचनबलेन द्वाविंशतिजिनानामप्यचेलकत्वस्थापनसाहसं सफलमिति द्वाविंशतिजिनानां सर्वदा सचेलकत्वमेव, प्रथमान्तिमयोश्च जिनयोः सचेलकत्वमचेलकत्वं च मन्यन्ते इति । ____ अत्राऽपरे तु 'सर्वं वाक्यं सावधारणं भवतीति न्यायात् 'तित्थगर असंतचेला' इत्यत्राऽपि किमप्यवधारणं वाच्यम् । न चैवशब्दं विना कथमवधारणं स्यादिति वाच्यम्। क्वचिदेवशब्दं विनाऽप्यवधारणप्रतीतेः सर्वजनप्रसिद्धत्वात् । अत एव च'कम्ममणाहारे' इत्यत्र षडशीतिप्रकरणे एवकारं विनापि 'कार्मणमेवैकमनाहारके, न शेषयोगाः, असम्भवा'दित्यवधारणम् । केचित् 'कार्मणमनाहारकेष्वेवे'ति वाऽवधारणं मन्यन्ते प्रेक्षावन्तः । तत्र-'कार्मणमेवाऽनाहारके' इत्यत्र अनाहारके कार्मणकाययोगान्ययोगयोगव्यवच्छेदो बोध्यते । अनाहारकमार्गणायां कार्मणादन्यो योगो न भवतीति भावः । 'अनाहारकेष्वेव कार्मण' मित्यत्र तु कार्मणकाययोगेऽनाहारकभावान्यभावयोगव्यवच्छेदो बोध्यते । अनाहारकान्यवृत्तित्वाभाववान् अनाहारकवृत्तित्ववांश्च कार्मणकाययोगः-इति हि तत्र बोधः । यथा-'पृथिव्यामेव गन्धः' इत्यत्र पृथिव्यन्यसमवेतत्वाभाववान पृथ्वीसमवेतत्ववांश्च गन्धः-इति बोधः । तथा च कार्मणकाययोग आहारकमार्गणायां न Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ भवतीति भावः । ननु, तत्र 'कार्मणकाययोगोऽनाहारके भवत्येवे'ति कथं नावधारणम् । न चाऽयोग्यवस्थायामनाहारकस्याऽपि सतः कार्मणकाययोगाभावान्न तथाऽवधारणमिति वाच्यम्। भवत्येवेत्यत्रैवकारेणाऽयोगव्यवच्छेदबोधने हि तथाऽवधारणं न स्यात्, तदाऽनाहारके कार्मणाऽयोगव्यवच्छेदस्य बोधात् । कार्मणाऽयोगव्यवच्छेदश्चाऽनाहारके कार्मणाऽव्यभिचरिततारूपस्तस्य चाऽयोग्यवस्थायां बाधात् । परं न तत्रैवकारस्याऽयोगव्यवच्छेदरूपाऽवधारणार्थकत्वम्, विशेषणसङ्गतैवकारस्यैवाऽयोगव्यवच्छेदरूपावधारणार्थकत्वात् । यथा-शङ्खः पाण्डुर एवेत्यत्र शङ्के पाण्डुरत्वाऽयोगव्यवच्छेदबोधः । कार्मणकाययोगोऽनाहारके भवत्येवेत्यत्र तु एवकारस्य क्रियासङ्गतत्वेनाऽत्यन्तायोगव्यवच्छेद एवार्थः । तथा च, यथा 'नीलं सरोजं भवत्येवे'त्यत्र सरोजत्वसामानाधिकरण्येन सरोजे नीलभवनकर्तृत्वात्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधनेऽयोग्यवस्थायामनाहारकस्य कार्मणकाययोगाभावेऽपि बाधकाभावात् । यद्यनाहारकत्वावच्छेदेनैव कार्मणकाययोगसत्ताकर्तृत्वाऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधो भवेत् तदैव तथा बाधसम्भवात् । तथा च कार्मणमनाहारके भवत्येवेति कुतो नाऽवधारणमिति चेत् । अत्रोच्यते-नीलं सरोजं भवत्येवेत्यत्र तु कदाचित्रीलत्वगुणवदभिन्नं यत्सरोजं तत्कर्तृका सत्तेति बोधः । कदाचित्तु अन्यादृशगुणसंयुक्तमित्यपि गम्यते । इति अत्यन्तायोगव्यवच्छेदो निर्बाधः । अत्र तु न तथा । कदाचिदनाहारके कार्मणकाययोगः कदाचित्तु अन्यादृशयोगोऽपीति बोधाभावात् । प्रत्युत, अनाहारके कदाचिदस्ति कार्मणकाययोगः कदाचित्तु अयोग एव-न कोऽपि योग इति बोधः । इति नाऽत्राऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदस्य निर्बाधता । इति न कार्मणमनाहारके भवत्येवेति कृतमवधारणमिति । किञ्च, क्रियासङ्गतैवकारार्थस्याऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदस्य न सर्वत्राऽन्वयितावच्छेदकसामानाधिकरण्येनाऽन्वयः, किन्तु क्वचिदन्वयितावच्छेदकावच्छेदेनाऽप्यन्वयः । यथा-'ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवे'त्यत्र अर्थग्रहणकर्तृत्वात्यन्तायोगव्यवच्छेदस्याऽन्वयिताऽवच्छेदकज्ञानत्वावच्छेदेनैवाऽन्वयः, सर्वस्यापि ज्ञानस्यार्थग्राहकत्वादेव । न हि सरोजं यथा नीलमपि भवति अनीलमपि भवति तथा ज्ञानमर्थग्राहकमपि अनर्थग्राहकमपि भवति, येन नीलं सरोजं भवत्येवेतिवत् ज्ञानमर्थं गृह्यत्येवेत्यत्र ज्ञानत्वसामानाधिकरण्येनाऽर्थग्राहकत्वात्यन्तायोगव्यवच्छेदान्वयः स्यात् । किन्तुक्तप्रकारेणाऽन्वयितावच्छेदकज्ञानत्वावच्छेदेनैव । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी इत्थं चाऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदोऽपि क्वचिदयोगव्यवच्छेद एव पर्यवसितः । ज्ञानत्वावच्छेदेनाऽर्थग्राहकत्वात्यन्तायोगव्यवच्छेदस्य ज्ञानेऽर्थग्राहकत्वायोगव्यवच्छेदस्य च शब्दभेदेऽप्यर्थभेदाभावात् । ५२ एवं येऽन्ययोगव्यवच्छेदमात्रमेवकारार्थं मन्यन्ते तेषामपि 'नीलं सरोजं भवत्येवे'त्यत्र तो धर्मिणि लक्षणया नीलभवनकर्त्रन्ययोगव्यवच्छेदस्य यथा सरोजत्वसामानाधिकरण्येनाऽन्वयबोधः, न तथा 'ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवे' त्यत्राऽपि ज्ञानत्वसामानाधिकरण्येन तिने धर्मिणि लक्षणयाऽर्थग्राहकाऽन्ययोगव्यवच्छेदान्वयबोधः । किन्तु अन्वयितावच्छेदकज्ञानत्वावच्छेदेनैवाऽर्थग्राहकाऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधः । सम्भवपरवाक्यस्याऽन्वयितावच्छेदकसामानाधिकरण्येनाऽन्ययोगव्यवच्छेदान्वये नियामकत्वेऽपि ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवेत्यादेः नियमपरवाक्यस्याऽन्वयितावच्छेदकावच्छेदेनैवाऽन्ययोगव्यवच्छेदान्वये नियामकत्वात् । एवं चाऽन्ययोगव्यवच्छेदोऽपि 'ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवे 'त्यत्राऽयोगव्यवच्छेद एव पर्यवसितः । ज्ञानत्वावच्छेदेनाऽर्थग्राहकान्ययोगव्यवच्छेदस्य ज्ञानेऽर्थग्राहकत्वायोगव्यवच्छेदस्य चाऽभिन्नार्थकत्वात् । एवं कार्मणमनाहारके भवत्येवेत्यत्राऽपि अत्यन्तायोगव्यवच्छेदस्याऽन्ययोगव्यवच्छेदस्य वा माऽयोगव्यवच्छेदपर्यवसानाऽऽशङ्का प्रासाङ्क्षीदिति न तथाऽवधारणमिति । तथा चैवशब्दं विनाऽपि व्यवच्छेदार्थकावधारणप्रतीतिर्भवत्येवेति तु सिद्धमेव निराबाधम् । अत एव च वैयाकरणानामपि 'कृत्तद्धितसमासाश्च' इत्यत्र 'समासग्रहणं नियमार्थम्' इत्यत्र विनाऽप्येवशब्दं नियमरूपावधारणसिद्धान्तः । न चाऽत्र समासे पाक्षिक्यां प्रातिपदिकसंज्ञायाः प्राप्तेरभावात् कथं नाम नियमः । युगपद्धि समास - समासेतरपदसङ्घातयोः 'अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिक' मिति सूत्रं प्राप्तमिति परिसङ्ख्यैव भवितुमर्हतीति वाच्यम् । "विधिरत्यन्तमप्राप्तौ नियमः पाक्षिके सति । तत्र चाऽन्यत्र च प्राप्तौ परिसङ्ख्येति गीयते ॥" इत्यनेन पूर्वतन्त्रानुसारिभिर्नियम- परिसङ्ख्ययोर्भेदेन परिभाषणेऽपि वैयाकरणालङ्कारिकाणां पाक्षिकप्राप्ति- युगपत्प्राप्तिरूपस्याऽवान्तरविशेषस्याऽविवक्षणात्रियमोऽपि परिसङ्ख्यैव, परिसङ्ख्यापि नियमशब्देनैवोच्यत इति सिद्धान्तादिति । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ ५३ एवं वैदिका अपि 'ऋतौ स्वदारानुपेया'दित्यादौ एवकारं विनाऽप्ययोगव्यवच्छेदरूपैवकारार्थपर्यवसिते नियमे विधेस्तात्पर्य कल्पयन्ति । न तत्र स्वदारगमनादेरिष्टसाधनत्वे विधेस्तात्पर्यम् । स्वदारगमनादेलौकिकप्रमाणावगतेष्टसाधनताकत्वेनाऽविधेयत्वात् । प्रमाणान्तराऽप्राप्तप्रापकस्यैव श्रौतविधित्वात् । यथा- 'स्वर्गकामो यजेते'त्यादौ । तत्र यागादेः प्रमाणान्तरेणाऽप्राप्तेरिति । एवं-'पञ्च पञ्च नखान् भुञ्जीते'त्यादावपि विनैवैवकारमन्ययोगव्यवच्छेदरूपैवकारार्थपर्यवसन्नायां परिसख्यायां विधेस्तात्पर्य कल्पयन्ति । तेनाऽत्राऽपीष्टसाधनत्वे विधेस्तात्पर्य भोजनस्य रागप्राप्तत्वेनाऽविधेयत्वात् । नाऽपि नियमे, पञ्चनखानां पञ्चानामभोजनस्य प्रत्यवायहेतुत्वे मानाभावात् । न चैवं 'ऋतौ स्वदारानुपेयादि'त्यादावपि नियमो न स्यात् । ऋतौ स्वदारगमनाद्यभावस्य प्रत्यवायहेतुत्वे मानाभावादिति वाच्यम् । 'ऋतावुपेयात् स्वां भार्यामन्यथा भ्रूणहा भवे'दित्यादिनिन्दार्थवादबलादऋतुस्वदारगमनाद्यभावस्य प्रत्यवायहेतुता व्यवस्थित्यैव तत्र तद्विधेर्नियमपरत्वकल्पनाऽऽवश्यकत्वादिति । परिसङ्ख्यापि तत्र न शशादिपञ्चविधान् पञ्चनखानेव भुञ्जीतेत्याकारा, पञ्चनखभिन्नस्यौदनादेर्भोजनस्य निषिद्धत्वे प्रमाणाभावात् । किन्तु 'पञ्चैव पञ्चनखान भुञ्जीते'त्याकारा । तेन शशादिपञ्चभिन्नानां पञ्चनखानां भोजनं प्रत्यवायहेतुरित्येव तत्र वाक्यार्थ इति । केचित्तु-'लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्तु जन्तोर्न हि तत्र चोदना । व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञ-सुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ॥' ___इति वचनैदम्पर्यमाकलयद्भिः 'ऋतौ स्वदारानुपेया' दित्यादावपि परिसङ्यैव स्वीक्रियते । ऋतुभिन्नकाले गमनं प्रत्यवायहेतुः, ऋतुकाले च गमनाभावोऽपि न प्रत्यवायहेतुरित्येव हि तत्र तात्पर्यार्थ इति भावः । इत्यलं प्रसङ्गेन । ___अथेत्थम्-'तित्थगर असंतचेला' इत्यत्र कीदृशमवधारणं कार्यम् ? किं तीर्थकरा एवाऽसदचेला इति वा, तीर्थकरा असदचेला एवेति वा ? तत्र-प्रथमकल्पे तीर्थकरेतराऽवृत्ति यदसदचेलकत्वं तादृशाऽसदचेलकत्ववन्तस्तीर्थकरा इति बोधः । इति तीर्थकरेभ्योऽन्यस्मिन्नसदचेलकत्वसम्बन्धव्यवच्छेदः । तीर्थकरत्वव्याप्यमसदचेलकत्वमिति तात्पर्यार्थः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ग्रन्थत्रयी द्वितीयकल्पे तु तीर्थकरेष्वसदचेलकत्वाऽयोगव्यवच्छेदबोधात्-अयोगःसम्बन्धाभावस्तस्य व्यवच्छेदो-निवृत्तिरिति द्वाभ्यां निषेधाभ्यां प्रकृतार्थदाद्यबोधनेनाऽव्यभिचारिताऽसदचेलकत्ववन्तस्तीर्थकरा इति बोधः । ये त्वन्ययोगव्यवच्छेदमात्रमेवकारार्थ इति मन्यन्ते तदभिप्रायेण तु, यथा-'शङ्खः पाण्डुर एवे'त्यत्र शके शङ्खत्वावच्छेदेन पाण्डुरान्ययोगव्यवच्छेदबोधः । तथाऽत्र तीर्थकरेषु तीर्थकरत्वावच्छेदेनाऽसदचेलकत्वान्ययोगव्यवच्छेदबोधः । उभयत्राऽपि तीर्थकरत्वव्यापकमसदचेलकत्वमिति तात्पर्यार्थः । तत्र पूर्वोक्तप्रथमपक्षानुसारिभिर्न प्रथमकल्प आदरणीयः । तस्य स्वाभिमतसिद्ध्यक्षमत्वात् । तथा हि-'सर्वेषामपि जिनानामसदचेलकत्व'मिति हि तेषामभिमतम् । तच्च न प्रथमकल्पेन सिद्ध्यति । प्रथमकल्पस्य हि 'तीर्थकरा एवाऽसदचेला' इत्यस्य तीर्थकरभिन्नेष्वसदचेलकत्वनिवृत्तावेव तात्पर्यात् । किञ्च तीर्थकराणामपि केषाञ्चित् सचेलकत्वस्य सदचेलकत्वस्य वाऽभ्युपगमेऽपि प्रथमकल्पार्थस्य निराबाधमेव घटनान्न स्वाभिमतार्थसिद्धिरिति 'तीर्थकरा असदचेला एवे'ति द्वितीयकल्पः स्वीकर्तव्यः । अथ सोऽपि कथं समीचीनतामभ्युपेयात् ? यतः तीर्थकराणां देवदूष्यानपगमं यावदसदचेलकत्वं वा सदचेलकत्वं वा सचेलकत्वं वा स्यात् ? । न तावदसदचेलकत्वम्। असदचेलकत्वस्य वास्तविकाऽचेलकत्वरूपत्वेन तस्य च सर्वथा चेलस्याऽविद्यमानत्व एव भावात् । सति देवदूष्ये तदसम्भवात् । तथा च तीर्थकरेष्वसदचेलकत्वाऽयोगव्यवच्छेदरूपस्य प्रकृतकल्पार्थस्य बाध एव, नाऽप्यत एव सदचेलकत्वं सचेलकत्वं वेत्यपि । किञ्च-'तीर्थकरा असदचेला एवे'त्यनेन कल्पेन तीर्थकाराणामसदचेलकत्वभिन्नस्य सदचेलकत्वस्य सचेलकत्वस्य च व्यवच्छित्तावपि तीर्थकरभिन्नानामसदचेलकत्वाव्यवच्छित्तेः तीर्थकरभिन्नानामपि असदचेलकत्वं प्राप्तम् । तच्च बाधितम् । न च तीर्थकरभिन्नानामपि जिनकल्पिकानामस्त्येवाऽसदचेलकत्वमिति वाच्यम् । जिनकल्पिकानामपि जघन्यतो रजोहरण-मुखवस्त्रिकासम्भवेन सचेलकत्वस्यैव परिभाषणात् । तथा च बाधितार्थाव्यवच्छेदकत्वेनाऽपि नाऽस्य कल्पस्याऽऽदरणीयतेति। ___ स्यादेतत् 'तीर्थकरा असदचेला एवे'ति कल्पस्य न हि निर्विशेषिततीर्थकरत्वावच्छेदेनाऽसदचेलकत्वबोधे तात्पर्य किन्तु देवदूष्यापगमविशेषणविशेषिततीर्थकरत्वावच्छेदेनैव तद्बोधे तात्पर्यमिति । व्यपगतदेवदूष्यास्तीर्थकरा असदचेला एवेत्येवंरूपार्थ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ एव द्वितीयः कल्पः । अत एव च श्रीमद्भिरभयदेवसूरिभगवत्पादैः 'तित्थगरऽसंतचेला' इति पञ्चाशकवचनेऽनुक्तमपि तस्य व्याख्याने 'शकोपनीतदेवदूष्यापगमानन्तर मिति शेषीकृतम् । तथा च तीर्थकराणां देवदूष्यानपगमं यावदसदचेलकत्वाभावेऽपि न क्षतिः । नाऽपि देवदूष्यानपगमं यावत् सदचेलकत्वस्य सचेलकत्वस्य वाऽपि स्वीकारे प्राक्प्रदर्शितः स्वाभिमतकल्पविरोधगन्ध इति चेत् । न । तथाऽपि चतुर्विशतेरपि जिनानामचेलकत्वमिति स्वाभिमतासिद्धेः । अचेलकत्वं ह्यत्राऽसदचेलकत्वमेवाऽभिमतम् । तच्च देवदूष्यापगम एव । स च सर्वेषामसिद्ध एव । चतुर्विशतेरपि जिनानां देवदूष्यापगमो भवतीत्यत्र प्रमाणाभावात् । चतुर्विंशतावपि जिनेषु केषाञ्चित्सर्वदा देवदूष्यसद्भावाभ्युपगमेऽपि व्यपगतदेवदूष्यास्तीर्थकरा असदचेला एवेति स्वाभिमतकल्पाविरोधाच्च । पूर्वोक्तबाधितार्थाव्यवच्छेदाच्चेति। अथ पूर्वोक्तद्वितीयपक्षानुसारिणः प्रष्टव्याः । उक्तकल्पद्वये किं प्रथमः कल्पोऽभिमतो भवतां द्वितीयो वेति । तत्र प्रथमकल्पस्य स्वपक्षे दोषाकरत्वेऽपि स्वपक्षपुष्टावकिञ्चित्करत्वमेव । द्वितीयः कल्पस्तु स्वपक्षे दोषाधायक एव । तथा हि"द्वाविंशतेर्जिनानां सर्वदा सचेलकत्वमेव । प्रथमान्तिमयोश्च देवदूष्यानपगमं यावत् सचेलकत्वम्, देवदूष्यापगमे चाऽसदचेलकत्वरूपमचेलकत्व-" मिति हि स्वपक्षः । तस्य च 'तीर्थकरा असदचेला एवे' ति कल्पेन तीर्थकरेष्वसदचेलकत्वायोगव्यवच्छेदस्य असदचेलकत्वभिन्नस्य सचेलकत्वादेनिवृत्तेश्च बोधनेन स्पष्ट एव बाध इति । न च, द्वितीयकल्पस्याऽयं तात्पर्यार्थः । तथा हि-तीर्थकरा यद्यचेलका भवेयुस्तदाऽसदचेलका एव । अन्यथा तु सचेलका एव, न तु मुनिवत् सदचेलकाः । यथा-'संताचेला भवे सेसा' इत्यस्य शेषमुनयो यद्यचेलका भवेयुस्तदा सदचेलका एव, न तु तीर्थकरवदसदचेलकाः । इतरथा सचेलका एवेति तात्पर्यार्थः । तथा च, यथा शेषमुनीनां सचेलकत्वं सदचेलकत्वं चेति द्वयमपि 'संताचेला भवे सेसा' इति सूत्रस्य तात्पर्यविषयस्तथा 'तित्थगर असंतचेला' इत्यस्याऽपि सूत्रस्य तीर्थकराणां सचेलकत्वमसदचेलकत्वं चेति द्वयमपि तात्पर्यविषयः । इति दूरापास्तमेव पूर्वोक्तं स्वपक्षदोषाधायकत्वं द्वितीयपक्षानुसारिणां द्वितीयकल्पस्येति, वाच्यम् । तीर्थकृतां सदचेलकत्वस्याऽपि प्रमाणविषयत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात्, तादृशतात्पर्यार्थकल्पनायां प्रमाणाभावाच्च । तदा हि तादृशतात्पर्यार्थकल्पना स्याद् यदा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी तीर्थकराणां सचेलकत्वमचेलकत्वं चेति द्वयमपि केनचित् प्रमाणान्तरेण सिद्धं स्यात् । न च किमपि तादृशं प्रमाणान्तरमिति । न चैवं तर्हि 'संताचेला भवे सेसा' इत्यस्याऽपि द्वितीयकल्पे 'शेषा मुनयः सदचेला एवे'त्येतावत्येवाऽर्थे तात्पर्य स्यात्, न तु पूर्वोक्तरूपेऽर्थे । एवं च सति तादृशस्याऽर्थस्य बाधितत्वमेव शेषमुनीनां सदचेलकत्वमात्रस्याऽभावादिति वाच्यम् । _ 'संताचेला भवे सेसा' इत्यस्य शेषमुनयो यद्यचेलका भवेयुस्तदा सदचेलका एवेति पूर्वोक्तार्थ एव तात्पर्यकल्पनात् । तत्र हि शेषमुनीनां - 'आचेलको धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अचेलो वा ॥' एवम्-'एगयाऽचेलए होइ सचेले वावि एगया ॥' इत्यादिवचनेन सचेलकत्वमचेलकत्वं चेति द्वयमपि सिद्धमेवेति । पूर्वोक्ततादृशार्थकल्पनायां प्रतिबन्धाभावात् । न चैवं तीर्थकराणां सचेलकत्वमसदचेलकत्वं .. चेति द्वयं सिद्धमस्तीति न तत्र तथा तात्पर्यकल्पनेति । नन्वेवं तीर्थकरस्याऽपि भगवतः - 'उसभे णं अरहा कोसलिए संवच्छरं साहियं चीवरधारी होत्थ'त्ति । एवं-'समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी हुत्था । तेण परं अचेले ।' इत्यादिवचनेन सचेलकत्वमचेलकत्वं चेति द्वयमपि सिद्धमेवाऽस्तीति कथं न 'संताचेला भवे सेसा' इति सूत्रवत् 'तित्थगर असंतचेला' इत्यस्याऽपि सूत्रस्य पूर्वोक्ततात्पर्यार्थकल्पनेति चेत् । न । पूर्वोक्तवचनेनाऽचेलकत्वस्य सिद्धावपि सचेलकत्वस्यासिद्धेः । न च, चीवरधारित्वकथनेनैव सचेलकत्वस्य सिद्धिरिति वाच्यम् । चीवरधारित्वस्य सचेलकत्वाऽव्यभिचारित्वाभावात् । मध्यमजिनसाधुरूपसपक्षप्रथमान्तिमजिनसाधुरूपविपक्षोभयवृत्तित्वेन तस्य साधारणानैकान्तिकत्वात् । एतेन 'सया वि सेसाण तस्स ठिइ' इति वचनेनाऽपि सचलेकत्वसिद्धिः परास्ता । वस्त्रस्थितेः पूर्वोक्तरीत्या सचेलकत्वनियतत्वाभावात् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ ५७ न च, सामान्यवस्त्रस्थितेः सपक्षविपक्षोभयवृत्तित्वेन माऽस्तु सचेलकत्वसाधकत्वं, देवदूष्यरूपवस्त्रावस्थितेस्तु सचेलकत्वसाधकता स्यादित्यपि वाच्यम् । देवदूष्यवस्त्रावस्थितावपि तीर्थकराणां सचेलकत्वव्यवहारे प्रमाणाभावात् । किञ्च, द्वितीयपक्षानुसारिणां यत् पूर्वोक्तजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-सप्ततिशतस्थानकवचनाभ्यां द्वाविंशतेजिनानां सचेलकत्वस्थापनं, तदपि विचारणीयम् । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवचनेन सह सप्ततिशतस्थानकवचनस्य विरोधशालित्वभासनात् । यतः श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवचनेन श्रीनाभेयस्य भगवतः साधिकसंवत्सरादूर्ध्वमचेलकत्वं लभ्यते । सप्ततिशतस्थानकवचनेन तु श्रीवीरस्यैव भगवतोऽचेलकत्वं लभ्यते, न शेषाणामिति । तथा च द्वितीयपक्षानुसारिणां सप्ततिशतस्थानकवचनप्रामाण्यानुसारेण त्रयोविंशतेरपि जिनानां सचेलकत्वं वाच्यं स्यात्, न तु द्वाविंशतेरेव । न च, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवचनेन श्रीनाभेयस्यापि भगवतोऽचेलकत्वलाभेन 'सया वि सेसाण तस्स ठिई' इत्यत्र 'शेषाणा'मित्यस्य द्वाविंशतेरेव जिनानामित्यर्थस्यैव कल्पनान्न कोऽपि विरोध इति वाच्यम् । 'सक्को अ लकखमूलं सुरदूसं ठवेइ सव्वजिणखंधे । वीरस्स वरिसमहियं सया वि सेसाण तस्स ठिई ॥' इत्यत्र 'वीरस्स' इत्यनेन श्रीवीरस्यैव गृहीतत्वेन 'सेसाण' इत्यस्य श्रीवीरातिरिक्तजिनत्रयोविंशतिपरत्वकल्पनाया एवौचित्यात् । 'सक्को अ लक्खमुल्लं'त्ति-शक-इन्द्रश्च लक्षमूल्यं, 'सुरदूसं ठवइ सव्वजिणखंधे' त्ति-देवदूष्यवस्त्रं स्थापयति सर्वजिनस्कन्धे । 'वीरस्स वरिसमहियंति-वीरस्यचरमजिनपतेर्वर्षमधिकं-किञ्चिदधिकं तदेव दर्शयति । उक्तं च कल्पसूत्रे-'संवच्छरं साहिअं मासं चीवरधारी होत्था' इति । मासैकेनाऽधिकं वर्ष श्रीवीरेण वस्त्र धृतम् । 'सया वि सेसाण तस्स ठिई'ति-शेषाणां-शेषजिनानां-(२३)त्रयोविंशतिजिनानां सदाऽपियावज्जीवमपि, तस्य वस्त्रस्य स्थितिज्ञेयेति गाथार्थः । इत्येवं वृत्तिकृताऽपि तथैव व्याख्यातत्वाच्च । ___ न च, तस्मिन् विरुद्धांशेऽनाभोगस्यैव कल्पना । तर्हि 'सया वि सेसाण तस्स ठिई' इत्यत्र सर्वांशेऽप्यनाभोगकल्पना किं न स्यात्, तादृशकल्पनानिवारकस्य कस्याऽप्यभावात् । क्रियतां वा येन केनाऽपि प्रकारेण विरोधपरिहारः । परं न तेन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी वचनेन सचेलकत्वस्यैव सिद्धिः, सदचेलकत्वस्याऽपि कल्पनाविषयत्वात् । न च, साधकप्रमाणाभावेऽपि बाधकप्रमाणाभावादेव देवदूष्यवस्त्रावस्थितौ सत्यां तीर्थकराणां सचेलकत्वं सेत्स्यतीति वाच्यम् । बाधकप्रमाणाभावमात्रस्य सचेलकत्वनिश्चयाऽहेतुत्वात् । प्रत्युत साधकबाधकप्रमाणाभावसहकृतस्य साधारणधर्मादेर्दर्शनस्य परस्परविरुद्धावमर्शरूपसंशयप्रयोजकत्वेनाऽत्र च साधक-बाधकमानाभावसद्भाववत् सचेलकाचेलकोभयवृत्तिचीवरधारित्वरूपसाधारणधर्मज्ञानस्याऽपि सत्त्वात् देवदूष्यानपगमं यावत्तीर्थकराः सचेलका अचेलका वा, इत्याकारकस्य संशयस्यैवापत्तेः । संशयश्चाऽत्र मानसो वा शाब्दबोधरूपो वेति त्वन्यदेतत् । किञ्चाऽत्र सदचेलकत्वरूपाऽचेलकत्वप्रतिपादकं बाधकप्रमाणमपि वक्ष्यमाणवचनरूपमस्त्येवेति तीर्थकराणां देवदूष्यावस्थितावपि सचेलकत्वं तु दुरापास्तमेवेत्यलम्॥ ___अथाऽयं चाऽत्र परमार्थः प्रतिभाति । तथा हि-देवदूष्यवस्त्रावस्थितावपि तीर्थङ्कराणां न सचेलकत्वं किन्तु अचेलकत्वमेवोक्तमध्यात्ममतपरीक्षायां श्रीमद्भिायविशारदन्यायाचाः । तथा हि - उवयारेण अचेला सेसमुणी सव्वहा जिणिंदा य । खंधाओ देवदूसं चवइ तओ चेव आरब्भ ॥ १ ॥ इति ॥ भगवन्तो हि वस्त्र-पात्रकार्यकारिलब्धिभाजो निरुपमधृतिसंहनना-श्चतुर्ज्ञानातिशययुक्ता विनाऽपि वस्त्र-पात्रादिकं संयमं निर्वोढुं क्षममाणा न कारणाभावात् तदुपाददते । केवलं सवस्त्र-पात्रो धर्मः प्ररूपणीय इति देवेन्द्रेण स्कन्धाहितं देवदूष्यमादाय निष्क्रामन्तीति देवदूष्यवस्त्रावस्थिति यावत्तेऽप्युपचारतोऽचेलास्ततः परं मुख्यया वृत्त्येति तत्त्वम् । जिनकल्पिक-स्वयम्बुद्धादयस्तु सर्वकालमुपचरिताचेला एव, उपधिद्वयस्य सर्वदा भावात् । अत एव तानुद्दिश्याऽयमुपधिविभागः - . दुग-तिग-चउक्क-पणगं णव-दस-इकारसवे(सेव) बारसगं । एए अट्ठ विगप्पा जिणकप्पे हुंति उवहिस्स ॥ १ ॥ इति वचनोक्तो द्रष्टव्यः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ ५९ तत्र रजोहरणं मुखवस्त्रिका चेति द्विविध उपधिः केषाञ्चित् । अन्येषां तु कल्पेन सह त्रिविधः । कल्पद्वयेन तु सह चतुर्विधः । कल्पत्रयेण सह पञ्चविधः, शक्तिवैचित्र्यात् पात्रमात्रविषयकलब्धिभाजां द्रष्टव्यः । येषां तु वस्त्रमात्रविषयिणी लब्धिस्तेषां रजोहरणं, मुखवस्त्रिका, पत्तं पत्ताबंधो पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाइ रत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ १ ॥ इति गाथयोक्तः सप्तविधः पात्रनियोग इत्येवं नवविध उपधिः । तदुभयविषयकलब्धिरहितानां च यथाशक्ति कल्पेन सह दशविधः । कल्पद्वयेन सहैकादशविधः । कल्पत्रयेण तु समं द्वादशविध उपधिर्ज्ञेय इति । इति तद्वृत्तिः । इदमेव चाऽत्रोक्तमुपचरितव्यवहारादचेलकत्वं सदचेलकत्वमिति गीयते । तथा च तीर्थकराणां सचेलकत्वप्रतिपादनं तु निष्प्रमाणमेव प्राय: प्रतिभाति; देवदूष्यवस्त्रावस्थिति यावत् सदचेलकत्वरूपाचेलकत्वस्य पूर्वोक्तवचनेन सद्भावात् । देवदूष्यपतनानन्तरं तु असदचेलकत्वरूपाचेलकत्वस्य पूर्वोक्तबृहत्कल्पादिवचनेन सद्भावाच्चेति । तदिदमेव च बृहत्कल्पाद्युक्तमसदचेलकत्वरूपाचेलकत्वं निरुपचरितव्यवहारादचेलकत्वमिति गीयत इति । नन्वध्यात्ममतपरीक्षायां देवदूष्यावस्थितिं यावत्तीर्थकराणां सदचेलकत्वरूपौपचारिकाचेलकत्वोक्तावपि तदानीं वस्त्रसद्भावेन निरुपचरिताचेलकत्वाभावेन मुख्यया वृत्त्या सचेलकत्वस्यैव सद्भावेन सचेलकत्वकथनेऽपि को दोष इति चेत् । सत्यं; परं न तीर्थकराणां सचेलकशब्दोल्लेखेन सचेलकत्वव्यवहारः प्रायः कुत्राऽप्युपलभ्यते । तथाऽप्यत्र देवदूष्यावस्थितिं यावत् तीर्थकृतां सचेलकत्वस्याऽपि प्रतिपादनाग्रहे न किमपि बाधकं प्रतिभाति । नन्वेवं सति प्रथमान्तिमजिनतीर्थसाधूनामपि श्वेतमानोपेतत्वादिविशेषणविशिष्टस्याऽपि वस्त्रस्य सद्भावेनौपचारिकाचेलक्यसत्त्वेऽपि मुख्यया वृत्त्या सचेलकत्वस्यैव सद्भावेन सचेलकत्वव्यवहारः स्यात् । न च सोऽप्युपलभ्यते प्राय: कुत्राऽपि । 'द्वाविंशतिजिनतीर्थसाधूनां सचेलकत्वमपि अचेलकत्वमपि, प्रथमान्ति-मजिनतीर्थसाधूनां चाऽचेलकत्वमेवे'त्येवं रूपस्यैव व्यवहारस्य तत्र तत्रोपलम्भादिति चेत् । ww Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी न । पूर्ववद् बाधकाप्रतिसन्धानादिष्टापत्तेः । _ 'आचेलको धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स ।' इति बृहत्कल्पवचनेनाऽऽचेलक्यव्यवहारस्यैवौत्सर्गिकत्वेऽपि 'सचेले याऽवि एगया' इत्युत्तराध्ययनोक्तेः कारणिकस्य, "जिनकल्पिकादयस्तु सदैव सचेलका इति दर्शयन्नाह' इत्यष्टमबोटिकनिह्नवाधिकारप्रसङ्गे विशेषावश्यकबृहद्वृत्त्यवतरणग्रन्थेन च प्रासङ्गिकस्य सचेलकत्वव्यवहारस्याऽप्युपलम्भाच्चेत्यलम् । एवं चाऽध्यात्ममतपरीक्षोक्तेस्तीर्थकराणां सदचेलकत्वमप्यस्तीति सिद्धम् । इत्थं च 'तित्थगर असंतचेला' इत्यत्र 'तीर्थकरा एवाऽसदचेला' इत्यवधारणं कार्य; तीर्थकरभिन्नेषु असदचेलकत्वस्याऽभावात् । न तु 'तीर्थकरा असदचेला एवेति । उक्तरीत्या तीर्थकरेषु सदचेलकत्वस्याऽपि व्यवस्थापनात् । नन्वत्राऽप्यवधारणेऽसदचेलकत्वस्य तीर्थकरत्वव्याप्यत्वं लभ्यते । तच्च नोपपद्यते । प्रत्येकबुद्धेषु तीर्थकरत्वाभावेऽपि असदचेलकत्वस्य सद्भावात् । तेषां द्रव्यलिङ्गस्याऽभावात् । अत एव च तेषां 'रूप्पं पत्तेयबुहा' इत्यनेन तृतीयभङ्गतुल्यत्वमुक्तं सङ्गच्छते । अन्यथा द्रव्यलिङ्गसद्भावे गच्छगत-गच्छनिर्गत-स्थविरकल्पिकजिनकल्पिकादिसाधुवत् 'रूप्यं शुद्धं टङ्कं समाहताक्षर'मिति चतुर्थभङ्गतुल्यतैवोच्यते इति चेत् । न। प्रत्येकबुद्धानां द्रव्यलिङ्गाभावस्याऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालभावित्वेन तावन्मात्रकालं यावत् सतोऽप्यसदचेलकत्वस्याऽल्पकालीनत्वेनाऽविवक्षयैव दोषाभावात्। अत एव च स्याद्वादकल्पलतायामपि निरुपचरितव्यवहारेण च स्कन्धाद् देवदूष्यापगमे भगवत्स्वेवाऽचेलकत्वव्यवस्थितेरित्यत्रैवकारोक्तिः सङ्गच्छते । 'मुख्यं तु अचेलत्वं जिनानामेवाऽऽसी'दिति सावधारणं विशेषावश्यकवृत्तिवचनमपि च निर्दोषम् । न च प्रत्येकबुद्धानां द्रव्यलिङ्गाभावस्याऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालीनत्वे किं प्रमाणमिति वाच्यम् । 'तृतीयभङ्गतुल्याः प्रत्येकबुद्धा अन्तर्मुहूर्तमानं कालमगृहीतद्रव्यलिङ्गाः' इति Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ श्रीमत्सुगृहीतनामधेयभगवद्हरिभद्रसूरिपादीयावश्यकवृत्तिवचनरूपप्रमाणस्य जागरूकत्वादिति ॥ ___ अथ देवदूष्यपतनं किमाद्यान्तिमयोरेव जिनयोरुताऽन्येषामपि जिनानामिति विचार्यते। तत्र 'तीर्थकरा असदचेलाः, देवदूष्यपतनानन्तरं सर्वदैव तेषां वस्त्राभावात्' इति बृहत्कल्पवृत्तिवचनात्, 'तीर्थकरा जिनाः असच्चेला: सन्तोऽचेला भवन्ति शक्रोपनीतदेवदूष्यापगमानन्तर'मिति पञ्चाशकवृत्तिवचनाच्च सर्वेषामपि जिनानां देवदूष्यपतनं भवतीत्यवसीयते । सामान्येनैव तीर्थकराणामसदचेलकत्वस्य देवदूष्यपतनस्य च तत्रोक्तत्वात् । अन्यथा हि, इदं च येषां तीर्थकराणां देवदूष्यपतनं भवति तानाश्रित्य बोध्यमित्यर्थकमपि अन्यद् वाक्यं प्रयुज्येत । किञ्च, 'तित्थगर असंतचेला' इत्यत्र बाधकाभावेन तीर्थकरत्वावच्छेदेनैवाऽसदचेलकत्वस्याऽन्वयो वाच्यः । न च तादृशान्वये नियामकाभाव इति वाच्यम् । असति बाधके उद्देश्यतावच्छेदकावच्छेदेन विधेयान्वय इति नियमस्यैव सर्वानुमतस्य नियामकत्वात् । न चाऽत्र किञ्चिद् बाधकमानमस्ति । इत्थं च तीर्थकरत्वस्याऽसदचेलकत्वव्याप्यतालाभात्, 'तीर्थकरा असदचेला एवे'त्यवधारणमपि नाऽसङ्गतमिति बोध्यम् । देवदूष्यापगमविशेषणविशेषिततीर्थकरत्वावच्छेदेनैवाऽसदचेलकत्वबोधे तात्पर्याच्च नाऽत्र पूर्वोक्तोऽपि दोषः । इत्थं चैतदभिप्रायकमेव 'असंता चेला तित्थगरा । ते एगंतेण असंताचेला चेव' इति पञ्चकल्पचूर्णिवचनावधारणमपि । एवं 'सव्वहा जिणिंदा य खंधाओ देवदूसं चवइ तओ चेव आरब्भ' इत्यध्यात्ममतपरीक्षायामपि सामान्येनैव जिनेन्द्राणां देवदूष्यच्यवनस्य प्रतिपादितत्वेन सर्वेषामपि जिनानां देवदूष्यच्यवनं भवतीति प्रतिभाति । किञ्च, सूत्रे हि तीर्थकृतामचीवरत्वं कदाचित् सर्वदा वा ?। कदाचिच्चेत् को वा किमाह ? कदाचिदस्माकमप्यस्याऽभिमतत्वात् । अथ सर्वदा । तन्न । 'सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा उ चउवीस मिति वचनादिति । श्रीउत्तराध्ययनबृहद्वत्तौ अचेलपरीषहाध्ययने । महार्थकर्मप्रवादपूर्वोद्धृतपरीषहाध्ययनाधीतस्याऽपि सचेल त्वस्याऽनङ्गीकर्तृन् प्रति तत्साधकवचनोपक्रमे इत्युक्तौ सर्वेषामपि तीर्थकृतां सर्वदाऽचीवरत्वस्य निषेधात्, कादाचित्काचीवरत्वस्य चाऽभ्युपगमात्, सर्वेषामपि जिनानां Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी देवदूष्यपतनं भवतीति किं न प्रतीयते ? इति । ननु श्रीकल्पसूत्रे यथा भगवतो महावीरस्य साधिकसंवत्सरं यावत् चीवरधारित्वस्य, ततः परं चाऽचेलकत्वस्य प्रतिपादनेन देवदूष्यच्यवनं ज्ञापितं, न तथाऽन्येषां जिनानां तत्तच्चरिताधिकारे किञ्चित्कालं चीवरधारित्वं, ततः परं चाऽचेलकत्वं प्रतिपादितमित्यत एव कथं न निश्चीयते-यत्-सर्वेषां जिनानां देवदूष्यपतनं न भवतीति ?। एवं चैतदनुसार्येव - 'वीरस्स वरिसमहिअं सया वि सेसाण तस्स ठिई' ॥ इति सप्ततिशतस्थानकवचनमपीति चेत् । न । एवं श्रीनाभेयस्याऽपि जिनस्य श्रीकल्पसूत्रेऽचेलकत्वस्याऽज्ञापितत्वेन सर्वदैव देवदूष्यावस्थितिलाभेन पूर्वोक्तजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवचनस्य श्रीकल्पसूत्रेण सह विरोधरूपदूषणापत्तेः । एकशास्त्रावलम्बनेनाऽपरशास्त्रदूषणस्य महाशातनारूपत्वोक्तेश्च उभयशास्त्रसमाधानस्यैव न्याय्यत्वात् । प्रत्युत श्रीकल्पसूत्रादेव श्रीपार्श्वनाथप्रभृतीनामपि श्रीवीरस्वामिवत् कञ्चित् कालं चीवरधारित्वं ततः परमचेलकत्वं च कथं न प्रतीयते ?। प्रायो यथायोगं पूर्वपूर्वसूत्रस्योत्तरोत्तरानुवृत्तिकल्पनात् । अत एव च पार्श्वनाथादिचरितं सक्षेपवाचनयैव तत्रोक्तं न तु श्रीवीरचरित्रवत् विस्तरवाचनयाऽपि । यत्र यत्राऽधिकारसाम्यं तत्र तत्र प्रायः पूर्वसूत्रस्यैवाऽनुवृत्तेः । यत्र यत्र नक्षत्र-मासगृहवासपर्याय-च्छद्मस्थपर्याय-केवलिपर्याय-गणधरादिसङ्ख्याप्रभृत्यधिकारे भिन्नता तत्र तत्रैव च विशेषसूत्ररचनात् । तथा च यथा श्रीवीरस्यभगवतः श्रीपार्श्वनाथजिनस्य च मिथश्छद्मस्थपर्यायकालस्य भिन्नतया तत्प्रतिपादकं सूत्रमपि 'समणे भगवं महावीरे साइरेगाई दुवालसवासाइं निच्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे' इति श्रीवीरचरित्राधिकारे 'पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाई निच्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे' इति श्रीपार्श्वचरित्राधिकारे च भिन्न भिन्नं, तथा चीवरधारित्वाचेलकत्वप्रतिपादकं सूत्रं यथा श्रीवीरचरित्राधिकारे श्रीवीरविषयकं भिन्न, न तथा श्रीपार्श्वचरिताधिकारे श्रीपार्श्वविषयकं तत्प्रतिपादकं सूत्रं भिन्नमस्ति । __यदि श्रीपार्श्वनाथस्य भगवतः सर्वदैव देवदूष्यावस्थितिः स्यात् तदा तत्प्रतिपादकमपि श्रीवीरचरित्राधिकारवत् श्रीपार्श्वचरिताधिकारेऽपि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ 'पासे णं अरहा पुरिसादाणीए जावज्जीवं चीवरधारी हुत्था' इति भिन्नं सूत्रं कर्तव्यं स्यात् । न चैतत्कृतमित्यत एव ज्ञायते यत् श्रीवीरचरित्रोक्तस्यैव श्रीवीराचेलकत्वप्रतिपादकस्य 'समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं चीवरधारी हुत्था तेण परं अचेलए' इति सूत्रस्य प्रायः शक्रस्तव-स्वप्नपाठकादिसूत्रवत् श्रीपार्श्वचरित्रेऽप्यनुवृत्तिरिति । एवं श्रीनेमिनाथचरित्रे श्रीनाभेयचरित्रे चाऽपि तदचेलकत्वप्रतिपादकसूत्रस्य तथाऽनुवर्तनं बोध्यम् । एतेन-ननु श्रीकल्पसूत्रे श्रीवीरस्यैव साधिकसंवत्सरादूर्ध्वमचेलकत्वं प्रतिपादितं, न शेषजिनानाम् । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ तु श्रीनाभेयस्याऽपि तत्प्रतिपादितमिति कथं न परस्परं विरोधः ?। यतो यदि श्रीनाभेयस्याऽप्यचेलकत्वं श्रीकल्पसूत्रसम्मतं स्यात्, तदा श्रीवीरचरित्राधिकारे तत्प्रतिपादकसूत्रवत् श्रीनाभेयचरिताधिकारेऽपि तत्प्रतिपादकसूत्रमवश्यं स्यात् । न चैतदस्तीति न तत् श्रीकल्पसूत्रसम्मतमितीत्यपि निरस्तमेव । श्रीवीरचरित्राधिकारास्थाचेलकत्वप्रतिपादकसूत्रस्यैव प्राय: श्रीनाभेयचरित्राधिकारेऽप्यनुवृत्तेः, श्रीनाभेयस्याऽप्यचेलकत्वस्य श्रीकल्पसूत्र-सम्मतत्वादेवेति । इत्थं च श्रीपार्श्वनाथादिचरित्रेऽपि प्रायस्तदनुवृत्तेरेव श्रीपार्श्वनाथप्रभृतीनामप्यचेलकत्वमस्त्येवेति श्रीकल्पसूत्रादपि निर्विरोधमेव कथं न प्रतीतिगोचरः स्यात् ? किञ्च अच्छिद्रपाणयस्तीर्थकराः । अपि चन्द्रादित्यौ यावच्छिखा गच्छति, न तु पानीयबिन्दुरप्यधः पतति । चतुर्विधज्ञानबलाच्च ते संसक्तासंसक्तमन्नं सत्रसमत्रसं च जलादि ज्ञात्वा निर्दोषमेवोपाददते इति नैषां पात्रधारणे गुणः । वस्त्रं तु दीक्षाकाले तीर्थकरा अपि गृह्णन्ति । यदाहुः - 'सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं । न य नाम अण्णलिंगे न य गिहिलिगे कुलिंगे वा ।' पारमषं च - 'सेवेमि जे अईया जे अणागया जे अ वट्टमाणा ते सव्वे "सोवहिधम्मो देसियव्वो"त्ति कट्ट एगं देवदूसमादाय निक्खमिसु निक्खामंति निक्खमिस्संति वा ।' 'प्रव्रज्योत्तरकालं च सर्वबाधासहत्वान्न वस्त्रेण प्रयोजनमिति यथाकथञ्चित्तदपैतु नाम' इति श्रीयोगशास्त्रतृतीयप्रकाश-चतुर्थशिक्षाव्रतरूपातिथिसंविभागव्रताधिकारवृत्तिवचनेन । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी निरुप(व)मधिइ-संघयणा चउनाणाइसयसत्तसंपण्णा । अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जियपरिसहा सव्वे ॥ १ ॥ तम्हा जहुत्तदोसे पावंति न वत्थ-पत्तरहिया वि। . तदसाहणं ति तेसिं तो तग्गहणं न कुव्वंति ॥ २ ॥ तह वि गहिएगवत्था सवत्थतित्थोवएसणत्थं ति । अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुएऽचेलया हुंति ॥ ३ ॥ तथाऽपि सवस्त्रमेव तीर्थं सवस्त्रा एव साधवस्तीर्थे चिरं भविष्यन्ति इत्यस्याऽर्थस्योपदेशनं ज्ञापनं तदर्थं गृहीतैकवस्त्राः सर्वेऽपि तीर्थकृतोऽभिनिष्क्रामन्तीति । तस्मिश्च वस्त्रे च्युते काऽपि पतितेऽचेलका वस्त्ररहितास्ते भवन्ति न पुनः सर्वदा । इति तृतीयगाथार्थः ॥ इति महाभाष्यवचनेन च स्पष्टमेव प्रतिभाति यत् सर्वेषामपि जिनानां देवदूष्यच्यवनं भवतीति । 'सया वि सेसाण तस्स ठिई' इति तु यदुक्तं तन्न विद्यः, बहुश्रुता वा तदभिप्रायं विदन्तु इति ॥ एवं चाऽत्राऽयं निष्कृष्टार्थः प्रतिभाति । तथा हि-सर्वेषामपि तीर्थकराणामचेलकत्वं सचेलकत्वं चेति द्वयमेवाऽस्ति । तत्र देवदूष्यवस्त्रावस्थिति यावत् सदचेलकत्वरूपमौपचारिकमचेलकत्वं सचेलकत्वं वा बोध्यम् । ततः परं चाऽसदचेलकत्वरूपं पारमार्थिकाचेलकत्वमेव बोध्यमित्यलम् ।। इदं चाऽस्माभिः यथामति शास्त्रतात्पर्यमाकलय्य यथाप्रतिभातं दर्शितम् । परमिदमेव सत्यम्, द्वाविंशतेस्तीर्थकृतां सर्वदा सचेलकत्वादिप्रतिपादनं तु नियुक्तिकमेव निष्प्रमाणमेवेत्येवंविधो नाऽस्माकमाग्रहः । आग्रहो ह्यस्माकं 'तमेव सच्चं णिस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं' इत्यत्रैवेत्येवं प्रतिपादयन्ति । तत्त्वं तु केवलालोकशालिनो भगवन्त एव विदन्तीति दिक् ॥ नन्वेवमप्यत्र सचेलकत्वाचेलकत्वविवादे पक्षद्वयान्यतरस्य वस्तुनः शास्त्रबाधितत्वात् तदन्यतरश्रद्धानवतां शास्त्रबाधितार्थश्रद्धाने नाऽऽभिनिवेशिकमिथ्यात्वप्रसङ्गः । शास्त्रबाधितार्थश्रद्धानेऽप्यभिनिवेशित्वाभावे गोष्ठामाहिलादीनामपि तन्न स्यात् । उक्तं च तेषामाभिनिवेशिकम् । यदुक्तं व्यवहारभाष्ये षष्ठोद्देशके - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ 'मतिभेएण जमाली, पुव्वग्गहिएण होइ गोविंदो । संसग्गि सावगभिक्खू गोट्ठामाहिल अभिनिवेसे ॥ मतिभेदेन मिथ्यादृष्टिर्जायते यथा जमालिः । पूर्वगृहीतेन भवति मिथ्यादृष्टिर्यथा गोविन्दः । संसर्या यथा श्रावकभिक्षुः । अभिनिवेशेन यथा गोष्ठामाहिलः । तानि च निदर्शनानि सुप्रतीतानीति न कथ्यन्ते, इति चेत् । न । तथा वचने महाशातनाप्रसङ्गात् । एवं च श्रीजिनभद्र-सिद्धसेनादिप्रावचनिकप्रधानपुरुषाणामपि सिद्धोपयोगविषयक-विप्रतिपत्तिविषयकैकैकपक्षश्रद्धानवतामभिनिवेशित्वप्रसङ्गाच्च । एतच्चाऽनिष्टतमम् । अत एव चैतद्विषये समाहितं नयामृततरङ्गिण्यां श्रीमद्भिायविशारद-न्यायाचायः - 'यदपि प्रावचनिकानां जिनभद्र-सिद्धसेनप्रभृतीनां स्वस्वतात्पर्याविरुद्धविषये सूत्रे परतीर्थिकवस्तुवक्तव्यताप्रतिबन्धप्रतिपादनं तदप्यभिनिवेशनं चेत् तदा प्रावचनिकक्षतिरिति । तत्र परतीर्थिकपदं भिन्नपरम्परायाततात्पर्यानुसारि । परं अत एव नयाभिप्रायेण प्रवृत्तत्वादिति हेत्वभिधानोपपत्तिः, अत एव च नयाभिप्रायेणोभयसमाधानमस्माभिनिबिन्दौ विहितमिति ।' किञ्च किमिदं बाधितार्थश्रद्धानं अनाभोगाद् वा? आभोगाद् वा ? नाऽऽद्यः । अनाभोगाद् वितथश्रद्धानेऽपि सम्यग्दृष्टित्वाव्याहतेः । अनाभोगाद् गुरुनियोगाद् वा सम्यग्दृष्टेरपि वितथश्रद्धानस्य शास्त्रभणितत्वात् । तथा चोक्तं कर्मप्रकृतौ - 'सम्मट्ठिी जीवो उवइळं पवयणं तु सद्दहइ । सद्दहइ असब्भावे अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ १ ॥' इति । अस्याऽयमर्थः :- सम्यग्दृष्टिर्जीवो गुरुभिरुपदिष्टं प्रवचनं नियमात् यथावत् श्रद्धत्ते एव । तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च । यः पुनः सम्यग्दृष्टिरप्यसद्भावमसद्भूतं प्रवचनं श्रद्दधाति सोऽवश्यमजानन् स्वयं सम्यक्परिज्ञानविकलः सन् यद्वा गुरोस्तथाविधसम्यक्परिज्ञानविकलस्य मिथ्यादृष्टेर्वा जमालिप्रख्यस्य नियोगादाज्ञापारतन्त्र्यात् । नाऽन्यथा। ___अत्र च साहजिकमज्ञानं ज्ञानावरणविपाकोदयसान्निध्यमात्रादुपजायमानं न सम्यक्त्वप्रतिबन्धकम् । गुरुनियोगजनितं तु मध्यस्थस्य विनेयस्य नानामतदर्शिनो मिथ्यात्वप्रदेशोदयमहिम्ना विप्रतिपत्त्युपनीतप्रवचनार्थं संशयरूपं सम्यक्त्वप्रतिबन्धाभिमुखमपि 'तमेव सच्च' मित्याद्यालम्बनरूपोत्तेजकप्रभावान्न सम्यक्त्वं प्रतिबद्धमलमित्यज्ञानाद गुरुनियोगाद् वाऽसद्भूतार्थश्रद्धानेऽपि भावतो जिनाज्ञाप्रामाण्याभ्युपगन्तुर्न शुभात्मपरिणाम Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ रूपसम्यक्त्वोपघात इति भावनीयम् । एतेन यदुच्यते केनचित् - 'परपक्षनिश्रितस्य सर्वथा सम्यक्त्वं न भवत्येवे 'ति । तदपास्तं द्रष्टव्यम्, 'अनभिनिविष्टस्य मिथ्यादृष्टिनिश्रयाऽपि तदुपनीतासद्भूतार्थश्रद्धानस्याऽस्वारसिकत्वेन स्वारसिकजिनवचन श्रद्धानाविरोधित्वात् । अभिनिविष्टस्य तु स्वपक्षपतितस्य परपक्षपतितस्य वा मिथ्यादृष्टित्वानपायादित्यलं प्रपञ्चेनेति । धर्मपरीक्षायामप्युक्तं, 'अनाभोगाद् गुरुनियोगाद् वा सम्यग्दृष्टेरपि वितथ श्रद्धानभणनात्' । तथा चोक्तमुत्तराध्ययननिर्युक्तौ 'सम्मद्दिट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहइ | सद्दहइ असब्भावं अणाभोगा गुरुणिओगा वा ॥' इति । ग्रन्थत्रयी अत एव चाऽऽभिनिवेशिक मिथ्यात्वलक्षणेऽपि धर्मपरीक्षायां न्यायविशारदन्यायाचार्यैः 'सम्यग्वक्तृवचनानिवर्त्तनीयत्वार्थकस्वरसवाही 'ति विशेषणं प्रवेशितम् । विदुषोऽपि स्वरसवाहि भगवत्प्रणीतशास्त्रबाधितार्थश्रद्धानमाभिनिवेशिकमिति हि तल्लक्षणम् । अनाभोगादिजनितं वितथश्रद्धानं तु सम्यग्वक्तृवचननिवर्तनीयमेवेति अनाभोगाद् बाधितार्थश्रद्धानवतामाभिनिवेशिकमिथ्यात्वलक्षणायोगादेव न तत्प्रसङ्गः । नाऽपि द्वितीयः । आभोगाद् बाधितार्थश्रद्धानेऽपि हि न शास्त्रतात्पर्यबाधं प्रतिसन्धाय तेषां तथा श्रद्धानं नाऽपि पक्षपातेनेति पूर्वोक्ततल्लक्षणस्यैवाऽयोगान्नाऽऽभिनिवेशित्वप्रसङ्गः । लक्षणघटकस्य 'विदुषोऽपी' त्यस्य शास्त्रतात्पर्यबाधप्रतिसन्धानवत इत्यर्थकत्वात् । गोष्ठा माहिलादीनां तु शास्त्रतात्पर्यबाधं प्रतिसन्धायैव स्वरसवाहि भगवत्प्रणीतशास्त्रे बाधितार्थश्रद्धानमस्तीति तल्लक्षणयोगादाभिनिवेशिकमिथ्यात्वमव्याहतमेव तिष्ठति । एवं श्रीजिनभद्र - सिद्धसेनादयोऽपि भगवत्पादाः स्वस्वाभ्युपगतमर्थं शास्त्रतात्पर्यबाधं प्रतिसन्धायाऽपि पक्षपातेन न प्रतिपन्नवन्तः किन्त्वविच्छिन्नप्रावचनिकपरम्परया शास्त्रतात्पर्यमेव स्वाभ्युपगतार्थानुकूलत्वेन प्रतिसन्धायेति न तेऽभिनिवेशिनः । किञ्चाऽभिनिवेशित्वस्य व्यापन्नदर्शननियतत्वेन तेषामव्यापन्ननिर्मलदर्शनानामविच्छिन्नप्रभावशालित्रिकालाबाधित श्रीवतरागप्रवचनप्रकृष्टतमरागवतां पूज्यानां महापुरुषा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतं आचेलक्यतत्त्वम् ॥ णामभिनिवेशित्वोक्तेर्महानर्थकरत्वमेव केवलमिति । ननु सत्यमेवैतत् गृहीतमेवैतच्च । परं तत्र पक्षद्वयविषयकविप्रतिपत्तेः संशयप्रयोजकतया मध्यस्थश्रोतॄणां ततः शास्त्रार्थसंशये सांशयिकमिथ्यात्वापत्तिरिति चेत् । न । भगवद्वचनप्रामाण्यसंशयप्रयुक्तस्यैव शास्त्रार्थसंशयस्य सांशयिकमिथ्यात्वरूपत्वात् । मध्यस्थानां च विप्रतिपत्तेः शास्त्रार्थसंशयसम्भवेऽपि तेषां भगवद्वचनप्रामाण्यसंशयाभावात् शास्त्रार्थसंशयस्याऽपि तत्प्रयुक्तत्वाभावात् । उक्तं च श्रीमद्भिययविशारद - न्यायाचार्यैर्धर्मपरीक्षायां - 'भगवद्वचनप्रामाण्यसंशयप्रयुक्तः शास्त्रार्थसंशयः सांशयिकम्' । यथा 'सर्वाणि दर्शनानि प्रमाणं कानिचिद् वा ? | 'इदं भगवद्वचनं प्रमाणं न वा ?' इत्यादिसंशयानां मिथ्यात्वप्रदेशोदयनिष्पन्नानां साधूनामपि सूक्ष्मार्थसंशयानां मिथ्यात्वाभावो मा प्रासाक्षीदिति भगवद्वचनप्रामाण्यसंशयप्रयुक्तत्वं विशेषणम् । ते च नैवम्भूताः, किन्तु भगवद्वचनप्रामाण्यज्ञाननिवर्तनीयाः । सूक्ष्मार्थादिसंशये सति 'तमेव सच्वं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ॥ इत्याद्यागमोदितभगवद्वचनप्रामाण्यपुरस्कारेण तदुद्धारस्यैव साध्वाचारत्वात् । या तु शङ्का साधूनामपि स्वरसवाहितया न निवर्त्तते सा सांशयिकमिथ्यात्वरूपा सत्यनाचारापादिकैव । अत एव काङ्क्षामोहोदयादाकर्षसिद्धिरिति । ६७ तथा च पक्षद्वयविषयकविप्रतिपत्तिजन्यशास्त्रार्थसंशयेऽपि मध्यस्थ श्रोतॄणां भगवद्वचनप्रामाण्यस्य हृदि सद्भावेन नैव सांशयिकमिथ्यात्वप्रसङ्गोऽपीति निरवद्यमेव सिद्धमिति सङ्क्षेपः ॥ ( प्रशस्तिः ) प्रौढप्रभावसुभगा सुविशुद्धवर्णा पूर्णाभिलाषविबुधेशनिषेवणीया । वाणी कवेरिव मुदं वितनोतु पुण्या श्रीस्तम्भनाधिपतिपादनखावली वः ॥ १॥ बुधजनरुचिरम्यं नन्दितानन्दवृन्दं शमितसकलतापं बोधशुद्धिप्रकाशम् । वचनममृतसारं श्रीतपागच्छपस्याऽनघमहमभिनौमि श्रीमतो नेमिसूरेः ॥ २॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी सिद्धान्ताश्च नयाः कणाद-कपिल-व्यासाक्षपादोद्भवा मायासौनव-जैमिनीयसमया येनाऽखिला वेदिताः । तत्तन्नव्यमहार्थशास्त्ररचनासम्प्राप्तसद्गौरवः सोऽयं श्रीगुरुनेमिसूरिभगवान् भट्टारको नः श्रियै ॥३॥ तस्य पट्टधरः पूज्यः सिद्धान्तज्ञशिरोमणिः । विजयोदयसूरीशस्तस्य पट्टभृता मया ॥४॥ आचेलक्यस्य सम्बन्धि तत्त्वं किञ्चिद्विनिर्मितम् । सूरिणा नन्दनेनेदं शोध्यं सद्भिः कृपालुभिः ॥५॥ वेदाष्टाङ्केन्दुमानेऽब्दे स्तम्भतीर्थे शनौ शुभे । इषोज्ज्वलद्वितीयायां कृतमेतत् सदा श्रियै ॥६॥ . सकलजगदुद्धर्तुकामितादिसकलगुणसमूहसमन्वितानां, कलिकालात्महिताद्वितीयसाधनश्रीशत्रुञ्जय-रैवतगिरि-सम्मेतशिखर-तारङ्गगिरिप्रभृतिमहापवित्रतीर्थसंरक्षणदक्षाणां, भव्यजन्तुपुण्यप्राग्भारैकदर्शनीयकेवलज्ञान-निर्वाणाप्त्यनुपमधामानन्ततीर्थङ्करगणधरपरम्परापवित्रिततीर्थाधिराजश्रीसिद्धगिरितीर्थपवित्रितसौराष्ट्रनामदेशान्तर्गतजगत्प्रसिद्धजीवन्तस्वामित्वप्रवादश्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिप्रतिमापरिशोभितमहाप्रासादलङ्कृत-श्रीवज्रस्वाम्यादिमहापुरुषपदपवित्रितश्रीमधुमती-महुवानामनगाँ वीशाश्रीमालीज्ञातीय-श्राद्धगुणोपशोभितलक्ष्मीचन्द्राभिधजनकविशुद्धशीलाद्यलङ्कारालङ्कृत-श्राविकागुणभूषितदीपालीनामजननीलब्धजन्मनां, सुविहितश्रीभगवत्यादि -योगानुष्ठानानां, विद्यापीठादिप्रस्थानपञ्चकसमाराधनप्राप्तार्हद्धर्मसाम्राज्यसिंहासनश्रीसुधर्मस्वामि-श्रीसुस्थितसूरि-श्रीचन्द्रसूरि-श्रीसमन्तभद्रसूरि-श्रीसर्वदेवसूरि-श्रीजगच्चन्द्रसूरिप्रमुखपरम्परोपशोभितसूरिपदानां, सर्वतन्त्रस्वतन्त्राणां, शासनसाम्राज्यभाजां, सूरिचक्रचक्रवर्तिनां, जगद्गुरूणां, तपागच्छाधिपतीनां, सुगृहीतनामधेयानां, भट्टारकाचार्यश्रीमद्विजयनेमिसूरिभगवतां साम्राज्ये तत्पट्टालङ्कारसिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशारदाचार्यश्रीमद्विजयोदयसूरीशपट्टभृता विजयनन्दनसूरिणा विरचितमाचेलक्यतत्त्वं समाप्तम् ॥ लिखितं चेदं पुस्तकं मधुमतीनामपुर्यां जयतारणनिवासि-माहात्म्य(त्मा) दीपचन्द्रसूनु-शिवराजनामलेखकेन । बाणगजनिधीन्दुप्रमिते(१९८५) वैक्रमसंवत्सरे आश्विनपूर्णिमायां शुक्रवासरे ॥ ॥ शुभं भवतु ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ ॥ श्रीसकललब्धिसम्पन्नाय श्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-शासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवर्ति-जगद्गुरु-तपागच्छाधिपति-भट्टारकाचार्य - श्रीमद्विजयनेमिसूरिभगवद्भ्यो नमः ॥ आचार्यश्रीविजयनन्दनसूरिभगवत्प्रणीतः ॥ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ सेरीसकपुरोत्तंसं सप्रभावाञ्जनप्रभम् । नौमि सेरीसकं पाश्र्वं सर्वमङ्गलदायिनम् ॥ १ ॥ वन्देऽहं सूरिसम्राजं नेमिसूरिं जगद्गुरुम् । यत्कृपालेशतोऽप्यत्र सिद्धिं यामि न संशयः ॥ २ ॥ विजयोदयसूरीश-शिष्येणाऽऽतन्यते मया । पर्युषणातिथेः सम्यग्-गुर्वादेशाद् विनिश्चयः ॥ ३ ॥ प्रमादबहुलो जीवो बुद्धिनौकाऽपि नो दृढा । अगाधः श्रुतसिन्धुश्च भक्तिरेषैव केवला ॥ ४ ॥ आगमादागमापेक्षात् सम्प्रदायाद् गुरुक्रमात् । आगमाबाधितात्तात् यथाशक्ति शुभे यते ॥ ५ ॥ प्रमादाद् यत्किञ्चित् स्मरणबलमान्द्याच्च किमपि धियो वा वैकल्यात् किमपि हृदयौत्सुक्यवशतः । मयोक्तं किञ्चिद्यत् स्खलितमिह सिद्धान्तसरणेः क्षमन्तां मे सन्तस्तदनघदयाकहृदयाः ॥ ६ ॥ अत्र स्मृतस्योपेक्षानहत्वेन शिरोमणिकाव्यमनूद्यते - मान्यान् प्रणम्य विहिताञ्जलिरेष भूयो - भूयो विधाय विनयं विनिवेदयामि । दृष्यं वचो मम परं निपुणं विभाव्य भावावबोधविहितो न दुनोति दोषः ॥ १ ॥ इह हि तावत् तिथीनां गणना टिप्पनकादेव भवति । जैनटिप्पनकं च भूरिकालत एव न ज्ञायते । वर्तमानटिप्पनकानि च ब्रह्मपक्षीयत्वसौरपक्षीयत्वादिभेदेन तत्तद्देशभेदेन चानेकप्रकाराण्युपलभ्यन्ते । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ग्रन्थत्रयी न च तत्र सर्वेषु टिप्पनकेषु तिथिनैयत्यम् । कुत्रचिद् हि टिप्पनके यदा पञ्चमीक्षयस्तदा कुत्रचित् षष्ठीक्षयस्तदैव च कुत्रचित् सप्तमीक्षयोऽपि । एवं कुत्रचित् पूर्णिमाक्षयस्तदा कुत्रचित् प्रतिपदः क्षयः । एवं तिथिवृद्धावपि न तत्र तत्र टिप्पनके नैयत्यम् । एवं तिथिनक्षत्रादिघटीपलमानमप्यनियतमेव तत्र तत्र टिप्पनके । __ अथ च तत्तद्देशवासिनां तत्तद्देशीयेन भिन्नभिन्नटिप्पनकेनैव व्यवहरणे तिथ्याराधनायामनैयत्यमेव स्यात् । ततो जैनसकलसचे तत्तद्देशभेदेन तत्तट्टिप्पनकाऽनुसरणे सांवत्सरिक-चातुर्मासिक-पाक्षिका-ऽष्टम्यादिपर्वतिथ्याराधनायामनैयत्यं मा प्रासाङ्क्षीदिति कतिपयकालतः सुविहिताग्रणीभिर्मध्यदेशीयत्वादिहेतुना योधपुरीयश्रीधरीयचण्डुटिप्पनकानुसरणमेव सर्वत्र देशे तिथ्याराधनायां निर्णीतम् । तथैव चाऽनुमतं सकलग्रामनगरादिसकलसधैः । विहार-प्रतिष्ठो-पस्थापनादिमुहूर्ते तत्तद्देशीयटिप्पनकानुसरणेऽपि तिथ्याराधनायां त्वद्यापि यावत् सुविहितपरम्परात उक्तचण्डुटिप्पनकानुसारेणैव प्रायः प्रवृत्तिः । अत्र कदाचित् कारणेऽपेक्षाविशेषेण वा चण्डुटिप्पनकादन्यटिप्पनकानुसरणमपि श्रीसङ्घन क्रियत एवेत्यादि विशेषविचारश्च टिप्पनकसम्बन्धी अग्रे वक्ष्यते । अत्र तावदहोरात्रतिथीनामयं विशेषः । तथा हि-सूर्योत्पन्ना अहोरात्राः, चन्द्रोत्पन्नास्तिथयः । उक्तं च - 'सूरस्स गगणमंडल-विभागनिष्फाइया अहोरत्ता । चंदस्स हाणिवुड्डी-कएण निप्फज्जए उ तिही' ॥ इति । 'भवन्ति तिथयश्चेन्दोः कलावृद्धिक्षयोद्भवाः' इति च । एवमहोरात्रः सूर्योदयमारभ्याऽपरसूर्योदयं यावत् तावत्कालो रविवाराद्यपरपर्यायः सकललोकप्रसिद्धः । स च त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणः । तिथिश्च शास्त्रे द्वाषष्टितमभागोनाहोरात्रप्रमाणा । लौकिकटिप्पनके तु जघन्यतश्चतुष्पञ्चाशद्धटिकामिता, उत्कर्षतश्च पञ्चषष्टिघटिकामिताऽपि दृश्यते । अत्र तिथित्वं कालविशेषः । चान्द्रकलाविशिष्टकालत्वमिति यावत् । शुक्लतिथित्वं च प्रकाश्यमानचान्द्रकलाविशिष्टकालत्वं, कृष्णतिथित्वं चाऽऽव्रियमाणचान्द्रकलाविशिष्टकालत्वम् । एवं प्रकाश्यमानप्रथमादिकलाविशिष्टकालत्वं शुक्लप्रतिपदादित्वं, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ आव्रियमाणप्रथमादिकलाविशिष्टकालत्वं कृष्णप्रतिपदादित्वम् । 1 तिथौ औदयिकत्वं सूर्योदयस्पर्शित्वम् । तिथौ क्षीणत्वमप्राप्तसूर्योदयत्वं सूर्योदयास्पर्शित्वं वा । तिथौ वृद्धत्वं प्राप्तसूर्योदयद्वयत्वं सूर्योदयद्वयस्पर्शित्वमित्यपि बोध्यम् । अथाऽत्र टिप्पनकवचनं सामान्यवचनम् । तद्धि यत्र यत्र रव्यादिदिने यावद्यावद्धटिकाप्रमाणा या या तिथिः स्यात् तत्र तत्र दिने तावत्तावद्घटिकाप्रमाणा सा सा तिथिः प्रमाणमित्येवं सामान्यतो ज्ञापयति । तत्र कस्मिश्चिद्दिने एकमेव तिथि. कस्मिश्चिद्दिने तिथिद्वयं, कस्मिश्चिद्दिने तिथित्रयमपि ज्ञापयति । यतः प्रतिपदादितिथिः टिप्पनके सर्वत्र रव्यादिलक्षणे दिने नाहोरात्रव्यापिनी भवति किन्तु न्यूनाधिका च भवति । यथा गुरुवासरे प्रतिपत् साधिका अष्टपञ्चाशद्घाटिका यावत् तदनु द्वितीया । शुक्रवासरे द्वितीया षष्टिं घटिका यावत् । शनिवासरे द्वितीया द्वाचत्वारिंशत् पलानि यावत्, तदनु तृतीया । रविवासरे तृतीया साधिकामेकघटिकां यावत्, तदनु चतुर्थी । सोमवासरे चतुर्थी साधिकामेकां घटिकां यावत्, तदनु पञ्चमी । भौमवासरे पञ्चमी षोडशपलानि, तदनु तस्मिन्नेव भौमवासरे षष्ठी साधिकाः सप्तपञ्चाशद् घटिका यावत्, तदनु तत्रैव दिने सप्तमीति । ७१ - अथाऽत्र टिप्पनके गुरु-शनि रवि - सोमदिनेषु द्वयोद्वयोस्तिध्योर्विद्यमानत्वेन भौमदिने च तिसृणां तिथीनां विद्यमानत्वेन चाऽऽराधनायां कस्मिन् दिने का तिथि: प्रमाणतया व्यवहर्त्तव्या ? यथा सोमवासरे पञ्चमी तिथि: सूर्योदयात् साधिकैकघटिकातः परतोऽस्ति, भौमवासरे तु सूर्योदयादारभ्य षोडशपलानि यावदस्ति । तत्राऽऽराधनायां कस्मिन् दिने पञ्चमीत्वेन पञ्चमी तिथि: प्रमाणतया व्यवहर्त्तव्या ? किं सोमवासरे किं वा भौमवासरे ? इत्याकाङ्क्षायां तिथ्याराधनाया अव्यवस्थितत्वं मा प्रासाङ्क्षीदिति किमप्यवश्यं नियामकं वाच्यमिति तदुच्यते । तत्र नियामकवचनानि चैवम् - 'उदयंमि जा तिही सा पमाणमियराए कीरमाणीए । आणाभंगऽणवत्था-मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ १ ॥ पूआ पच्चक्खाणं पडिक्कमणं तह य नियमग्गहणं च । जीए उदेइ सूरो तीइ तिहीए उ कायव्वं ॥ २ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ग्रन्थत्रयी चाउम्मासियवरिसे पक्खिअ पंचट्ठमीसु नायव्वा । ताओ तिहिओ जासिं उदेइ सूरो न अन्नाओ" ॥ ३ ॥ तिथिश्च प्रातः प्रत्याख्यानवेलायां या स्यात् सा प्रमाणम्, सूर्योदयानुसारेणैव लोकेऽपि दिवसादिव्यवहारात् । पाराशरस्मृत्यादावपि - 'आदित्योदयवेलायां या स्तोकाऽपि तिथिर्भवेत् । सा सम्पूर्णेति मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना ॥' इत्यादीनि । उमास्वातिप्रघोषश्चैवं श्रूयते - 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा । 'श्रीवीरज्ञाननिर्वाणं कार्य लोकानुगैरिह ॥' इति । अत्र-'उदयंमि जा तिही सा पमाणम्' इत्यादेरयमर्थः-टिप्पनके यस्मिन् रव्यादिलक्षणे दिने सूर्योदयवेलायां या तिथिर्भवेत् तस्मिन् दिवसे सा तिथि:-तत्तिथित्वेनाऽऽराधनायां प्रमाणं कार्या । यथा-टिप्पनके भौमवासरे सूर्योदयवेलायां पञ्चमी वर्तते । ततो भौमवासर एव पञ्चमी पञ्चमीत्वेनाऽऽराधनायां प्रमाणं कार्या, न तु सोमवासरे । तत्र दिने टिप्पनके सूर्योदयात् साधिकैकघटिकातः परतः पञ्चम्यां सत्त्वेऽपि सूर्योदयवेलायां पञ्चम्या अभावात् । लोकेऽपि सूर्योदयानुसारेणैव दिवसादिव्यवहारात् । अन्यथा तिथ्याराधनाव्यवहारानियतत्वं प्रसज्येतेति । इयमेव चौदयिकी तिथि: उदयतिथिर्वा व्यपदिश्यते । सूर्योदयस्पर्शित्वं हि तिथावौदयिकत्वमुदयत्वं वा । औदयिक्यामेव तत्तत्तिथौ तत्तत्तिथित्वेनाऽऽराधनायां प्रामाण्यमिति फलितोऽर्थः ।। अत्र औदयिकी तिथिरुद्देश्या प्रामाण्यं च विधेयम् । असति बाधके च उद्देश्यतावच्छेदकस्य विधेयप्रयोजकत्वनियमेन उद्देश्यतावच्छेदकस्यौदयिकत्वस्य प्रामाण्यरूपविधेयप्रयोजकत्वं सिद्धम् । एवं च टिप्पनके यत्र यत्र तिथौ सूर्योदयस्पर्शित्वरूपमौदयिकत्वं तत्र तत्र तिथौ तत्तत्तिथित्वेनाऽऽराधनायां प्रामाण्यमिति प्रामाण्यस्यौदयिकत्वव्यापकत्वमपि बोध्यमिति । अत्रेदं बोध्यम् - "विधिरत्यन्तमप्राप्तौ नियमः पाक्षिके सति । तत्र चान्यत्र च प्राप्तौ परिसङ्ख्येति गीयते ॥' इत्यन्यत्रोक्तं नियमवचन१. श्रीमद्वीरस्य निर्वाणं । इति, श्रीवीरनाथनिर्वाणं । इति च क्वचित् पाठः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ स्वरूपमप्यत्रोपपद्यते । पक्षेऽप्राप्तस्यार्थस्य नियमनात् । 'उदयंमि जा तिही सा पमाणम्' इति हि वचनं न तिथेः प्रामाण्यं बोधयति, तिथिप्रामाण्यस्य टिप्पनकादेव प्राप्तत्वात् । किन्तु, आराधनायां तिथिप्रामाण्ये नियम बोधयति । नियमश्च-अप्राप्तांशपूरणम् । यतः-अष्टम्यादितिथेराराधनायामष्टम्यादितिथे: टिप्पनके दिनद्वयेऽपि सद्भावेन यस्मिन् दिने औदयिकीमष्टमी परित्यज्यानौदयिकी तामाराधयति तत्र दिने औदयिक्या अष्टम्या अप्राप्तत्वेन तद्विधानात्मका प्राप्तांशपूरणमेवानेन वचनेन क्रियते । अतो नियमवचनेऽप्राप्तांशपूरणात्मको नियम एव वाक्यार्थः । पक्षे-अप्राप्ततादृशायां औदयिकत्वेनाऽऽराधनायां प्रामाण्यविधानादेतद्वचनाभावे हि 'अट्ठमी चउद्दसी अ नियमेण हविज्ज पोसहिओ' इत्यादिवचनप्राप्ताष्टम्यादिपर्वाराधनायामौदयिकीमष्टमीमिव कदाचिदनौदयिकीमप्यष्टमी प्रमाणीकुर्यात् । सति चास्मिन् वचने औदयिक्येवाष्टमी अष्टमीपर्वाराधनायां प्रमाणीकार्येति नियमे आराधनायामनौदयिकी प्रमाणतया सर्वात्मना निवर्तते । न चानौदयिक्यां प्रामाण्यनिवृत्तिर्नेष्टेति वाच्यम् । 'इयराए कीरमाणीए आणाभंगऽणवत्था मिच्छत्तविराहणं पावे' इत्यादिनाऽनौदयिक्यां प्रत्यवायप्रदर्शनेन तत्र तन्निवृत्तेरपीष्टत्वात् । न चैवं तत्र टिप्पनकवचनस्य वैयर्थ्यमिति वाच्यम् । तिथीनां सूर्योदयस्पर्शित्वरूपौदयिकत्वतदभावनिर्णये टिप्पनकवचनस्यैव प्रामाण्यात् । यात्रादिमुहूर्ते तदुपयोगाच्चेति ।। ___अत्र पाक्षिकप्राप्ति-युगपत्प्राप्तिरूपस्यावान्तरविशेषस्याऽविवक्षणादन्यनिवृत्तिरूपनियमसाधर्म्याच्च परिसङ्ख्याया अपि नियमशब्देन व्यवहारो भवतीत्यपि बोध्यम् । ननु तथापि किं यावत्कालं टिप्पनकेऽष्टमी स्यात् तावत्कालं यावदेव तत्र दिनेऽष्टमीत्वेनाष्टमी प्रमाणीकार्या उत तदहोरात्रं यावदिति चेत् । उच्यते-अहोरात्रं यावदेव सैव तिथि: तत्तिथित्वेनाऽऽराधनायां प्रमाणीकार्या । अत एवात्र प्राक् तत्र तत्र शास्त्रे च प्रमाणतया पाराशरस्मृतिवचनमप्युपन्यस्तम् - 'आदित्योदयवेलायां या स्तोकापि तिथिर्भवेत् ।। सा सम्पूर्णेति मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना ॥' इति । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी अत्र सम्पूर्णेति - अहोरात्रव्यापिनीत्यर्थः । तथा च यस्मिन् रव्यादिलक्षणे दिवसे सूर्योदयवेलायां या तिथिर्भवेत् सा तिथिरेव तत्र दिने प्रमाणतयाऽहोरात्रव्यापिनी मन्तव्या । तदग्रेतना तिथिस्तत्र दिने यदि प्रभूताऽपि स्यात्तथापि सूर्योदयवेलायां तस्या असत्त्वेन तत्र दिने सा नैव मन्तव्या । यथा- प्रागुक्ते भौमवासरे पञ्चम्येव सम्पूर्णा मन्तव्या न तु प्रभूताऽपि षष्ठी, सूर्योदये तस्या अभावात् । ७४ नन्वेवं भौमवासरे प्रभूता वर्तमाना षष्ठ्यपि पञ्चमीत्वेनैव मन्तव्येति मिथ्याज्ञानापत्तिः, पञ्चमीत्वाभाववत्यां षष्ठ्यां पञ्चमीत्वज्ञानादिति चेत् । न । अभिप्रायापरिज्ञानात् । न हि वयं षष्ठी पञ्चमीत्वेन मन्तव्येति ब्रूमः । किन्तु यस्मिन् रव्यादिवारे सूर्योदयवेलायां या तिथि: स्यात् तस्मिन् रव्यादिदिने तद्दिनव्यापिनी सैव तिथिर्मन्तव्या नान्येति । तथा च भौमवासरे सूर्योदयवेलायां पञ्चमीसत्त्वेन भौमवासरे भौमवासरव्यापिनी पञ्चम्येव मन्तव्या न षष्ठीति । सूर्योदयवेलायां पञ्चमीमत्येव भौमदिने पञ्चमीज्ञानान्न मिथ्याज्ञानमपि । प्रत्युत तत्र दिने षष्ठीतिथिरिति मन्तव्यतायामेव मिथ्याज्ञानं स्यात्, टिप्पनके सूर्योदयवेलायां भौमे षष्ठ्यभावादिति । ननु तथापि तत्र दिने विद्यमानाऽपि षष्ठी न षष्ठीत्वेन मन्तव्या । किन्तु पञ्चमीत्वेन मन्तव्येत्यर्थादेव किं न प्राप्तमिति चेत् । नियमलक्षणानुरोधेन प्राप्यताम् नाम, तथा का नो हानि: ? । प्रत्युतेष्टापत्तिरेव तत्रार्थ इति बोध्यम् । तथा चाऽहोरात्रं यावदेव सैव तिथिः तत्तिथित्वेनाऽऽराधनायां प्रमाणतया मन्तव्येति सिद्धम् । ननु टिप्पनक औदयिक्या अपि तिथेः क्वचिदेवाहोरात्रव्यापित्वं न तु सर्वत्रेति तस्या अहोरात्रव्यापित्वमन्तव्यतायामारोपापत्तिरिति चेत् । न । इष्टापत्तेः । टिप्पनके तिथेरहोरात्रव्यापित्वाभावेऽप्याराधनायां तस्या अहोरात्रव्यापित्वमन्तव्यताया इष्टवात् । प्रमाणप्राप्तस्याऽऽरोपस्याऽदूषणत्वात्, अपि तु भूषणत्वात् । किञ्चैवमनङ्गीकारे तत्तत्तिथिनिमित्तकतत्तत्तिथिदिनसम्बन्धिपोषधादिव्रतनियमस्य टिप्पनकोक्ततत्तत्तिथिभोगकालव्यापित्वमेव त्वया स्वीकार्यम्, निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावादिति तस्याहोरात्रादिव्यापित्वं शास्त्रोक्तं व्याहन्येत वा विराध्येत वा । शास्त्रे च पौषधादिव्रतनियमस्याहोरात्रादिप्रतिबद्धत्वमेव । तथा हि-यथा पौषधस्य 'जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि' एवं 'दिवसपोसहं'पि । नवरं - 'जाव दिवसं पज्जुवासामि' त्ति भणइ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ रात्रिपौषधमप्येवम् । नवरं-'मज्झण्हाओ परओ जाव दिवसस्स अंतोमुहुत्तो ताव घिप्पइ तहा दिवसं सेसं रत्तिं पज्जुवासामि' त्ति भणइ । इत्यादिवचनैरहोरात्रप्रतिबद्धत्वं दिवसप्रतिबद्धत्वं रात्रिप्रतिबद्धत्वं वा । एवमन्येषां व्रतनियमानामपि अहोरात्रादिप्रतिबद्धत्वमेव । न तु कस्यापि तत्तत्तिथिनिमित्तकस्य व्रतनियमस्य शास्त्रे टिप्पनकोक्ततत्तत्तिथिभोगकालमात्रप्रतिबद्धत्वमस्ति । तथा चैतदपि सर्वमाराधनायां तिथेरहोरात्रव्यापित्वमन्तव्यतामेव प्रमाणयति । शास्त्रोक्ताहोरात्रादिव्यापितत्तत्तिथिनिमित्तकतत्तव्रतनियमाराधनायां तिथेनिमित्ततया तिथेरेव तत्र सर्वत्र प्रधानत्वम् । "तिथिः शरीरं तिथिरेव कारणं, तिथिः प्रमाणं तिथिरेव साधनम्" । इति लल्लोक्तिरप्यत्र भावनीया । तथा च टिप्पनके तिथेः तत्तदहोरात्रदिवसरात्र्याद्यन्यतमविभागव्यापित्वाभावे तत्तत्तिथिनिमित्तकाराधनाया अपि तत्तदहोरात्रादिव्यापित्वं न स्यादेवेति टिप्पनकेऽहोरात्रव्यापित्वाभावेऽप्याराधनायां तिथेरहोरात्रव्यापित्वमेव मन्तव्यमिति । एवं 'से णं चउद्दसी अट्ठमी पुनिमासिणी सुपडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालित्ता भवई' इत्यत्र; एवं 'यावज्जीवं विशेषेण सोऽष्टमी च चतुर्दशीम् । प्रत्याख्यानपौषधादि-तपसाऽऽराधयत्यलम् ॥ इत्यादौ च, प्रत्याख्यान-पौषधादितपसा चतुर्दश्यष्टम्यादितिथेराराध्यत्वं कथितम् । तत्र चतुर्दश्यादितिथिः टिप्पनके यावद् घटिकाप्रमाणा स्यात् तावद्धटिकाप्रमाणकाल प्रतिबद्धैव यदि तदाराधनास्यात्तदा षष्टिघटिकाप्रमाणाऽहोरात्रप्रतिबद्धपौषधादिकाराधनायाश्चतुर्दश्यादितिथिसम्बद्धत्वं नैव स्यात् । न हि चतुर्दश्यादितिथि: सर्वदा षष्टिघटिकाप्रमाणा क्वापि टिप्पनके विद्यमानोपलभ्यते । जैनशास्त्रानुसारेण तु न काऽपि तिथि: सम्पूर्णाहोरात्रप्रमाणा भवति । किन्तु द्वाषष्टितमभागोनाहोरात्रप्रमाणैव । तथा च तिथेराराधनायामहोरात्रव्यापित्वमन्यतायामेव सर्वं सञ्जाघटीतीति बोध्यम् । 'छण्हं तिहीणं मॉमि का तिही अज्ज वासरे' ॥ इति श्राद्धदिनकृत्यवचनादप्याराधनायां तिथेरहोरात्रव्यापित्वमन्तव्यतापि स्पष्टैव । अन्यथा एकस्मिन् रव्यादिदिने तिथिद्वयमन्तव्यतायां तिथेमिश्रणभावापत्त्याऽऽराधनायाम Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ग्रन्थत्रयी व्यवस्थितत्वमनियतत्वं च स्यात् । सूर्योदयवेलायां स्तोककालीनतिथिसंयुक्तेऽपि रव्यादिदिने-अद्य अमुका तिथिर्वर्तते, अद्य अमुकतिथिव्रतं मया विहितमिति-सर्वजनप्रसिद्धव्यवहारविलोपापत्तेश्च महदसमञ्जसं च स्यादिति । इत्थं च लोकव्यवहारेऽप्येकस्मिन् दिने एकैव तिथिर्व्यवहियते । इत्येकस्मिन् रव्यादिदिने टिप्पनके तिथिद्वयप्राप्तौ तिथित्रयप्राप्तौ वा तत्र दिने का तिथिर्व्यवहर्त्तव्येत्यत्रापि नियामकमिदमेव-'आदित्योदयवेलायाम्' इत्यादि वचनम् । इत्थमेव चेदं टिप्पनकवचनापेक्षया विशेषवचनमप्यभिधीयते । सामान्यवचनं विशेषवचनेन बाध्यते । तथाहि-टिप्पनकवचनं हि प्रागुक्ते 'सोमवासरे साधिकैकघटिकां यावत् चतुर्थी मन्तव्या तदनु च तत्रैव दिने साधिका अष्टपञ्चाशद्धटिका यावत् पञ्चमी मन्तव्या । भौमवासरे च षोडशपलानि यावत् पञ्चमी मन्तव्या तदनु च तत्रैव दिने साधिकाः सप्तपञ्चाशद्धटिका यावत् षष्ठी मन्तव्या तदनु च तत्रैव दिने साधिके द्वे घटिके यावत् सप्तमी मन्तव्येति ज्ञापयति' । तत्र चाऽऽदित्योदयवेलाया' मित्यादि विशेषवचनं चैवं ज्ञापयति यद्-व्यवहारादौ सोमवासरे टिप्पनके सूर्योदयवेलायां चतुर्थ्या एव सत्त्वेन सम्पूर्णेऽपि सोमवासरे चतुर्युव मन्तव्या । न तु टिप्पनके तत्रैव दिने प्रभूताऽपि वर्तमाना पञ्चमी । व्यवहारे आराधनायां च सूर्योदयस्पशिन्या एव तिथेरहोरात्रव्यापित्वस्य गणनीयत्वात् । एवं भौमवासरेऽपि पञ्चम्येव सम्पूर्णा भौमदिनव्यापिनी मन्तव्या । न तु टिप्पनके तत्रैव दिने वर्तमानाऽपि षष्ठी सप्तमी वा। तयोस्तत्र दिने सूर्योदयास्पर्शित्वादिति । न च पर्वाराधनाया अनौदयिक्यामपि तिथौ सम्भवेन-'उदयंमि जा तिही सा पमाण' मित्यादिना तिथावौदयिकत्वनियमस्य प्रयोजनाभावेन वैयर्थ्यमिति शक्यम् । __ औदयिक्यामेव तिथौ पर्वाराधनाकरणस्य कर्मनिर्जराहेतुत्वस्य ज्ञानिभिदृष्टत्वेन तथैव-'उदयंमि जा तिही सा पमाण' मित्यादिना तदुपदेशात् । नियमेन दृष्टकार्यादर्शनेऽप्यदृष्टकार्योत्पत्तेरवश्यं कल्पनीयत्वात् । कारणकूटात्मकसामग्र्या एकदेशवैकल्येऽपि फलाभावस्य सर्वतन्त्रसिद्धत्वाच्च । एतेन-तिथिर्द्विविधा-पूर्णा सखण्डा च । सूर्योदयमारभ्य षष्टिनाडिकाव्याप्ता पूर्णा, एतदन्या सखण्डा । सखण्डाऽपि द्विविधा-शुद्धा विद्धा च । सूर्योदयमारभ्याऽस्तमयपर्यन्तं विद्यमाना शिवरात्र्यादौ निशीथपर्यन्तं विद्यमाना च शुद्धा, तदन्या विद्धा । वेधोऽपि द्विविधः-प्रातर्वेधः सायंवेधश्च । सूर्योदयोत्तरं षड्घटिका परिमिततिथ्यन्तरस्पर्शात्मकः प्रातर्वेधः । सूर्यास्तात्प्राक् षड्घटीमिततिथ्यन्तरस्पर्शः सायंवेधः । एकादशी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ ৩৩ व्रतविषये तु वेधो वक्ष्यते । कृचित्तिथिविशेषे वेधाधिक्यम् । पञ्चमी द्वादशनाडीभिः षष्ठी विद्धां करोति । दशमी पञ्चदशभिरेकादशीवेधकृत् । चतुर्दशी अष्टादशनाडीभिः पञ्चदशी विध्यति । विद्धाश्च तिथयः क्वचित् कर्मणि ग्राह्याः कुत्रचित्त्याज्याश्च भवन्ति । तत्र सम्पूर्णा शुद्धा च तिथिः प्रायेण निर्णयं नापेक्षते, संदेहाभावात् । निषेधविधये सखण्डाऽपि न निर्णयारे । 'निषेधस्तु निवृत्त्यात्मा, कालमात्रमपेक्षते' इति वचनेन अष्टम्यादिषु नारिकेलादिभक्षणनिषेधादेस्तत्कालमात्रव्याप्ततिथ्यपेक्षणात् । विहितव्रतादिविषये तु निर्णय उच्यते । तत्र कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिमा॑ह्या । यथा विनायकादिव्रते मध्याह्नादौ पूजनादिविधानान्मध्याह्लादिव्यापिनी । दिनद्वये कर्मकाले व्याप्तावव्यातौ तदेकदेशव्याप्ती वा युग्मवाक्यादिना पूर्वविद्धायाः परविद्धाया वा तिथेाह्यत्वम् । युग्मवाक्यं तु - युग्माग्नि युगभूतानां षण्मुन्योर्वसुरन्ध्रयोः । रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्या च पूर्णिमा । प्रतिपद्यप्यमावास्या-तिथ्योर्युग्मं महाफलम् ॥ १ ॥ इति । युग्मं द्वितीयाऽग्निस्तृतीया द्वितीया तृतीयाविद्धा ग्राह्या तृतीया द्वितीयाविद्धा ग्राह्येत्येवं द्वितीयातृतीययोयुग्मम्, चतुर्थीपञ्चम्योर्युग्मम्, षष्ठीसप्तम्योर्युग्मम्, अष्टमीनवम्योर्युग्मम्, एकादशीद्वादश्योर्युग्मम्, चतुर्दशीपौर्णमास्योर्युग्मम्, अमावास्याप्रतिपदोर्युग्ममित्यर्थः कृचित्-'चतुर्थी गणनाथस्य मातृविद्धा प्रशस्यत' इत्यादि विशेषवाक्यैाह्यत्वनिर्णयः । वचनवशेन ग्राह्यायास्तिथेः कर्मकाले सत्ताभावे साकल्यवचनैः सत्त्वं भावनीयम्। तानि च- 'यां तिथिं समनुप्राप्य उदयं याति भास्करः । सा तिथिः सकला ज्ञेया स्नानदानजपादिषु ॥ १ ॥ इत्यादीनि । इति सामान्यनिर्णयः । इति । अन्यत्र धर्मसिन्धुप्रभृतिषूक्ताः पूर्णत्व-सखण्डत्व-शुद्धत्व-विद्धत्वादयस्तिथिविकल्पा अप्यत्र जैनमतेऽनुद्धोष्याः । सर्वत्रापि तिथावौदयिकत्वेनैकरूपेणैव-'उदयंमि जा तिही सा पमाण' मित्यादिनाऽऽराधनायां प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वादित्यपि भावनीयम् । एवं श्रीतपागच्छीयसम्प्रदाये पर्वाराधनायां क्षीणवृद्धतिथिविषये चाद्यापि यावत् शास्त्राबाधिताऽविच्छिन्ना परम्परा एवंविधा वर्तते । सैव चाविच्छिना सुविहितपरम्परा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ग्रन्थत्रयी श्रीतपागच्छीयसम्प्रदाये सर्वत्र देशेषु श्रीतपागच्छीयश्रीचतुर्विधश्रमणसङ्थेनाऽविच्छिन्नतयैव सर्वदा समनुपाल्यते । तथाहि - यदा टिप्पनके द्वितीयादिपर्वतिथीनां क्षयः स्यात्तदा 'क्षये पूर्वा तिथि: कार्ये' ति वचनप्रामाण्यात् तत्पूर्वतिथीनां क्षयो गण्यते । टिप्पनके द्वितीयादिपर्वतिथिवृद्धौ च 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति वचनप्रामाण्यात् प्रथमा पर्वतिथि: पूर्वतिथित्वेन गण्यते । यथाहि-टिप्पनके द्वितीयायाः क्षये प्रतिपदः क्षयो गण्यते, पञ्चम्याः क्षये चतुर्थ्याः क्षयो गणनीयः, अष्टम्याः क्षये सप्तम्याः क्षयो गणनीयः, एकादश्याः क्षये दशम्याः क्षयो गणनीयः, चतुर्दश्याः क्षये त्रयोदश्याः क्षयो गणनीयः । पूर्णिमामावास्ययोश्च क्षये चतुर्दश्याः क्षयस्य गणनीयत्वे प्राप्ते तस्या अपि पर्वतिथित्वेन तत्र त्रयोदश्या एव क्षयो गणनीयः । एवं तिथिवृद्धावपि । यथा हि-टिप्पनके द्वितीयावृद्धौ, प्रथमा द्वितीया प्रतिपदेव गणनीया, पञ्चमीवृद्धौ प्रथमा पञ्चमी चतुर्युव गणनीया, अष्टमीवृद्धौ प्रथमाऽष्टमी सप्तम्येव गणनीया, एकादशीवृद्धौ प्रथमैकादशी दशम्येव गणनीया, चतुर्दशीवृद्धौ प्रथमा चतुर्दशी त्रयोदश्येव गणनीया । पूर्णिमामावास्ययोश्च वृद्धौ प्रथमा पूर्णिमा प्रथमाऽमावास्या च चतुर्दशीत्वेन गणनीया, तत्पूर्वा चतुर्दशी च त्रयोदशीत्वेन गणनीया ।। अत्र सर्वत्राऽपि तिथावौदयिकत्वमपि बोध्यम् । तिथावौदयिकत्वस्यैव तत्तत्तिथित्वेन प्रामाण्यप्रयोजकत्वात् । यथा-पूर्णिमाऽमावास्या च चतुर्दशीत्वेन गणनीयेत्यादावाराधनायामौदयिकचतुर्दशीत्वेन गणनीयेति भावः । एवं पञ्चाङ्गे 'द्वितीयायाः क्षये प्रतिपदः क्षयो गणनीय' इत्यादौ तस्मिन् दिने औदयिकी द्वितीयैव गणनीयेति भावः । इत्यादि स्वयमेवाभ्यूह्यम् । 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति श्रीउमास्वातिवाचकवचनस्यैवात्र प्रमाणत्वात् नैवास्याः परम्पराया निष्प्रमाणता । इत्थमेव चाद्यावधि शिष्टपुरुषपरम्परापरिगृहीत्वेनास्याः परम्पराया निर्मूलत्वाऽऽशङ्काऽपि परास्ता । उपपादयिष्यते चोपरिष्यत् 'क्षये पूर्वे'ति वचनस्योक्तार्थतात्पर्यकत्वमपि । अथास्मिन् वि.सं.१९९३ वर्षे तस्मिन् टिप्पनके भाद्रशुक्लपक्षे बुधवासरे साधिकाः सप्तपञ्चाशद् घटिका यावत् चतुर्थी, गुरुवासरे षष्टिं घटिका यावत् पञ्चमी, शुक्रवासरेऽपि साधिके द्वे घटिके यावत् पञ्चमी । एवं गत१९९२ वर्षेऽपि द्वितीयभाद्रशुक्लपक्षे शनिवासरेऽष्टापञ्चाशद् घटिका यावत् चतुर्थी, रविवासरे षष्टिं घटिका Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ ७९ यावत् पञ्चमी, सोमवासरेऽपि साधिके द्वे घटिके यावत् पञ्चमीति ।। अत्र 'संवत्सरप्रतिक्रान्ति-लुंचनं चाष्टमं तपः । सर्वार्हद्भक्तिपूजा च सङ्घस्य क्षामणं मिथः ॥' इति सांवत्सरिककृत्यविशिष्टा पर्युषणा सांवत्सरिकमहापर्वाभिधाना वक्ष्यमाणश्रीकल्प-निशीथचूादिवचनात् पूर्वमाषाढचातुर्मासिकदिनादारभ्य पञ्चाशत्तमे पर्वतिथ्यात्मके भाद्रशुक्लपञ्चमीदिन एवासीत् । तत्र श्रीकल्पसूत्रवचनानि चैवम् - 'वासावासाणं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं रयणि उवायणावित्तए ।' 'वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए ।' ___ 'वासावासं पज्जोसवियाणं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अज्झेव कक्खडे कडुए विग्गहे समुप्पज्जित्था सेहे रायणियं खामिज्जा राइणिए वि सेहं खामिज्जा ॥' इत्यादीनि । श्रीनिशीथचूर्णिवचनानि चैवम् - 'तओ वरिसे पुण्णे संवच्छरिए पडिक्कते मूलं पच्छित्तं, गणाओ निच्छुभइ । एवं बारसमासा अणुवसमंते दोसु तवो आदिमेसु, जाव गच्छेण वज्जिओ। सेसेसु दससु छेदो पंचराइंदियाइओ जाव संवच्छरं पत्तो । पज्जोसवणाराइपडिक्कंताण अहिंगरणे उप्पन्ने एसो विही । पज्जोसवणादिवसे अहिकरणे उप्पन्ने तवो मूलं च भवति, ण छेदो। पडिक्कमणकाले वा उप्पन्ने मूलमेव केवलं पडिक्कंते वि भवति । एसेवत्थो भण्णइ । एवं एक्केक्क०गाहा । भद्दवयसुद्धपंचमीए अणुदिए आइच्चे अहिगरणे उप्पन्ने संवच्छरो भवति । छट्ठीए एगुणदिणो संवच्छरो भवति । एवं इक्विक्कदिणं परिहरतेणं आणेअव्वं जाव ट्ठवणादिणु त्ति । पज्जोसवणा दिवस इत्यर्थः । तम्मि ठवणादिणे अणुदिए आइच्चे अहिगरणे उप्पन्ने एमेव चोयणा । सज्झायपट्ठवणकाले चोइज्जइ । पुणो चेइयवंदणाकाले चोइज्जइ । अणुवसमंतो पुणो पडिक्कमणवेलाए । एवं तम्मिपज्जोसवणकालदिवसे तिमासगुरू भवति ।' Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी "मूलं तु'गाहा । पडिक्कंते मूलं भवति । एसा ठवणदिवसविधी । अह अद्धपडिकंताण चेव अधिकरणं भवे संवच्छरिए काउस्सग्गे कए मूलमेव केवलं, ण सेसा पच्छित्ता भवन्ति त्ति' ॥ 'एवमाइयाण कारणाण अण्णतमेण निग्गया विहरता पइट्ठाणं नगरतेण पट्ठिया। पइट्ठाण-समणसंघस्स य अज्झकालगेहिं संदिटुं, 'जावाहं आगच्छामि ताव तुब्भेहिं णो पज्जोसवियव्वं' । तत्थ य सायवाहणो राया । सो य सावगो । सो य कालगज्जं एंतं सोऊण णिग्गओ अभिमुहो समणसंघो य । महाविभूईए पविठ्ठो कालगज्जो । पवितुहिं य भणियं-भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइ ।' . 'जो दिवस-पक्ख-चाउम्मासिएसु अणुवसंतो संवच्छरिए उवसमइ सो पुढवीराइसमाणो । जो पुण पज्जोसवणाए वि णो उवसमइ सो पव्वयराइसमाणो । जो पुण पक्खिय-चाउम्मासिय-संवच्छरिएसु ण उवसमइ तस्स विवेगो कायव्वो ॥' । 'पज्जोसवणाए जइ अट्ठमं ण करेइ तो चउगुरुं, चाउम्मासिए छटुं न करेइ तो चउलहुं, पक्खिए चउत्थं ण करेइ मासगुरुं ॥' इत्यादीनि । एवं-'अन्नया पज्जोसवणादिवसे आगए अज्झकालगेण सालिवाहणो भणियोभद्दवयजुण्हपंचमीए पज्जोसवणा' ॥ इत्यादीनि श्रीपर्युषणाकल्पचूर्णिवचनानि च । एतेषु वचनेषु 'पर्युषणा'शब्दस्य, 'पर्युषणादिनार्थकाद्यशब्दस्य', 'सांवत्सरिकशब्दस्य' चाऽऽषाढचातुर्मासिकदिनादारभ्य पञ्चाशत्तमदिनरूपपर्वतिथिरूपभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनकर्तव्यताकस्यैव सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादिकृत्यविशिष्टपर्युषणामहापर्वणो वाचकत्वम् । 'पर्युषणारात्रि'शब्दस्याप्युक्तभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनात्मकपर्युषणापर्वदिवससम्बन्धिरात्रेरेव वाचकत्वम् । ___ युगप्रधानश्रीकालिकाचार्यभगवदादेशाच्च सा सांवत्सरिकपर्वरूपा पर्युषणा तद्दिनाऽव्यवहितपूर्वदिने चतुर्थ्यां क्रियते । यतो युगप्रधानश्रीकालिकाचार्यभगवान शालिवाहननृपविज्ञप्त्याऽपि, स्वध्वंसाधिकरणदिनध्वंसानधिकरणत्वे सति स्वध्वंसाधिकरणदिनरूपपर्वतिथ्यात्मकपञ्चमीदिनाऽव्यवहितोत्तरदिनात्मकमपि षष्ठीदिनं, 'नो से कप्पइ तं रयणि उवायणावित्तए', इति निषेधवचनादेव, पर्युषणापर्वदिनतया नैव स्वीकृतवान् । किन्तु, 'अंतरा वि य से कप्पई' इति विशेषवचनादेव स्वप्रागभावाधिकरणदिनप्रागभावानधिकरणत्वे सति स्वप्रागभावाधिकरणदिनरूपपवतिथ्यात्मकपञ्चमी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ दिनाव्यवहितपूर्वदिनात्मकतया चतुर्थीदिनमेव स्वीकृतवान् । ततः प्रभृति च सर्वत्र सर्वदा तथैव पर्युषणा क्रियते ।। अथाऽस्मिन् वर्षेऽपि टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धौ, 'अंतरा वि य से कप्पई' इति वचनान्, 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे ति वचनात् तद्वचनानुसारिशास्त्राबाधितप्रागुक्तस्वरूपाविच्छिन्नसुविहितपरम्परया च पर्वतिथ्यात्मकपञ्चमीशुक्रदिनाव्यवहितपूर्वदिनात्मके गुरुवासरे एव पर्युषणापर्व विधेयम् । तत्र दिने टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्यां, 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति वचने उक्तस्वरूपपरम्परया चौदयिकचतुर्थीदिनतयैव गणनीयत्वात्, पञ्चाङ्गोक्तद्वितीयपञ्चम्या एव शुक्रदिने पञ्चमीरूपपर्वतिथित्वेनाऽऽराध्यतया सर्वसम्मतत्वेन गुरुवासरस्यैव तदव्यवहितपूर्वदिनत्वाच्च । .. इत्थमेव च-'अंतरा वि य से कप्पई' इति शास्त्राज्ञा । एवं-'जुगप्पहाणेहि कारणे चउत्थी पवत्तिया सा चेवाणुमया सव्वसाहूणं' इति शास्त्राज्ञा । वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति शास्त्राज्ञा । _ 'उदयंमि जा तिही सा पमाणमियराए कीरमाणीए । आणाभंगणवत्था मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ इत्यादिशास्त्राज्ञा शास्त्रानुसारिप्रागुक्तस्वरूपाविच्छिन्नसुविहितपरम्पराज्ञा चाऽऽराधिता भवति, नान्यथेति बोध्यम् । - एवं च-यदा कदाचित् टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धिः स्यात् तदा पञ्चमीपर्वतयाऽऽराध्यत्वेन सर्वसम्मतटिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिने एव टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीमौदयिकी चतुर्थी गणयित्वा श्रीपर्युषणापर्व विधेयम् । न तु तद्व्यवहितपूर्वदिने, इति सिद्धान्तः । ___ इत्थमेव च गत०वि.सं.१९९२वर्षेऽपि टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावप्याराध्यपञ्चमीदिनात्मकसोमवारसराव्यवहितपूर्वदिनात्मके रविवासरे एव टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिनात्मकेऽप्याराधनायां भाद्रशुक्लचतुर्थीदिनात्मके सकलग्रामनगरादिषु प्रायः सर्वत्र चतुर्विधेनाऽपि श्रमणसङ्घन पर्युषणापर्व समाराधितमिति । ___अथाऽत्राऽर्थे कश्चित् विप्रतिपद्यते । टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धौ टिप्पनकस्थचतुर्थीदिन एव पर्युषणापर्व विधेयम् । न तु टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने । श्रीकालिकाचार्यभगवदादेशात् चतुर्थ्यामेव तस्य विधेयतोक्तेः, टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्याः Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ग्रन्थत्रयी फल्गुतिथित्वाच्च । तथा चाऽस्मिन् वर्षे आराध्यपञ्चमीरूपटिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिनव्यवहितपूर्वदिनात्मकेऽपि बुधवासर एव पर्युषणापर्व विधेयम् । तत्रैव दिने टिप्पनके चतुर्थ्या औदयिकत्वात् । 'उदयंमि जा तिही सा पमाण' मित्यादिवचनेनौदयिक्या एव तिथेः प्रमाणतयोक्तेरिति । अथाऽत्र तावदस्य वादिमतस्य निष्प्रमाणत्वमुपपादनीयम् । तदुपपादने हि प्रागुक्तसिद्धान्तस्य सिद्धिः । उपपादनं च स्वपक्षसाधन-परपक्षनिराकरणाभ्यां भवति । तदुभयं चाऽऽगमपञ्चाङ्गीप्रामाण्यं तदनुसारितदबाधितपूर्वाचार्यप्रतिपादितशास्त्रप्रामाण्यं चाभ्युपगम्योभाभ्यां वादिप्रतिवादिभ्यां व्यवहारनियमसमयबन्धात् प्रवर्तितायां कथायामेव सम्पादनीयम् । तत्र च विप्रतिपत्तिजन्यसंशयस्य विचाराङ्गत्वात् मध्यस्थेन प्रमाणेन तदविरोधिना तर्केण च व्यवहर्तव्यं वादिना । प्रतिवादिनाऽपि कथाङ्गतत्त्वज्ञानविपर्ययलिङ्गप्रतिज्ञाहान्याद्यन्यतमनिग्रहस्थानं तस्य दर्शनीयम् । तद्व्युत्पादने प्रथमस्य भङ्गो व्यवहर्त्तव्यः । अन्यथा द्वितीयस्यैव । तादृशेतरो च जेतृतया व्यवहर्त्तव्यौ । प्रामाणिकः पक्षस्तात्त्विकतया व्यवहर्त्तव्य इत्यादिस्वरूपसमयबन्धादिवत् तत्सदृशान्यविधरूपसमय-बन्धादिवद्वा स्वकर्त्तव्यतानिहायादौ विप्रतिपत्तिरपि प्रदर्शनीयैवेति । विप्रतिपत्तिजन्यसंशयस्य चाऽत्र विचारोपयोगिता किं पक्षतासम्पादकतया कि वा स्वरूपत एव पक्षप्रतिपक्षग्रहफलकतयेत्यन्यदेतत् । तत्र चेमे विप्रतिपत्तिप्रकाराः । तथा हि-युगप्रधानश्रीकालिकाचार्यादनु पर्युषणापर्व प्राक् 'पर्युषणापर्वदिनत्वेनोभयसम्मतौदयिकपञ्चमीरूपाराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनकर्तव्यताकं न वा'? । अत्र विधिकोटिः स्वपक्षः, निषेधकोटिः परपक्षः । एवं 'उक्तभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनव्यवहितपूर्वदिनकर्त्तव्यताकं न वा '?। अत्र निषेधकोटि स्वपक्षः विधिकोटिः परपक्षः । विशेषतो वा विप्रतिपत्तिरेवम्-'विवादापन्नो गुरुवासरो गतवर्षीयो रविवासरो वा पर्युषणापर्वकर्तव्यताको न वा'?। अत्र विधिकोटिः स्वपक्षः, निषेधकोटिः परपक्षः। 'एवं विवादापन्नो बुधवासरे गतवर्षीयः शनिवासरो वा पर्युषणापर्वकर्त्तव्यताको न वा'?। अत्र निषेधकोटिः स्वपक्षः, विधिकोटिः परपक्षः । अत्र तदव्यवहितपूर्वत्वं च 'तत्प्रागभावाधिकरणप्रागभावानधिकरणत्वे सति तत्प्रागभावाधिकरणत्वम्' । तद्दिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वं च 'तद्दिनप्रागभावाधिकरणदिन Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ प्रागभावानधिकरणत्वे सति तद्दिनप्रागभावाधिकरणदिनत्वम्' । अत्र विवक्षितपञ्चमीदिनप्रागभावाधिकरणदिनप्रागभावानधिकरणत्वस्य विवक्षितपञ्चमीदिनेऽपि सत्त्वात्तद्वारणाय विशेष्यदलम् । विवक्षितपञ्चमीदिन प्रागभावाधिकरणदिनत्वस्य च तृतीयादिनेऽपि सत्त्वात्तद्वाराणाय सत्यन्तं विशेषणदलम्। प्रागभावानधिकरणत्वं च 'प्रागभावाधिकरणत्वावच्छिनप्रतियोगिताकभेदवत्त्वम्' । तेन प्रागभावानधिकरणतृतीयादिनमादाय नातिप्रसङ्गः । तृतीयादिनस्य विवक्षितपञ्चमीदिनप्रागभावाधिकरणचतुर्थीदिनप्रागभावाधिकरणत्वेन विवक्षितपञ्चमीदिनप्रागभावाधिकरणतृतीयादिनप्रागभावानधिकरणत्वेऽपि तादृशप्रागभावाधिकरणत्वावच्छिनप्रतियोगिताकभेदवत्त्वाभावात्, तृतीयादिदिनवारणाय विशेषणदले विवक्षितपञ्चमीदिनोपादानम् । पञ्चम्यादिदिनवारणाय च विशेष्यदले तदुपादानमिति । अत्र पञ्चमीदिने तद्वर्षीय-तन्मासीय-तत्पक्षीयत्वमपि बोध्यम् । अन्यथा, अग्रिमवर्षीयाऽग्रिममासीयाऽग्रिमपक्षीयपञ्चमीदिनमादायाऽव्याप्तिप्रसङ्गादिति । अत्र 'पर्युषणापर्व भाद्रशुक्लौदयिकचतुर्थीदिनकर्त्तव्यताकं न वा?' इति विप्रतिपत्तिस्तु न सम्भवति । वादिप्रतिवादिनोरुभयोरपि पर्युषणापर्वण औदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिन कर्त्तव्यताकत्वस्य सम्मतत्वात् । विवादस्तहि कुत्र? टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावाराध्यौदयिकपञ्चमीत्वेनोभयसम्मतटिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनस्याराधनायामौदयिकचतुर्थीदिनत्वेन प्रामाण्ये व्यपदेश्यत्वे चैव । तत्साधने चाऽस्माकं 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति वचनं तदनुसारिशास्त्राबाधितप्रागुक्ताविच्छिनसुविहितपरम्परा च प्रमाणमित्यधिकमुपरिष्टात् । ___ एवमनुमानमपि तत्र प्रमाणम् । तथाहि-विवादापन्नो गुरुवासरो गतवर्षीयो रविवासरो वा, औदयिकचतुर्थीदिनः, आराध्यपञ्चमीतिथित्वेन प्रमाणदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वात् । यत्र यत्राराध्यपञ्चमीतिथित्वेन प्रमाणदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वं तत्र तत्रौदयिकचतुर्थीदिनत्वम् । यथा श्रावणमासे आराध्यपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वस्मिन् भौमदिने औदयिकचतुर्थीदिनत्वम् । तथा चाऽयम् । तस्मात्तथेति । ____ अथात्र तावत् टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धौ टिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिने गुरुवासरे एव पञ्चाङ्गोक्तप्रथमपञ्चमीमौदयिकी चतुर्थी गणयित्वा श्रीपर्यु Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी षणापर्व विधेयम्, न तु तद्व्यवहितपूर्वदिने बुधवासरे, इति सिद्धान्तो न युक्तः । आगमानुमानाभ्यां बाधितत्वात् । आगमे हि श्रीकालिकाचार्यभगवदादेशात् । ‘एवं जुगप्पहाणेहि कारणे चउत्थी पवत्तिया' इत्यादिवचनाद् भाद्रशुक्लचतुर्थ्यामेव श्रीपर्युषणापर्व विधीयते । तत्राऽपि 'उदयंमि जा तिही सा पमाण' मित्यादिवचनादौदयिक्यामेव तस्यां तद्विधीयते । टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने गुरुवासरे च टिप्पनके औदयिक्याः पञ्चम्या एव सत्त्वेन तत्रौदयिकचतुर्थीदिनत्वाभावात् स्पष्टैवागमबाधेति चेत् । न । 'अंतरा वि य से कप्पइ' इत्यागमतात्पर्यापरिज्ञानात् । आगमानुमानाभ्यां बाधितत्वासिद्धः । आगमानुमानयोरेवोक्तसिद्धान्तसाधकत्वाच्च । तथा हि-पूर्व हि श्रीपर्युषणापर्व 'भद्दवयजुण्हपंचमीए' इत्यादिना भाद्रशुक्लपञ्चम्यामेवासीत् । तदपि'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्यादिवचनेनौदयिक्यामेव पञ्चम्यामित्यावयोरुभयोरपि सम्मतम् । अथ श्रीशालिवाहननृपविज्ञप्त्या युगप्रधानश्रीकालिकाचार्यभगवता श्रीपर्युषणापर्व यत् पञ्चमीदिनादगानीतम्, तत्किमेकेनाऽहाऽर्वागानीतमुत द्वाभ्यामहोभ्यामर्वाक् ?। आधे-सिद्धोऽस्माकं सिद्धान्तः । तव चास्मिन् वर्षे औदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाद् द्वाभ्यामहोभ्यामर्वाग् बुधवासरे श्रीपर्युषणापर्वकरणे आज्ञाभङ्गापत्तिः । युगप्रधानेन तेन भगवता एकेनैवाऽहाऽर्वागानीतत्वेनाऽस्मिन्वर्षेऽप्यौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनादेकेनाहाऽर्वाग् गुरुवासर एव तत्कर्त्तव्यतासिद्धेस्तथैव कर्तव्यत्वात् । औदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनत्वं चास्मिन् वर्षे शुक्रवासर एवेति 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति वचनप्रामाण्याद आवयोरुभयोरपि सम्मतत्वात् । द्वितीये तु प्रमाणाभाव एव । न हि वपि कल्पनिशीथाद्यागमेषु तच्चूादिषु तदनुसारिपूर्वाचार्यविरचितेषु शास्त्रेषु वा श्रीकालिकाचार्यभगवता पञ्चमीदिनाद द्वाभ्यामहोभ्यामर्वाक् श्रीपर्युषणापर्व आनीतमिति वचनम् । नाऽपि तादृशार्थबोधिका काऽपि परम्परेति । औदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाद् द्वाभ्यामहोभ्यामर्वाग् बुधवासरे गतवर्षे शनिवासरे च श्रीपर्युषणापर्वकरणं तत्प्ररूपणं च तवाऽनागमिकमेवाऽपारम्परिकमेव चेति । किञ्चैवं सर्वेष्वपि वर्षेषु पञ्चमीदिनाद् द्वाभ्यामेवाऽहोभ्यामर्वाक् श्रीपर्युषणापर्वविधेयताऽऽपत्त्या तवानिष्टापत्तिः । न चेष्टापत्तिरिति वाच्यम् । टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ तिथिवृद्ध्यभावे तु त्वयाप्यौदयिकपञ्चमीदिनादेकेनैवाऽहाऽर्वाक् क्रियमाणत्वात् । तत्रापि द्वाभ्यामहोभ्यामेवार्वाक् करणे भाद्रशुक्लतृतीयायां तत्करणापत्त्या 'चउत्थी पवत्तिया' इत्याद्यागमवचनविरोधापत्तेश्च । न च टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावौदयिकपञ्चमीदिनाद् द्वाभ्यामहोभ्यामर्वाक् पर्युषणा कर्तव्या, अन्यथा त्वेकेनैवाऽहाऽर्वाक् सा कर्तव्येति वाच्यम् । ___ आराध्यरूपौदयिकपञ्चमीदिनात् कदाचिदेकेनाऽर्वाक् कदाचिद् द्वाभ्यामहोभ्यामगिति श्रीपर्युषणामहापर्वणोऽप्यनैयत्यप्रसङ्गात् । तादृशार्थेऽपि प्रमाणाभावाच्च । अस्माकं तु श्रीकालिकाचार्यभगवता 'अंतरा वि य से कप्पइ' इति श्रीकल्पसूत्रवचनप्रामाण्यादौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनादेकेनैवाऽहाऽर्वाक् श्रीपर्युषणापर्व विहितमिति तथैव कर्त्तव्यम् । न तु कदाचिदपि द्वाभ्यामहोभ्यामर्वागपीति नियतरूप एवाऽबाधितः सिद्धान्त आराधितो भवति । चतुर्विंशतिप्रबन्धेऽपि-'यस्तु कालिकाचार्यपाङत् पर्युषणामेकेनाऽहाऽर्वागानायय' दिति वचनेनैकेनैवाऽहाऽर्वाक् श्रीपर्युषणानयनं स्पष्टमेवोक्तमित्यपि बोध्यम् । ननु- 'ताहे रण्णा भणियं-अणागयचउत्थीए पज्जोसविति । आयरिएहिं भणियंएवं भवउ । ताहे चउत्थीए पज्जोसवियं ।' इति श्रीनिशीथचूर्णिवचनात् । 'आयरिएण भणियं एवं होउ ति चउत्थीए कया पज्जोसवणा' इति श्रीपर्युषणाकल्पचूर्णिवचनाच्च श्रीकालिकाचार्यभगवता भाद्रशुक्लचतुर्थीदिन एव पर्युषणा कृता । ततः प्रभृति च भाद्रशुक्लचतुर्थीदिन एव सर्वदा पर्युषणा क्रियते । तत्रापि 'उदयंमि जा तिही सा पमाण' मिति वचनादौदयिक्येव चतुर्थी बोध्या । अस्मिन् वर्षेऽपि टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावप्यौदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वं तु बुधवासर एव न तु गुरुवासरे। तत्र टिप्पनके प्रथमपञ्चमीदिनत्वात् । इत्थं च श्रीपर्युषणापर्वणोऽनयत्यापत्तिरपि परास्ता, तस्यौदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिननियतत्वादिति चेत् । सत्यम् । अस्माभिरपि श्रीपर्युषणापर्वण औदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिननैयत्यस्यैव सिद्धान्तितत्वात् । तत्र चतुर्थीदिनत्वं चतुर्थीदिनत्वेन तात्पर्यविषयः, आराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वेन तात्पर्यविषयो वेत्यग्रे स्पष्टम् । अस्मिन् वर्षे विवादापन्ने गुरुवासरे टिप्पनकवचनेन प्रथमपञ्चमीदिनत्वसत्त्वेऽपि 'वृद्धौ कार्ये'ति विशेषवचनेन तदनुसारिपरम्परया च पर्वतिथ्याराधनायां तत्रौदयिकचतुर्थीदिनत्वस्यैव निश्शङ्कमभ्युपगमनीयत्वात् । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी किन्त्वत्र त्वं प्रष्टव्योऽसि यत्-भाद्रशुक्लचतुर्थीदिन एव पर्युषणा क्रियतइत्यत्र कि बीजम् ?। किं तत्रौदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वाद्वा पर्वतिथिदिनत्वाद्वा औदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वाद्वा श्रीकालिकाचार्यभगवता तथा प्रवर्तितत्वाद्वा ? नाद्यः । औदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वाच्चतुर्थ्यामिवौदयिकभाद्रशुक्लतृतीयादिनत्वात् तृतीयायामेव कथं न पर्युषणा कर्तव्येत्यस्यापि त्वया वाच्यत्वात् । न ह्यौदयिकचतुर्थीदिनत्वात् चतुर्थीदिन एव सा कर्तव्या न तु तृतीयायामित्यत्र किञ्चिदपि नियामकम् । उभयोरप्यपर्वतिथिदिनत्वेन साम्यात् । न वा क्वचिदपि श्रीकल्पाद्यागमेषु कारणे सति पञ्चमीदिनादर्वाक् चतुर्थीदिन एव पर्युषणा कर्तव्या न तृतीयादिने-इत्यर्थप्रतिपादकं वचनमुपलभ्यते । . न च-'अंतरा वि य से कप्पइ' इति श्रीकल्पवचनादेव चतुर्थीदिने सा कर्तव्या न तृतीयादिन इति वाच्यम् ।। तत्र 'अंतरा' शब्दस्य चतुर्थीदिनवाचकत्वाभावात् । न च लक्षणयैव 'अंतरा'शब्दस्य चतुर्थीदिनार्थकत्वमिति वाच्यम् । लक्षणयैव तृतीयादिनार्थकत्वमपि तस्य कथं न स्यादित्यस्यापि वाच्यत्वात्, नियामकाभावात् । ___ न च युगप्रधानेन तेन भगवता शातवाहननृपविज्ञप्त्या चतुर्थीदिन एव पर्युषणायाः प्रवर्तितत्वेन 'अंतरा'शब्दस्य चतुर्थीदिनार्थकत्वमेव न तृतीयादिनार्थकत्वमिति वाच्यम्। अन्योन्याश्रयप्रसङ्गात् । तथा हि-'अंतरा'शब्दस्य चतुर्थीदिनार्थकत्वप्रामाण्ये सिद्ध एव चतुर्थी दिने पर्युषणायाः प्रवर्तितत्वस्य प्रामाण्यसिद्धिः । चतुर्थीदिने पर्युषणायाः प्रवर्तितत्वस्य प्रामाण्यसिद्धावेव च 'अंतरा'शब्दस्य चतुर्थीदिनार्थकत्वप्रामाण्यसिद्धिरिति । ____न चाऽन्तरा'शब्दस्य 'दिष्टया समुपजोषं चेत्यानन्देऽथान्तरेऽन्तरा । अन्तरेण च मध्ये स्युः' इत्यादिकोषवचनाद् मध्यार्थकत्वेनाऽऽषाढचातुर्मासिकदिनादारभ्य यत् पञ्चाशत्तममौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनं तन्मध्यवर्तिदिनार्थकत्वमेवेत्यपि साम्प्रतम्। औदायिकभाद्रशुक्लतृतीयादिनस्यापि तन्मध्यवर्तिदिनत्वेन तत्रापि श्रीपर्युषणायाः कर्तव्यतापत्तेः, पर्युषणापर्वदिनानैयत्यप्रसङ्गतादवस्थ्यात् । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ ८७ __ स्यादेतत्, 'अंतरा वि य से कप्पई' इत्यस्य 'अर्वागपि तत्पर्युषणाकरणं कल्पते'-इत्येवं विवरणदर्शनादन्तराशब्दस्यार्वाग्दिनार्थकत्वमेवेति चेत् । सत्यम् । परं तदर्वाग्दिनत्वं हि पूर्वदिनत्वम् । तत्र किं व्यवहितपूर्वदिनत्वं तवाभिमतं किं वाऽव्यवहितपूर्वदिनत्वम् ? आद्य-तृतीयादिनस्यापि व्यवहितपूर्वदिनत्वेन तत्रापि पर्युषणाकर्त्तव्यतापत्तेः । द्वितीये-'घट्टकुट्यां प्रभात' तव । सिद्ध नः समीहितं विवादानवकाशश्च । औदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनादव्यवहितपूर्वदिनत्वस्यास्मिन् वर्षे विवादापन्ने गुरुवासर एव सत्त्वेन तत्र दिन, एव श्रीपर्युषणायाः कर्त्तव्यतासिद्धेरिति ॥ नापि पर्वतिथिदिनत्वादिति द्वितीयः पक्षः । चतुर्थीदिनस्य पर्वतिथिदिनत्वाभावात् । 'इदाणि कहं चउत्थीए अपव्वे पज्जोसविज्जई' इति श्रीनिशीथचूर्णौ चतुर्थ्या अपर्वत्वेनैवोक्तेश्च । ___ नाप्यौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वादिति तृतीयः पक्षः । तस्यास्मत्सिद्धान्तस्यैव साधकत्वात् । अस्मिन् वर्षे गुरुवासर एव तदव्यवहितपूर्वदिनत्वात्। नापि श्रीकालिकाचार्यभगवता तथा प्रवर्तितत्वादिति चतुर्थोऽपि पक्षो युक्तः । तत्र तथा प्रवर्तितत्वं किमागमवचननिरपेक्षं वाऽऽगमवचनसापेक्षं वा ? तत्र नाद्यः । असम्भवादेव । न हि युगप्रधानादयः प्रावचनिकाः पुरुषा आगमवचननिरपेक्षप्रवृत्तिमन्तः कदापि भवन्ति । प्रावचनिकत्वस्यैव क्षतेः । . 'तो कुणह चउत्थीए इय भणिए सूरिणापि पडिवन्नं । जं कारणेण भणियं आरेण वि पज्जुसवियव्वं ॥' इत्यादौ तथाप्रवर्तितत्वस्याऽऽगमवचनसापेक्षत्वस्यैवोक्तेश्च । द्वितीये-वाच्यं तदागमवचनं, यदनुसारेण चतुर्थीदिन एव पर्युषणा विहिता न तृतीयादिने नापि षष्ठीदिने । ननु 'अंतरा वि य से कप्पइ' इति श्रीकल्पवचनमेव तत्र तथा प्रवृत्तौ प्रमाणमिति चेत् । तर्हि 'अंतरा' शब्दस्य चतुर्थीदिनवाचकत्वाभावादित्यादिकं प्रागुक्तमेवावर्त्तते । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ग्रन्थत्रयी तथा च तत्रान्तराशब्दस्याव्यवहितपूर्वदिनार्थकत्वस्यैव सिद्धत्वेनास्मदुक्त एव सिद्धान्तो निराबाध इति सिद्धम् ॥ न चैवं 'चउत्थीए पज्जोसवियं ।' 'चउत्थीए कया पज्जोसवणा' इत्यादावौदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनार्थकस्य चतुर्थीशब्दस्य का गतिरिति वाच्यम् । टिप्पनके भाद्रशुक्लचतुर्थ्याः क्षये तवापि तद्गतेर्वाच्यत्वात् । तत्र चतुर्थ्याः टिप्पनकानुसारेणौदयिकत्वाभावात् । अंतराशब्दस्योक्तरीत्याऽव्यवहितपूर्वार्थकत्वे सिद्धे तत्र तत्र चतुर्थीशब्दस्याप्यव्यवहितपूर्वदिनतात्पर्यकत्वादेवाऽगतेरभावाच्च । न च मुख्यार्थबाध एव तात्पर्यान्वेषणं युक्तमिति साम्प्रतम् । तस्मिन्नसत्यपि तद्भावाविरोधात् । तद्यथा - 'गच्छ गच्छसि चेत् कान्त !, पन्थानः सन्तु ते शिवाः । ममापि जन्म तत्रैव, भूयाद् यत्र गतो भवान् ।।' इति । अत्र मुख्यार्थाबाधनेऽपि वारणे तात्पर्यात् । तथा च, यदुद्देशेन यस्य शब्दस्य प्रवृत्तिः स शब्दस्तत्परः । तथैव लोकव्युत्पत्तेः । तथाहि-प्रशंसावाक्यमुपादानमुद्दिश्य लोके प्रयुज्यते, तदुपादानपरम् । निन्दावाक्यं हानमुद्दिश्य प्रयुज्यते, तद् हानपरम् । एवमन्यत्रापि स्वयमूहनीयम् । तस्माल्लोकानुसारेण शास्त्रेऽप्येवं स्वीकरणीयम् । अन्यथाऽर्थवादवाक्यानां सर्वथैवानर्थक्यप्रसङ्गात् । तथा चाऽन्तरा'शब्दस्याऽव्यवहितपूर्वार्थकत्वे सिद्धे 'चतुर्थी'शब्दस्यापि अव्यवहितपूर्वदिनोद्देशेनैव तत्र तत्र प्रवृत्तत्वस्याभ्युपगमनीयतयाऽर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्ययाऽव्यवहितपूर्वदिनपरत्वमेव तस्येति न काप्यनुपपत्तिरिति विभावनीयम् । ननु श्रीकल्प-निशीथचूर्ध्यादौ पञ्चक पञ्चकवृद्ध्यौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाद् व्यवहितपूर्वदिने एव पर्युषणायाः कर्त्तव्यतोक्ते रन्तरा'शब्दस्य नाऽव्यवहितपूर्वदिनपरत्वमिति चेत् । न। तत्र 'पर्युषणा'शब्दस्य वर्षाकालावस्थानरूपपर्युषणार्थकत्वेन सांवत्सरिककृत्यविशिष्टपर्युषणापर्वार्थकत्वाभावात् पर्युषणाशब्दस्य सामान्यतो व्यर्थकत्वोक्तेश्च । तत्र-वर्षाकालावस्थानरूपपर्युषणावाचकः पर्युषणाशब्दश्चैवम्-तथाहि'इत्थ उ पणगं पणगं कारिणियं जा सवीसइ मासो । सुद्धदसमीट्ठियाण व आसाढीपुण्णिमोसरणं ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ ८९ _ 'आसाढपुण्णिमाए ठियाणं जइ डगलादीणि गहियाणि पज्जोसवणाकप्पो य कहियो तो सावणबहुलपंचमीए पज्जोसवंति, असति खित्ते सावणबहुलदसमीए, असति खित्ते सावणबहुलस्स पण्णरसीए । एवं पंच पंच ओसारितेण जाव असति भद्दवयसुद्धपंचमीए । अओ परेणं न वट्टइ अइक्कमेउं । आसाढपुण्णिमाउ आढत्तं मग्गंताणं जाव भद्दवयजोण्हस्स पंचमीए, एत्थंतरे जइ न लद्धं ताहे जइ रुक्खाहे ठिओ तो वि पज्जोसवेयव्वं । एएसु पव्वेसु जहालंभे पज्जोसवेयव्वं अपव्वे न वट्टइ '। इति पर्युषणाकल्पचूर्णिवचनम् । एवं 'इत्थ उ अणभिग्गहियं वीसइरायं सवीसइमासं । तेण परमभिग्गहियं गिहिनायं कत्तिओ जाव ॥ १ ॥ असिवाइकारणेहिं अहवा वासं न सुट्ट आरद्धं । अभिवड्डियंमि वीसा इयरंमि सवीसइमासो ॥ २ ॥ 'इत्थत्ति-आसाढपुण्णिमाए सावणबहुलपंचमीए वा पज्जोसविए वि अप्पणा अणभिग्गहियं । अहवा जइ गिहत्था पुच्छंति अज्जो ! भे इत्थ वरिसाकालं ठिया अह न ठिया ?, एवं पुच्छिएहि अणभिग्गहियंति सन्दिग्धं वक्तव्यम् । इहाऽन्यत्र वाऽद्यापि निश्चयो न भवतीत्यर्थः । एवं सन्दिग्धं कियत्कालं वक्तव्यम् । उच्यते-वीसइरायं मासं जाव अणभिग्गहियं भवति । तेणं ति-तत्कालात परतः, अप्पणो, आभिमख्येन गृहीतमअभिगृहीतम् । इह व्यवस्थिता इति गिहीणं पुच्छंताणं कर्हिति । इह ठिया भो वरिसाकालं ति इत्यादि । एवं-तम्हा अभिवड्डियवरिसे वीसइराए गए गिहिणायं करिति । तिसु चंदवरिसेसु सवीसइराए मासे गए गिहिणायं करिति । इत्यादि । ___ एवं-आसाढपुण्णिमाए पविट्ठा पडिवयाओ आरब्भ पंचदिणा संथार-तणडगल-छालमादियं गिव्हंति । तम्मि चेव पणगे राइए पज्जोसवणाकप्पं कर्हिति । ताहे सावणबहुलपंचमीए पज्जोसवंति । खित्ताभावे कारणेण पणगे संवुड्ढे दसमीए पज्जोसवंति। एवं पन्नरसीए । एवं पणगवुड्डी ताव कज्जइ जाव सवीसइमासो पुण्णो । सो य सवीसइमासो भद्दवयसुद्धपंचमीए पुज्जइ । अह आसाढसुद्धदसमीए वासाखित्तं पविट्ठा । अह वा जत्थ आसाढमासकप्पो कओ तं वासपाउग्गं खित्तं अन्नं च नत्थि वासपाउग्गं । ताहे तत्थेव पज्जोसविति । वासं व गाढं अणुवरयं आढत्तं ताहे तत्थेव पज्जोसर्विति । एक्कारसीउं आढवेडं डगलादियं गिण्हंति, पज्जोसवणाकप्पं च कर्हिति। ताहे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी आसाढपुण्णिमाए पज्जोसविंति एस उस्सग्गो । सेसकालं पज्जोसविताणं सव्वो अववाओ। अववादे वि सति सवीसइराइमासाउ अइक्कमेउं न वट्टइ । सवीसइराए मासे पुण्णे जइ वासखित्तं न लब्भइ तो रुक्खहिट्टे वि पज्जोसवेयव्वं । तं च पुण्णिमाए पंचमीए दसमीए एवमादिएस पव्वेसु पज्जोसवेयव्वं नो अपव्वेसु ।' इत्यादीनि च निशीथचूर्णिवचनानि । ९० अत्रोपदर्शितेषु पर्युषणाप्रकारेषु पर्युषणाकल्पकथनपूर्वकवर्षाकल्प सामाचारीव्यवस्थापनाविशिष्टायां अभिगृहीतानभिगृहीत- गृहिज्ञाताज्ञात-वर्षाकालावस्थानरूपायामेव पर्युषणायां पर्युषणाशब्दो बोध्यः । न तु वार्षिककृत्यविशिष्टायां सांवत्सरिकपर्वरूपायां पर्युषणायाम् । यतस्तत्र चूर्णौ वार्षिकपर्वानुष्ठानमध्यादेकस्याप्यनुष्ठानस्याश्रवणात् । एवमनङ्गीकारे च वार्षिकपर्वरूपायाः पर्युषणाया अप्यनैयत्यं स्यात् । तथा च सति शाश्वतिकसांवत्सरिकपर्वाष्टाह्निका देवादयः कुत्र कुर्युः । यदुक्तं श्रीजीवाभिगमसूत्रे - 'तत्थ णं बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा तिहिं चाउमासिएहिं पज्जोसवणाए अट्ठाहिआओ महामहिमाओ करिंति' । इति । किञ्चैवम्- 'आसाढपुण्णिमाए पज्जोसविंति एस उस्सग्गो । सेसकालं पज्जोसविताणं सव्वो अववाओ ||" इति वचनात् सांवत्सरिकपर्वरूपपर्युषणाया अपि उत्सर्गत आषाढपूर्णिमायामेव करणीयत्वापत्तिः स्यात् । तथा च प्रागुक्तचूर्णिवचनेषु वर्षावस्थानरूपपर्युषणाया औदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाद् व्यवहितपूर्वदिने कर्तव्यतोक्तावपि, अव्यवहितपूर्वदिनकर्त्तव्यताकवार्षिकपर्वरूपपर्युषणाविषये 'अंतरा' शब्दस्याऽ व्यवहितपूर्वार्थकत्वे न काऽपि बाधकतेति । वार्षिकपर्वरूपपर्युषणावाचकः पर्युषणाशब्दश्चैवम् 'परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं रर्याणि उवायणावित्तए । ' 'परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए ।' इत्यादीनि श्रीकल्पवचनानि । एवम्-'पज्जोसवणाराइपडिक्कंताण अहिगरणे उप्पन्ने एसो विही । पज्जोसवणादिवसे अधिकरणे उप्पने तपो मूलं च भवति, न छेदो । जाव ठवणादिणुत्ति पज्जो - सवणादिवस इत्यर्थः । एवं तम्मि पज्जोसवणकालदिवसे तिमासगुरू भवति ।' - 'सीसो पुच्छइ - इदाणि कहं अपव्वे पज्जोसविज्जइ । आयरिओ भण्णइकारणिया चउत्थी अज्जकालगायरिएहि पवत्तिया ।' इत्यादीनि वचनानि प्रागुपदर्शितानि । एवम्- 'महाविभूइए पविट्ठो कालगज्जो । पविट्ठेहि य भणियं-भद्दवयसुद्ध Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ पंचमीए पज्जोसविज्जइ । समणसंघेण य पडिवनं । ताहे रण्णा भणियं-तद्दिवसं मम लोगाणुवित्तिए इंदो अणुजाणेयव्वो होहित्ति । साहू चेइए ण पज्जुवासिस्सं । तो छट्ठीए पज्जोसवणा कज्जउ । आयरिएहि भणियं-न वट्टइ अइक्कमेउ । ताहे रण्णा भणियंतो अणागयचउत्थीए पज्जोसविज्जइ । आयरिएण भणियं-एवं भवउ । ताहे चउत्थीए पज्जोसवियं । एवं जुगप्पहाणेहिं चउत्थी कारणे पवत्तिया । सा चेवाणुमया सव्वसाहूणं । एवम्-"रण्णा अंतेपुरियाओ भणिया-अवमंसाए उववासं काउं पाडिवयाए सव्वखज्झभोज्झविहीहिं साहू उत्तरपारणाए पडिलाभेत्ता पारेहा । पज्जोसणाए अट्ठमं ति काउं पाडिवयाए उत्तरपारणयं भवति । तं च सव्वभोगेण वि कयंति" । "अण्णया पज्जोसवणाकाले पत्ते उद्दायणो उववासी तेण सूओ विसज्जिओपज्जोअअत्थ गच्छसु 'किं ते उवसाहिज्झउत्ति' । गओ सूओ । पुच्छिओ पज्जोओ अ । संकिअं पज्जोअस्स-ण कयाइ अहं पुच्छिओ । अज्झ(ज्ज) पुच्छ कया, णूणं अहं विससंमिस्सेण भत्तेण अज्झ(माज्ज) मारिज्जिओ(उ)कामो । अहवा किं मे संदेहेण । एयं चेव पुच्छामि । पज्जोएण पुच्छिओ सूओ-अज्झ(ज्ज)मे किं पुच्छिज्ज त्ति ?। किं वाहं अज्झ(ज्ज) मारिज्जिउकामो ?। सूएण लवियं-ण तुमं मारिज्जसि । राया समणोवासओ, अज्झ(ज्ज) पज्जोसवणा । उववासी । तो ते जं इटुं अज्झ(ज्ज) ओवसाहयामित्ति पुच्छिओ। तओ पज्जोएण लवियं-अहो सपावकम्मेण वसणपत्तेण पज्जोसवणा वि ण णाया । गच्छ ! कहेहि राइणो उद्दायणस्स जहा अहं पि समणोवासगो अज्झ(ज्ज) उववासिओ । भत्तेण ण मे कज्जं । सूतेण गंतुं उद्दायणस्स कहियं सो वि समणोवासगो अज्झ(ज्ज) न भुंजति त्ति । ताहे उद्दायणो भणति-समणोवासगेण मे बद्धेण अज्झस्स सामातियं ण सुज्झति । ण य सम्मं पज्जोसवियं भवति । तं गच्छामि समणोवासगं बंधणाओ मोएमि । खामेमि य सम्मं । तेण सो मोइओ खामिओ य । ललाटमंकच्छायणट्ठाय सोवण्णो से पट्टो बद्धो । तओ पभिइ पट्टबद्धरायाणो जाया । एवं ताव जइ गिहिणो वि कयवेरा अधिकरणाइं ओसवेंति । समणेहिं पुण सव्वपावविरएहिं सुट्टयरं ओसवेयव्वं ति । जो पुण पज्जोसवणाए वि णो उवसमइ सो पव्वयराइसमाणो ।' 'जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तरियमपि आहारं' इत्यादि सूत्रम् । 'इत्तरियं पाहारं पज्जोसवणाए जो उ आहारेइ' इत्यादि भाष्यम् । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी 'थो जो आहारेइ पज्जोसवणाए सो आणादिया दोसा पावइ । चउगुरुं च पच्छित्तं । पव्वेसु तवं करेंतस्स इमो गुणो भवति ।' ___ 'उत्तरकरणगाहा । उत्तरगुणकरणं कयं भवति । एगग्गया य कया भवति । पज्जोसवणासु य वरिसा आलोयणा दायव्वा । वरिसाकालस्स य आईए मंगलं कयं भवति । सड्डाण धम्मकहा कायव्वा । पज्जोसवणाए जइ अट्ठमं न करेइ तो चउगुरुं । पज्जोसवणाकप्पो दिवसओ कड्डिउं नेव कप्पइ । जत्थ वि खेत्तं पडुच्च कड्डिज्जइ जहा दिवसओ आणंदपुरे मूलचेइयधरे सव्वजणसमक्खं कड्डिज्जइ तत्थ वि साहूण कड्डइ । पासत्थो कड्डइ तं साहू सुणेज्जा, ण दोसो । पासत्थाण वा कड्डगस्स असति डंडगेण वा अब्भत्थिओ सड्डेहिं वा । ताहे दिवसओ कड्ढइ । पज्जोसवणाकप्पकड्ढणे इमा सामायारी । अप्पणो उवस्सए पाओसिए आवस्सए कए कालं घेत्तुं काले सुद्धे वा पट्ठवेत्ता कड्डिज्जइ । एवं चउसु वि राइसु । पज्जोसवणाराइए पुण कड्डिए सव्वे साहू समप्पावणीयं काउस्सग्गं करेंति । 'पज्जोसवणाकप्पस्स समप्पावणीयं करेमि काउस्सग्गं, जं खंडियं जं विराहियं जं ण पूरियं' सव्वो डंडओ कड्डियव्वो जाव वोसिरामि त्ति । लोगस्सुज्झो(ज्जो)यकर चिंतिऊण उस्सारेत्ता पुणो लोयस्सुज्झो(ज्जो)यकर कड्डित्ता सव्वे साहवो णिसीयंति । जेण कड्ढिओ सो ताहे कालस्स पडिक्कमइ ताहे वरिसाकालट्ठवणा ठविज्जइ । एसो विही भणियो।' इत्यादीनि निशीथचूर्णिवचनानि । ___ 'अन्नया पज्जोसवणादिवसे आगए अज्जकालगेण सालिवाहणो भणियोभद्दवयजुण्हपंचमीए पज्जोसवणा' । इत्यादीनि श्रीपर्युषणाकल्पचूर्णिवचनानि । अत्र च पर्युषणाशब्दः सावंत्सरिकप्रतिक्रमणादिवार्षिककृत्यविशिष्टवार्षिकपर्वरूपपर्युषणार्थे एव रुढो बोध्यः । तत्र तद्धर्मावच्छिने रूढत्वं चानादितात्पर्यमूलकतद्धर्मप्रकारकशाब्दबोधजनकत्वमिति पर्वरूपायाः पर्युषणाया अप्यनादित्वमेवेत्यपि प्रसङ्गाद बोध्यम् । ___ पर्युषणारात्रिशब्दस्यापि पर्वरूपपर्युषणारात्र्यर्थे एव रूढत्वं बोध्यम् । तथैव तत्र तत्र पूर्वसूरिभिर्व्याख्यानानुसरणात् । यथाहि-श्रीकालिकसूरिप्रबन्धे प्रभावकचरिते - गन्तव्यं तत्प्रतिष्ठान-पुरे संयमयात्रया । श्रीसातवाहनो राजा तत्र जैनो दृढव्रतः ॥ १ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ ततो यतिद्वयं तत्र प्रैषि सङ्घाय सूरिभिः । प्राप्तेष्वस्मासु कर्त्तव्यं पर्वपर्युषणाभिधम् ॥ २ ॥ तौ तत्र सङ्गतौ सङ्घ-मानितौ वाचिकं गुरोः । तत्राऽकथयतां मेने तेनैतत्परया मुदा ॥ ३ ॥ श्रीकालकप्रभुः प्राप शनैस्तं नगरं ततः । श्रीसातवाहनस्तस्य प्रवेशोत्सवमातनोत् ॥ ४ ॥ उपपर्युषणं तत्र राजा व्यज्ञपयद् गुरुम् । अत्र देशे प्रभो ! भावी शक्रध्वजमहोत्सवः ॥ ५ ॥ नभस्यशुक्लपञ्चम्यां ततः षष्ठ्यां विधीयताम् । स्वं पर्व नैकचित्तत्वं धर्मे नो लोकपर्वणि ॥ ६ ॥ प्रभुराह प्रजापाल ! पुराऽर्हद्गणभृद्गणः । पञ्चमीं नात्यगादेतत् पर्वाऽस्मद्गुरुगीरिति ॥ ७ ॥ कम्पते मेरुचूलापि रविर्वा पश्चिमोदयः । नातिक्रमति पर्वेदं पञ्चमीरजनीं ध्रुवम् ॥ ८ ॥ राजाऽवदच्चतुर्थ्यां तत् पर्वपर्युषणं ततः । इत्थमस्तु गुरुः प्राह पूर्वैरप्याहतं ह्यदः ॥ ९ ॥ अर्वागपि यतः पर्यु- षणं कार्यमिति श्रुतिः । महीनाथस्ततः प्राह हर्षादेतत् प्रियं प्रियाम् ॥ १० ॥ यतः कुहूदिने पर्वोपवासे पौषधस्थिताः । अन्तःपुरपुरन्ध्यो मे पक्षादौ पारणाकृतः ॥ ११ ॥ तत्राष्टमं विधातॄणां निर्ग्रन्थानां महात्मनाम् । भवतु प्रासुकाहारै: श्रेष्ठमुत्तरपारणाम् ॥ १२ ॥ उवाच प्रभुरप्येतन्महादानानि पञ्च यत् । निस्तारयन्ति दत्तानि जीवं दुष्कर्मसागरात् ॥ १३ ॥ पथश्रान्ते तथा ग्लाने कृतलोचे बहुश्रुते । दानं महाफलं दत्तं तथा चोत्तरपारणे ॥ १४ ॥ ततः प्रभृति पञ्चम्या -श्चतुर्थ्यामागतं ह्यदः । कषायोपशमे हेतुः पर्व सांवत्सरं महत् ॥ १५ ॥ इति ॥ ९३ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ग्रन्थत्रयी इत्थं च वार्षिकपर्वरूपपर्युषणायाः प्रागुक्ता अनैयत्यापत्तिरपि न स्यात् । पञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनात्मकनियतदिनप्रतिबद्धत्वादेव तस्या इति । ___ न चोक्तवचनेषु पर्युषणाशब्दस्य गृहिज्ञातावस्थानरूपपर्युषणार्थकत्वमपीति वाच्यम्। इष्टापत्तेः । गृहिज्ञातमात्रार्थकत्वाभावात् । गृहिज्ञाताया एव पर्युषणायाः सांवत्सरिककृत्यविशिष्टायाः पर्वरूपपर्युषणात्वोक्तेश्च । __अत एव च तत्र-"परि-सामस्त्येन उषणं-वसनं पर्युषणा । सा द्वेधा गृहस्थैर्शाता अज्ञाता च । तत्र गृहस्थैर्शाता-यस्यां वर्षायोग्यपीठफलकादौ प्राप्ते कल्पोक्तद्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव-स्थापना क्रियते । सा चाऽऽषाढपूर्णिमायाम् । योग्यक्षेत्राभावे तु पञ्चपञ्च दिनवृद्ध्या दशपर्वतिथिक्रमेण यावत् श्रावणकृष्णपञ्चदश्यामेव । गृहिज्ञाता तु द्वेधासांवत्सरिककृत्यविशिष्टा गृहिज्ञातमात्रा चे"त्येवं तत्र तत्र विवरणमपि सङ्गच्छते । इत्थं च पर्युषणाशब्दः सामान्यतो व्यर्थः । क्वापि वर्षाकालावस्थानरूपपर्युषणार्थकः, क्वपि च वार्षिककृत्यविशिष्टपर्वरूपपर्युषणार्थक इति सिद्धम् । इत्यलं प्रसङ्गेन । तथा चाऽवस्थानपर्युषणाविषयेऽन्तराशब्दस्य व्यवहितपूर्वार्थकत्वेऽपि पर्वरूपपर्युषणाविषये तस्याऽव्यवहितपूर्वार्थकत्वमेवेति ध्येयम् । न च तथापि 'अंतरा वि य से कप्पइ, नो से कप्पइ तं रयणि उवायणावित्तए' इतिसूत्रस्य वर्षाकालावस्थानरूपपर्युषणाविषयकत्वेऽपि वार्षिकपर्वरूपपर्युषणाविषयकत्वमेव नास्तीति तद्विषये नाऽन्तराशब्दस्याऽव्यवहितपूर्वार्थकत्वसिद्धिरिति वाच्यम्। उक्तसूत्रस्य वार्षिकपर्वरूपपर्युषणाविषयकत्वाभावे प्रमाणाभावात् । प्रत्युत तेन युगप्रधानेन भगवताऽऽगमवचनसापेक्षविहितस्य 'तो छट्ठीए पज्जोसवणा किज्जउ। आयरिएण भणियं-ण वट्टइ अइक्कमिउ' इति श्रीनिशीथचूाद्युक्तस्य वार्षिकपर्वरूपपर्युषणाविषयकस्य षष्ठीनिषेधस्यान्यथानुपपत्तेरेव 'अंतरे'ति सूत्रस्य वार्षिकपर्वरूपपर्युषणाविषयकत्वे प्रमाणत्वात् । ___ न च 'नो से कप्पइ तं रयणि उवायणावित्तए' इति वचनस्यैव पर्वरूपपर्युषणाविषयकत्वं न तु 'अंतरा वि य से कप्पई' इति वचनस्यापि । एवमप्यागमवचनसापेक्षषष्ठीनिषेधकरणानुपपत्तेरभावादिति वाच्यम् । तयोर्द्वयोरपि वचनयोर्बुद्धिस्थत्वोपलक्षिततत्तद्धर्मावच्छिाशक्त से'पदवाच्यैका Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ ९५ धिकारप्रतिबद्धत्वेन समानविषयकत्वात् । अन्यथा 'ताहे चउत्थीए पज्जोसवियं । एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थो पवत्तिया । सा चेव अणुमया सव्वसाहूण' मिति तत्रैवोक्तस्य पर्वरूपपर्युषणाविषयकस्य चतुर्थीविधानस्यानुपपत्तेः । न च तत्र चतुर्थीविधानस्याऽऽगमवचननिरपेक्षत्वमिति वाच्यम् । 'जं कारणेण भणियं आरेण वि पज्जुसवियव्व' मित्यादिनाऽऽगमवचनसापेक्षत्वस्यैव तस्योक्तत्वात् । अन्यथा शालिवाहननृपविज्ञप्त्याऽऽगमवचननिरपेक्षस्य षष्ठीविधानस्यैव तत्राऽऽपत्तेर्दुरुद्धरत्वात् । इत्थं च समानविषयकत्वादेव तत्र 'नो से कप्पइ तं रयणि उवायणावित्तए' इति वचनस्य 'तत्रैव कल्पते' इति नियमतात्पर्यकस्य पर्वरूपपर्युषणाविषये उत्सर्गवचनत्वम्। ‘अंतरा वि य से कप्पइ' इति वचनस्य चापवादवचनत्वम् । उत्सर्गापवादोभयमूर्त्तिकस्यैव सूत्रस्य सम्पूर्णार्थप्रापकत्वात् । अत एव च परिपूर्णार्थप्रापकलक्षणं अर्थांशप्रापकत्वलक्षणलौकिकप्रामाण्यविलक्षण मलौकिकप्रामाण्यमुपपद्यते इति । एवं 'जं कारणेण भणियं आरेण वि पज्जुसवियव्वं' इति पुष्पमालावृत्तिवचनेन "अर्वागपि यतः पर्युषणं कार्यमिति श्रुतिः " ॥ इति प्रागुक्त श्रीकालिकसूरिप्रबन्धवचनेन च स्पष्टमेवोक्तं 'अंतरा वि य से कप्पइ' इति वचनस्य पर्वरूपपर्युषणाविषयकत्वम् । तत्र पर्युषणाशब्दस्य पर्वरूपपर्युषणापरत्वात् । 'आरेणवि' 'अर्वागपि' इत्यादि वचनस्यापि तत्र 'अंतरा वि य से कप्पइ' इत्यस्यैवानुवादकत्वात् । तथा च 'अंतरा वि य से कप्पर' इत्यस्यापि पर्वरूपपर्युषणाविषयकत्वसिद्धौ तत्र प्रागुक्तरीत्याऽन्तराशब्दस्याऽव्यवहितपूर्वार्थकत्वे नानुपपत्तिलेशोऽपीति । अव्यवहितपूर्वत्वं चात्राऽऽराध्यात्मकौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनादव्यवहितपूर्वदिनत्वं बोध्यम् । सावधिकभावानामवधिज्ञानव्यङ्ग्यत्वनियमात् । उक्तपञ्चमीदिनस्यैव च तत्राऽवधित्वादिति । इत्थं च टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चम्यां क्षये वृद्धौ वा भाद्रशुक्लचतुर्थ्याः क्षये वृद्धौ वाऽऽराधनायां न कुत्राऽपि काऽप्यनुपपत्तिः । भगवत् श्रीकालिकाचार्यादनु सर्वदाप्याराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वेनैव श्रीपर्युषणापर्वकर्त्तव्यता प्रयोजकत्वादिति । इत्थमेव च 'पज्जोसवणाए 'अट्ठमं' ति काउं पाडिवयाए उत्तरपारणयं च भवइ' Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ग्रन्थत्रयी इति प्रागुपदशित श्रीनिशीथचूर्णिवचने 'प्रतिपत्' शब्दस्याऽपि न प्रतिपद्दिनपरत्वमेव व्याख्येयम् । तथा सति सर्वदाऽप्युत्तरपारणकस्य प्रतिपद्दिन एव कर्त्तव्यतापत्तेः । न चैतदिष्टं तवापि । भाद्रशुक्ल तृतीयादिवृद्धौ तवापि दितीयादिन एवोत्तरपारणकस्येष्टत्वात् । तृतीयादिक्षये चाऽमावास्यायामेव तस्येष्टत्वात् । किन्तु शक्यलक्ष्योभयवृत्तिधर्मावच्छिन्नविषयकलक्षणात्मकाऽजहल्लक्षणारूपयाऽर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्यया पर्युषणाष्टमाव्यवहितपूर्वदिनपरत्वमेव तत्र 'प्रतिपत्' शब्दस्य व्याख्येयम् । तदुद्देशेनैव तत्र 'प्रतिपत्'शब्दस्य प्रवृत्तेः । न च तत्र तृतीयादिक्षय-वृद्ध्यभावापेक्षयैव प्रतिपच्छब्दस्य प्रयोग इति वाच्यम् । 'चउत्थी पत्तिया' इत्यत्रापि पञ्चमीक्षय वृद्ध्यभावापेक्षयैव चतुर्थीशब्दस्य प्रयोग इत्यस्यापि सुवचत्वात् । इत्थमप्यस्माकमेव सिद्धान्तो व्यवतिष्ठते । किञ्च 'अणागयचउत्थीए' इत्यत्र निशीथचूर्णौ किं नामऽनागतत्वम् ? किमागामित्वम्, किं वाऽनन्तरत्वम्, किं वाऽनतिक्रान्तत्वम् ? न तावदागामित्वम् । तद्धि किं नृपविज्ञप्तिदिनापेक्षया वा, किं वा पर्वरूपभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनापेक्षया वा ? | नाद्यः । आगामित्वं हि भविष्यत्त्वम् । तच्च वर्त्तमानकालीनप्रागभावप्रतियोगित्वमेव । तत्तु नृपविज्ञप्तिदिवसापेक्षया यथा चतुर्थीदिने तथा तृतीयादिनेऽपि वर्त्तते । इति विशेषाभावेन व्यवच्छेद्याभावात् तद्विशेषणस्य वैयर्थ्यम् । 'सम्भवव्यभिचाराभ्यां स्याद्विशेषणमर्थव 'दिति नियमात् । न द्वितीय: । असम्भवात् । भाद्रशुक्लपञ्चमीदिनापेक्षयाऽनागतत्वस्य षष्ठ्यादावेव सत्त्वेन चतुर्थ्यां तदभावात् । पञ्चमीदिनापेक्षयाऽनागतत्वं हि पञ्चमीदिनवृत्तिप्रागभावप्रतियोगित्वमेव । तच्च चतुर्थीदिने नास्त्येव । तत्र पञ्चमीदिनवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वस्यैव सत्त्वात् । एवं - 'संवच्छरिए आवासए कए पज्जोसवणाकप्पो कडिज्जइ । पुव्वि चेव अणागयं पंचरतं सव्वसाहूणं सुणिताणं कड्डिज्जइ कहिज्जइ य त्ति ।' इति आवश्यकचूर्णी; एवं - 'संवच्छरिए आवस्सए कए पाओसिए पज्जोसवणाकप्पो कडिज्जइ । सो पुण पुव्वि च अणागयं पंचरत्तं कड्डिज्जइ य । एसा सामायारी त्ति ।' इति आवश्यकबृहद्वृत्तौ च। ‘अणागयं पंचरत्तं' इत्यत्रापि पञ्चसु रात्रिषु तादृशानागतत्वस्याऽसम्भव एव । तत्रापि Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ सांवत्सरिकाहोरात्रसम्बन्धिरात्र्यपेक्षयैवाऽनागतत्वस्येष्टत्वादिति । अथानन्तरत्वमिति द्वितीयपक्षोऽभीष्टः । तथा हि-'अणागय चउत्थीए' इत्यत्रानागतत्वं नागामित्वरूपं किन्त्वनन्तरत्वरूपम् । तच्चाव्यवहितत्वमेव । तत्पुनः भाद्रशुक्लपञ्चमीदिनापेक्षयैव बोध्यम् । तस्य च पूर्वोत्तरकालापेक्षया द्वैविध्येनोत्तरदिने षष्ठ्यामपि सद्भावः, पूर्वदिने चतुर्थ्यामपि च सद्भावः, नान्यत्र । तृतीयासप्तम्योः पञ्चम्यपेक्षयाव्यवहितत्वात् । तत्रापि 'ण वट्टइ अइक्कमिउ' इत्यनेन षष्ठ्या निषिद्धत्वेन चतुर्थीगतमेव तद्ग्राह्यमिति नाऽसम्भवः, न वा तद्वैयर्थ्यम् । तृतीयादेर्व्यवहितत्वेनाऽनन्तरत्वाभावात्तृतीयादिव्यवच्छेदकतयैव तस्य सार्थक्यात् । एवं प्रागुपदर्शिताऽऽवश्यकचूादावपि 'अणागयं' इत्यत्रानन्तरत्वरूपमेवाऽनागतत्वम् । इत्थमेव च तत्र 'पुवि' इति विशेषणस्यापि सार्थकत्वम् । अनन्तरत्वस्य सांवत्सरिकदिनरात्र्युत्तरदिनरात्रावपि सत्त्वेन तद्व्यवच्छेदकत्वादिति चेत् । तदाहि 'अणागयचउत्थीए' इतिवचनेनौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनात् प्रागनन्तरदिनतयैव चतुर्थीदिने पर्वरूपा पर्युषणा श्रीकालिकाचार्यभगवता प्रतितेति सिद्धमिति, प्रागनन्तरदिनत्वस्यैव तत्र प्रयोजकत्वं प्राप्तं न तु चतुर्थीदिनत्वस्य । तथा च टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावप्यौदयिकपञ्चमीदिनात्मकटिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिनादनन्तरदिन एव पर्युषणा प्रासेति अस्मिन् वर्षेऽपि विवादापन्ने गुरुवासर एव सा युक्ता । तत्रैव दिने आराध्यरूपौदयिकपञ्चमीदिनात् प्रागनन्तरदिनत्वसत्त्वादिति त्वयाऽस्माकमेव पन्था विशदीकृतः । न च तत्र चतुर्थीदिनत्वेनैव प्रयोजकत्वं, न तु प्रागनन्तरदिनत्वेनेति युक्तम् । अनन्तरार्थक अणागय' इत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेः । तृतीयादिनस्य प्रयोजकात्मकचतुर्थीदिनत्वाभावेनैव व्यवच्छेदात् । अत एव प्रागनन्तरदिनत्वे सति चतुर्थीदिनत्वेनैव तत्र प्रयोजकत्वमित्यपि न युक्तम् । प्रागनन्तरदिनत्वस्य चतुर्थीदिन एव सत्त्वेन तद्व्यवच्छेद्यान्तराभावेन वैयर्थ्यापत्तेस्तादवस्थ्यात् । टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धौ टिप्पनकोक्तचतुर्थीदिने पर्युषणादिनतया त्वदभिमते तदभावाच्च । तस्याऽऽरा-ध्यरूपौदयिकपञ्चमीदिनव्यवहितदिनत्वेन प्रागनन्तरदिनत्वाभावात् । प्रत्युत शास्त्राबाधित-शास्त्रानुसारिप्रागुपदर्शिताविच्छिन्नसुविहितपरम्परया टिप्पनकोक्तभाद्रशुक्लप्रथमपञ्चमीदिन एव पर्वाराधनायामौदयिकचतुर्थीदिनत्वेनैव गणनीये प्रागनन्तरत्वे सति चतुर्थीदिनत्वस्य सत्त्वादस्मिन् वर्षेऽपि विवादापन्ने गुरुवासर एव पर्युषणाकर्त्तव्यताया युक्तत्वसिद्धेश्च । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ अथ 'णवट्टइ अइक्कमिउं' इत्यनेन षष्ठ्याः पञ्चम्यपेक्षयाऽतिक्रान्तत्वेनैव निषिद्धत्वं, चतुर्थ्याश्च तदपेक्षयाऽनतिक्रान्त्वेनैव राज्ञा 'ता अणागयचउत्थीए पज्जोसविति' इति चतुर्थीविषया पर्युषणाकरणविज्ञप्तिः कृतेति, 'अणागथ' इत्यत्रानागतत्वं नागामित्वरूपं न वाऽनन्तरत्वरूपं किन्त्वनतिक्रान्तत्वरूपमेव बोध्यम् । उक्तरीत्या प्रकरणादिना तत्रैवार्थे तत्तात्पर्यस्य युक्तत्वात् । आगता - पर्युषणारात्र्यात्मकपञ्चमीरात्रिं प्राप्ता, अतिक्रान्ता उल्लङ्घितेति यावत् । न आगता-अनागता - अनतिक्रान्ता, तस्या भावोऽनतिक्रान्तत्वमिति व्युत्पत्त्यापि तदर्थलाभाच्च । तथा च तृतीय एव पक्षः श्रेयान् । न चैवं पञ्चम्यपेक्षयाऽनतिक्रान्तत्वं तत्पूर्ववर्त्तित्वरूपार्थ एव पर्यवसितमिति प्रागुक्ताऽऽवश्यकचूर्ण्यादौ 'पुव्वि अणागयं' इत्यत्र 'पुव्वि' इति पदस्य वैयर्थ्यम् । तदर्थस्य त्वदुक्तरीत्या 'अणागयं' इत्यनेनैव लाभादिति वाच्यम् । तत्राऽव्यवहितपूर्ववर्त्तित्वलाभार्थकतयैव तस्य सार्थक्यकल्पनादिति चेत् । ग्रन्थत्रयी एवमपि पञ्चम्यपेक्षयाऽनतिक्रान्तत्वस्य तृतीयायामपि सत्त्वेन तदव्यवच्छेदात् तत्राऽपि पर्युषणापर्वकर्तव्यतापत्तेः । न चाऽनतिक्रान्तत्वे सति चतुर्थीदिनत्वस्यैव तत्र प्रयोजकत्वमिति वाच्यम् । अनतिक्रान्तत्वे सति तृतीयादिनत्वस्यैव कथं न प्रयोजकत्वमित्यस्यापि वाच्यत्वात् । यधाराध्यरूपौदयिकपञ्चमीदिनापेक्षयाऽनतिक्रान्तत्वे सति प्रथमोपस्थितत्वं चतुर्थीदिन एव न तु तृतीयादिने, इत्यनतिक्रान्तत्वे सति चतुर्थीदिनत्वस्यैव प्रयोजकत्वमिति चेत् । तर्ह्याराध्यरूपौदयिकपञ्चमीदिनापेक्षयाऽनतिक्रान्तत्वे सति प्रथमोपस्थितदिनत्वेनैव तत्र प्रयोजकता युक्ताऽधिकस्य वैयर्थ्यात् । चतुर्थीदिनत्वस्य प्रयोजकत्वकोटयै प्रवेशे प्रयोजनाभावात् । चतुर्थीदिनत्वं तु तत्रावर्जनीयसिद्धसन्निधिकमेव न तु प्रयोजकमिति सिद्धम् । तथा चात्रापीष्टापत्तिरेवास्माकम् । टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावाराध्यात्मकौदयिकपञ्चमीदिनापेक्षयाऽनतिक्रान्तत्वे सति प्रथमोपस्थितदिनत्वस्य टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिन एव सत्त्वात् । इत्थमप्यस्मिन् वर्षे विवादापत्रे गुरुवासरे एव पर्युषणाकर्तव्यतासिद्धिः, न तु बुधवासरे । गुरुवासर एवोक्तस्वरूपप्रयोजकस्य सत्त्वादिति । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ इत्थं च टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावाराध्यरूपौदयिकपञ्चमीदिनात्मकटिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिन एव पर्युषणापर्व विधेयम् । अस्मिन् वर्षे च विवादापन्ने गुरुवासर एव विधेयम् । गतवर्षेऽपि तद् विवादापने रविवासर एव युक्तमासीदित्यागमप्रामाण्यादपि सिद्धम् । तथा च निष्प्रत्यूहमेव सिद्धमागमस्याप्यस्मदुक्तसिद्धान्तसाधकत्वमिति । आगमबाधितत्वं तु प्राक् त्वयोक्तं अस्मदुक्तसिद्धान्तस्य दूरोत्सारितमेवेति बोध्यम् । एतेनानुमानबाधितत्वमपि तस्य निरस्तम् । आगमसिद्धेऽर्थेऽनुमानबाधितत्वस्याप्यसम्भवात् । ___ ननु तथापि, विवादापन्नो बुधवासरः, श्री पर्युषणापर्वकर्तव्यताकः, औदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वात्; अत्रानुमाने को दोषः ? इति चेत् ।। न । अप्रयोजकत्वात् । न च निरुपाधिकत्वेन नास्यानुमानस्याऽप्रयोजकत्वमिति वाच्यम् । आराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वरूपोपाधेर्जागरूकत्वात् । उपाधिर्हि-साधनाव्यापकत्वे सति साध्यव्यापकः । तद्धर्मभूता हि व्याप्तिर्जपाकुसुमरक्ततेव स्फटिके साधनाभिमते चकास्तीत्युपाधिरसावुच्यते । तदिदमाहुः -- अन्ये परप्रयुक्तानां, व्याप्तीनामुपजीवकाः । तैदृष्टैरपि नैवेष्टा, व्यापकांशावधारणा ॥" इति । यद्व्यावृत्त्या यस्य साधनस्य साध्यं पक्षे व्यावर्तते स धर्मस्तत्र हेतावुपाधिरिति फलितोऽर्थः । यथाऽऽर्दैन्धनवत्त्वं वह्निमत्त्वे । व्यावर्तते हि तव्यावृत्त्या धूमवत्त्वं तप्तायःपिण्डे । एवं विवादापने बुधवासरे शनिवासरे वा पक्षे व्यावर्तमानमाराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वं स्वव्याप्यं पर्युषणापर्वकर्तव्यताकत्वमपि व्यावर्तयति । व्यापकनिवृत्त्या व्याप्यनिवृत्तेनियतत्वात् । एवं हेतावुपाधिव्यभिचारेण साध्यव्यभिचारोऽपि स्फुट एव । व्यापकव्यभिचारिणो व्याप्यव्यभिचारावश्यकत्वात् । यथा-तप्ताय:पिण्डो धूमवान् वढेरित्यादौ, तत्र हि वह्निधूमव्यभिचारी, धूमव्यापकार्टेन्धनसंयोगव्यभिचारित्वादिति व्यभिचारानुमानम् । तथाऽत्रापि हेतुत्वेनाभिमतमौदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वं पर्युषणापर्वकर्तव्यताकत्वरूपसाध्यव्यभिचारि तादृशसाध्यव्यापकाराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वव्यभिचारित्वादिति व्यभिचारानुमानम् । तथा च हेतोर्व्यभिचरितत्वमपि । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ग्रन्थत्रयी ननु हेतौ साध्याभाववद्वृत्तित्वमेव व्यभिचार इति कोऽत्र साध्याभाववान् यदृत्तित्वं हेतावापाद्यत इति चेत् । न । यत्र टिप्पनके भाद्रशुक्लपक्षे चतुर्थीद्वयं स्यात्; यथा टिप्पनके रविवासरे प्रथमा चतुर्थी, सोमवासरे द्वितीया चतुर्थी, तत्राऽऽवयोरुभयोरपि पर्युषणापर्वकर्तव्यताकत्वं टिप्पनकोक्तद्वितीयचतुर्थीदिनात्मके सोमवासर एव सम्मतम् । तत्र रविवासरे साध्याभाववति हेतोः सत्त्वाद् व्यभिचारात् । न च तत्र रविवासरे टिप्पनके चतुर्थीदिनत्वसत्त्वेऽप्याराधनायामौदयिकचतुर्थीदिनत्वानभ्युपगमेनैव तत्र तद्रूपहेतोरसत्त्वादेव न व्यभिचार इति वाच्यम् । ___ तर्हि हेतावौदयिकत्वस्य वैयर्थ्याद् व्याप्यत्वासिद्ध्यापत्तेः । व्यर्थविशेषणघटितत्वस्यैव तल्लक्षणत्वादित्युभयतःपाशारज्जुः । ननु भाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वस्यैव तत्र हेतुताऽस्त्विति चेत् । न । प्रागुक्तटिप्पनकोक्तप्रथमचतुर्थीदिनात्मके रविवासरे व्यभिचारापत्तेस्तादवस्थ्यात् । न च टिप्पनके भाद्रशुक्लचतुर्थीवृद्धौ तस्याश्च पर्युषणारूपपर्वतिथित्वेनाराधनायां टिप्पनकोक्तद्वितीयचतुर्थीदिन एवौदयिकचतुर्थीदिनत्वं स्वीक्रियते । 'वृद्धौ कार्यातथोत्तरे' ति वचनात् । टिप्पनके यथैकादशीप्रभृतितिथिवृद्धौ टिप्पनकोक्तद्वितीयैकादश्यादिदिन एवाराधनायामौदयिकैकादश्यादिदिनत्वं न तु टिप्पनकोक्तप्रथमैकादश्यादिदिने, तत्राराधनायां द्वितीयदशम्यादिदिनत्वस्यैव स्वीकारात् । अन्यथा टिप्पनकोक्तभाद्रशुक्लप्रथमचतुर्थीदिनेऽपि पर्युषणापर्वाराधनापत्तिः स्यात्, विनिगमकाभावात् । तथा च तत्र टिप्पनकोक्तप्रथमचतुर्थीदिन उक्तवचनादौदयिकचतुर्थीदिनत्वनिवृत्त्यौदयिकतृतीयादिनत्वमेवाभ्युपगमनीयमिति न तत्र व्यभिचारस्तत्र हेतोरेवासत्त्वादिति वाच्यम् । एवं हि टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावस्माभिरपि 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'तिवचनादेव टिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिन एवौदयिकपञ्चमीदिनत्वं स्वीक्रियते। तथा चोक्तरीत्या तत्र टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने औदयिकपञ्चमीदिनत्वनिवृत्त्यौदयिकचतुर्थीदिनत्वमेवाभ्युपगमनीयमिति तत्रैव पर्युषणापर्व विधेयम् । इति तवाप्यस्मिन् वर्षे विवादापने गुरुवासर एव तत्कर्तव्यमिति सिद्धमिति विवादानवकाशः । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १०१ न च गुरुवासरे टिप्पनके पञ्चमीदिनत्वादाराधनायां तत्रौदयिकचतुर्थीदिनत्वमारोपितमेवेति वाच्यम् । तवापि प्रागुक्तं टिप्पनकोक्तप्रथमचतुर्थीदिनेऽभ्युपगतमौदयिकतृतीयादिनत्वमप्यारोपितमेव मन्तव्यम् । टिप्पनके तु तत्र चतुर्थीदिनत्वादिति तुल्यत्वात् । न च तत्र 'वृद्धौ कार्ये' ति वचनादेवौदयिकतृतीयादिनत्वस्य प्राप्तत्वेन तस्यारोपितत्वेऽपि न क्षतिरिति वाच्यम् । अस्माकमपि टिप्पनके पञ्चमीवृद्धौ ‘वृद्धौ कार्ये' तिवचनादेव टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने औदयिकचतुर्थीदिनत्वाभ्युपगमस्य प्राप्तत्वेन तस्यारोपितत्वेऽपि नैव क्षतिरित्यस्यापि तुल्यत्वादिति ।। __स्यादेतत् । भाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वे सत्यौदयिकचतुर्थीदिनत्वादित्येव तत्र हेतुरस्तु, इति चेत् । न । पूर्वोक्तहेतुतावच्छेदकातिरिक्तहेतुतावच्छेदकविशिष्टहेतुकथनरूपस्य हेत्वन्तरस्यापत्तेः । तत्रौदयिकत्वस्य व्यर्थत्वाद् व्याप्यत्वासिद्धेश्च । किञ्च, टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमी गुरुवासरे शुक्रवासरे चेति दिनद्वयव्यापिनी वर्तते । तत्राराधनायां त्वया भाद्रशुक्लपञ्चमीदिनत्वं किं गुरुवासरेऽभ्युपगम्यते किं वा शुक्रवासरे किं वा द्वयोरपि दिनयोः ?। ___ आधे-स्वीकृतसिद्धान्तप्रच्यवनरूपोऽपसिद्धान्तो दुर्निवारस्ते । त्वया हि यस्मिन् रव्यादिदिने या तिथि: समाप्यते स एव रव्यादिदिनस्तत्तिथित्वेनाभ्युपगम्यते । इति त्वदभिमतलक्षणानुसारेण गुरुवासरे पञ्चम्यास्तिथेः समाप्त्यभावेऽपि गुरुवासरे पञ्चमीदिनत्वाभ्युपगमात् । पञ्चमीपर्वाराधनायाश्च गुरुवासरे एव कर्त्तव्यताप्रसक्तेः । 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' त्याज्ञाभङ्गापत्तेरपि वज्रलेपायितापत्तेश्च । द्वितीये, पञ्चम्याः तिथेः शुक्रवासर एव समाप्तिमत्त्वेन शुक्रदिनस्यैव पञ्चमीदिनत्वाभ्युपगमे पञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वस्य बुधवासरेऽभावात्स्वरूपासिद्धो हेतुः । एतेन तृतीयपक्षोऽपि निरस्तः । पक्षद्वयोपदर्शितदोषापत्तेः । न च, टिप्पनके गुरुवासरे प्रथमा पञ्चमी वर्तते शुक्रवासरे च द्वितीया पञ्चमी। तत्र 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनेन पञ्चम्याराधनाया द्वितीयपञ्चमीदिने शुक्रवासरे एव विधेयता न तु प्रथमपञ्चमीदिने गुरुवासरे । हेतुश्च भाद्रशुक्लप्रथमपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ग्रन्थत्रयी सति चतुर्थीदिनत्वादिति । तथा च नाऽसिद्धिर्न वाऽऽज्ञाभङ्गापत्तिरिति वाच्यम् । तत्र चतुर्थीदिनत्वस्य वैयर्थ्याद् हेतोळप्यत्वासिद्धः । त्वदभिमतलक्षणानुसारेण प्रथमपञ्चमीदिने गुरुवासरे पञ्चम्याः समाप्त्यभावेन पञ्चमीदिनत्वस्यैवासिद्धेः विशेषणासिद्धेविशिष्टस्य हेतोरप्यसिद्धेश्च । 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनेन च प्रथमपञ्चमीदिने औदयिकचतुर्थीदिनत्वस्यैवाभ्युपगमनीयत्वस्योक्तत्वाद् वक्ष्यमाणत्वाच्च । । एवं विवादापन्नो बुधवासरो, न पर्युषणापर्वकर्तव्यताकः, आराध्यरूपौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनव्यवहितपूर्वदिनत्वात् । 'नो से कप्पइ तं रयणिं उवायणावित्तए' इत्यत्र तत्पदवाच्यरात्रिव्यवहितरात्रिसम्बन्धिदिनत्वादित्यर्थः । इति साध्याभावसाधकहेत्वन्तरसद्भावेन तव हेतोः सत्प्रतिपक्षत्वमपि दुरुद्धरमिति । तथा चानुमानादपि विवादापन्ने बुधवासरे गतवर्षीये शनिवासरे वाऽऽराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनव्यवहितपूर्वदिनात्मके न पर्युषणापर्वकर्तव्यतासिद्धिः । इत्यनुमानबाधितत्वमप्यस्मत्सिद्धान्तस्य दूरोत्सारितमेवेति । प्रत्युताऽनुमानादपि विवादापने गुरुवासरे गतवर्षीये रविवासर एवाराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनात्मके पर्युषणापर्वकर्तव्यता निराबाधा सिध्यति । तथा हि-विवादापनो गुरुवासरो गतवर्षीयो रविवासरो वा श्रीपर्युषणापर्वकर्तव्यताकः आराध्यरूपौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्वात् । 'नो से कप्पइ तं रयणि उवायणावित्तए' इत्यत्र तत्पदवाच्यरात्र्यव्यवहितपूर्वरात्रिसम्बन्धिदिनत्वादित्यर्थः। न चात्र हेतोः सत्प्रतिपक्षत्वमिति वाच्यम् । मिथो विरुद्धयोर्हेत्वोस्तुल्यबलत्वाभावात् । अन्यथा वस्तुनो विरुद्धद्वैरूप्यापत्तेः । न च तुल्यबलत्वेन प्रतिसंहितेन हेतुना सत्प्रतिपक्षत्वापादनं भविष्यतीति वाच्यम् । तोकस्य हेतोरन्यतमाङ्गवैकल्यचिन्तायामस्मदुक्तहेतोर्वैकल्ये तस्यैवोद्भाव्यत्वात् । अवैकल्ये च त्वदीयेनैवहेतुना विकलेन भवितव्यमिति हीनस्य न सत्प्रतिपक्षत्वम् । ननु तथापि विवादापन्नो गुरुवासरो गतवर्षीयो रविवासरो वा न पर्युषणापर्वकर्तव्यताकः, औदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वाभावादित्यत्रापि साधनदशायां किञ्चिद्वाच्यमिति चेद् असिद्धिरेव । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १०३ विवादापन्नो गुरुवासर औदयिकभाद्रशुक्लचतुर्थीदिनत्वाभाववान् पञ्चमीदिनत्वादिति सिद्ध्यतीति चेत् । न । एतस्याप्यसिद्धेः । न हि गुरुवासरे पञ्चमीतिथेः समाप्तिमत्त्वाभावे पञ्चमीदिनत्वसिद्धिः । या तिथिर्यस्मिन्नेवादित्यवारलक्षणे दिने समाप्यते स दिनस्तत्तिथित्वेन स्वीकार्य इति तव सिद्धान्तात् । प्रत्युत शुक्रवासर एव पञ्चमीतिथि: समाप्तिमतीति शुक्रदिनस्यैवाराधनायां पञ्चमीदिनत्वम् । तदव्यवहितपूर्वदिनत्वाच्चाराधनायां गुरुवासरे चतुर्थीदिनत्वमेवेति । तत्र तदभावो निष्प्रमाण एवेत्यतोऽप्यसिद्धिर्दुरुद्धरा । न च टिप्पनके गुरुवासरेऽपि पञ्चम्येव तिथिरस्तीति तत्र पञ्चमीदिनत्वमेवेति प्रमाणबाधितोऽयमुक्तोऽर्थ इति वाच्यम् । एतत्प्रमाणबाधितत्वस्य समासिघटिततिथिलक्षणाङ्गीकारिणस्तवापि तुल्यत्वात्। .. तत्र गुरुवासरे पञ्चमीसमाप्त्यभावेन तत्र पञ्चमीदिनत्वस्यापि त्वयाऽस्वीकार्यत्वात् । किञ्च, यदा टिप्पनके सोमवासरे त्रयोदशी साधिके द्वे घटिके यावत्, तदनु साधिकास्त्रिपञ्चाशद्धटिका यावत् चतुर्दशी, तदनु च साधिकास्तिस्रो घटिका यावदमावास्या। तत्र टिप्पनके सोमवासरे चतुर्दश्याः क्षयो वर्तते त्रयोदश्येव चौदयिकी वर्तते । त्वयापि तत्र कथं सोमवासरे औदयिकचतुर्दश्यभावेऽप्यौदयिक्यां त्रयोदश्यामेव चतुर्दश्याराधनं क्रियते ?। एवमेव च यदा टिप्पनके भाद्रशुक्लचतुर्थ्याः क्षयः स्यात् तदापि टिप्पनके तृतीयैवौदयिकी स्यान तु चतुर्थीत्यौदयिकचतुर्थ्या अभावेऽप्यौदयिकतृतीयायामेव त्वया कथं पर्युषणापर्वाराधना विधीयते ?। आराधनायामपि त्वया सर्वत्र तिथौ टिप्पनकोक्तौदयिकत्वस्यैव स्वीकारात् । तस्य च क्षीणचतुर्थ्यामभावात् । सूर्योदयास्पर्शित्वरूपानौदयिकत्वस्यैव तिथौ क्षीणत्वरूपत्वात् । तथा च'इयराए कीरमाणीए । आणाभंगऽणवत्था मिच्छत्तविराहणं पावे' इति वचनोपदर्शिताज्ञाभङ्गादिप्रत्यवायोऽपि तत्र तत्र तव वज्रलेपायित एव कथं न स्यात् ?। न च तत्र त्रयोदश्या एव चतुर्दशीत्वेन स्वीकार एवं तृतीयाया एव चतुर्थीत्वेन स्वीकार इति वाच्यम् । टिप्पनकानुसारेणौदयिकतिथिस्वीकारान्यतिथितिरस्काराग्रहवतस्तव तत्रौदयिक्यास्त्रयोदश्याश्चतुर्दशीत्वेन स्वीकारस्यौदयिक्यास्तृतीयायाश्चतुर्थीत्वेन स्वीकारस्याप्ययुक्तवात् । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ग्रन्थत्रयी न च तत्र त्रयोदशीतिव्यपदेशस्याप्यसम्भवः । प्रायश्चित्तादिविधौ चतुर्दश्येवेति व्यपदिश्यमानत्वात् । एवमुक्तचतुर्थीक्षयेऽपि तत्र दिने तृतीयेति व्यपदेशस्याप्यसम्भवः किन्तु चतुर्थीत्येव तत्र व्यपदेश इति वाच्यम् । एतदर्थस्यापि प्रमाणबाधितत्वात् । टिप्पनके तत्र दिने चतुर्दश्या उक्तचतुर्थ्याचौदयिकत्वाभावात् त्रयोदश्येव तृतीयैव च तत्तद्दिने टिप्पनके औदयिकी वर्तते । 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्यादिना चौदयिक्या एव तिथेः प्रामाण्यं व्यवस्थापितम् । अन्यथा तत्र दिने चतुर्दश्याः टिप्पनके औदयिकत्वाभावेऽपि चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्ये चतुर्दशीत्वेन व्यपदेशे वा, एवं भाद्रशुक्लचतुर्थ्याः टिप्पनके औदयिकत्वाभावेऽपि चतुर्थीत्वेन तत्र दिने प्रामाण्ये व्यपदेशे वाऽतिप्रसङ्गापत्तिः । ननु सामान्यवचनेन तत्र बाधेऽपि 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये' तिविशेषवचनस्यैवात्रार्थे प्रामाण्यमिति नोक्तार्थस्य प्रमाणबाधितत्वम् तथा हि-टिप्पनके पर्वतिथिक्षये 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्येति वचनं यत्र दिने यस्याः पर्वतिथेः क्षयः स्यात्तत्र दिने पूर्वातिथिरेव पर्वतिथित्वेन प्रमाणीकार्येति नियमयति । इत्थं च प्रागुक्तसोमवासरे टिप्पनके चतुर्दश्याः क्षये प्राप्ते तत्र दिने पूर्वा तिथिसैदयिकी योदश्येवौदयिकचतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकार्या । तथा च तत्र दिने चतुर्दशीतिव्यपदेशस्य चतुर्दश्याराधनायाश्च नैव प्रमाणबाधितत्वम् । एवं टिप्पनके भाद्रशुक्लचतुर्थ्याः क्षयेऽपि तत्र दिने पूर्वा तिथिरौदयिकी तृतीयैवौदयिकचतुर्थीत्वेन प्रमाणीकार्येति तत्र दिने भाद्रशुक्लचतुर्थीतिव्यपदेशस्य पर्युषणा पर्वाराधनायाश्च नैव प्रमाणबाधितत्वमिति चेत् ।। ___ एवं तर्हि विवादापने गुरुवासरेऽपि पञ्चमीदिनत्वाभावे औदयिकचतुर्थीदिनत्वे च 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'तिविशेषवचनस्यैव प्रामाण्यम् । तथा हि-'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति-वचनं हि टिप्पनके सूर्योदयद्वयस्पर्शिन्यां वृद्धायां तिथावुत्तरदिनसूर्योदयस्पर्शिन्युत्तरैव तिथिस्तत्तिथित्वेन प्रमाणीकार्येति नियमयति । निवर्तयति च पूर्वदिनसूर्योदयस्पर्शिन्यां पूर्वस्यां तिथौ तत्तिथित्वेन प्रामाण्यम् । अन्यथा तत्रापि तत्तिथ्याराधनाकर्तव्यतापत्तेः । यथा टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमी गुरुवासरे शुक्रवासरे चौदयिकी वर्तते । इति दिनद्वयेऽपि 'उदयंमि जा तिहि 'प्रातः' इत्यादिना च पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यं प्राप्तम् । दिनद्वयेऽपि तत्र सूर्योदयवेलायां पञ्चम्याः सत्त्वात् । अथवा च 'वृद्धौ कार्येति वचनम्-उत्तरा तिथि: शुक्रवासरे या तिथिः सैव पञ्चमीत्वेन प्रमाणीकार्येति नियमयति । पूर्वा तिथिर्गुरुवासरे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १०५ या तिथिः सा पञ्चमीत्वेन प्रमाणीकार्येति गुरुवासरे टिप्पनकोतपञ्चम्यां 'उदयंमि जा तिहि' इत्यादिना प्राप्तं पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यं च व्यावर्त्तयति । न च गुरुवासरे प्रथमपञ्चम्यां पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यव्यावर्तकत्वेऽस्य वचनस्य किं प्रमाणम् इतरनिवृत्तिवाचकस्य पदस्य तत्राभावादिति वाच्यम् । , इतरनिवृत्तिवाचकपदाभावेऽप्यस्य वचनस्येतरनिवृत्तिपरत्वादेव । अन्यथैतद्वचनारम्भस्यैव वैयर्थ्यापत्तेः । उत्तरस्यां शुक्रवासरतिथावपि 'उदयंमि जा तिहि' इत्यादि - वचनेनैव पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यस्य प्राप्तत्वात् । न चास्तु 'वृद्धौ कार्ये' ति वचनस्य वैयर्थ्यमिति वाच्यम् । पूर्वाचार्यवचनतात्पर्यावधारणशक्त्यभाववतस्तव तद्वैयर्थ्यं कथयतो महाशातनाप्रसङ्गात् । आरम्भे सति प्रयोजनमवश्यमिति व्याप्तेश्च । न ह्यापाततः प्रयोजनानुपलम्भे आरम्भवैयर्थ्यम्, इतरनिवृत्तिरूपप्रयोजनस्योक्तत्वाच्च । इत्थमेव चेदं वचनम् । “तत्र चान्यत्र च प्राप्तौ परिसङ्ख्याभिधीयते -" इत्यन्यत्रोपदर्शितः परिसङ्ख्याविधिरित्यपि कथ्यते । I 'उभयस्य युगपत्प्राप्तावितरव्यावृत्तिपरो विधि: परिसङ्ख्याविधि 'रिति हि तल्लक्षणम् । नेदं हि वचनं टिप्पनके तिथिवृद्धावुत्तरतिथिप्रामाण्यपरम् । तस्य 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्यादिवचनेनैव प्राप्तत्वात् । नापि नियमपरम्-तत्र तिथिवृद्धिस्थले पूर्वदिने पूर्वस्यामुत्तरदिने उत्तरस्यामिति द्वयोरपि तिथ्योः समुच्चित्य प्रामाण्यस्य प्रागुक्तवचनेनैव प्राप्तौ पक्षेऽप्राप्त्यभावात् । किन्तु गुरुवासरे टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्यां पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिपरमेव । इतरनिवृत्तिवाचकपदस्याभावाच्चेयं लाक्षणिकी परिसङ्ख्येति गीयते । एतत्परिसङ्ख्याविध्यात्मकवचनाभावे हि पञ्चमीपर्वाराधनकाम उत्तरपञ्चमीदिनं शुक्रवासरमिव टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिनं गुरुवासरमपि पञ्चमीपर्वदिनतयाऽऽराधयेत् । न चैतदिष्टं तवापीत्यनिष्टापत्तिः । सत्यस्मिश्च वचने गुरुवासरात्मक टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने 'उदयंमि जा तिहि' इत्यादिना प्राप्तस्य पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यस्य निवृत्त्या पञ्चमीपर्वाराधनकामः शुक्रवासरात्मकोत्तरपञ्चमीदिनमेवाराधयेत् । तत्रैव तिथौ पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यात् । न तु गुरुवासरात्मकटिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने । तत्र 'वृद्धौ कार्ये' ति वचनेन पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यस्य Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ निवृत्तेः । अत एव च सेनप्रश्नेऽपि टिप्पनकेऽष्टम्यादितिथिवृद्धौ 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति वचनप्रामाण्यात् स्वल्पाया अप्यग्रेतनाया एव तिथेः प्रामाण्यमुक्तं न तु सम्पूर्णाया अपि पूर्वतन्याः । तथा च तत्पाठ:- 'अष्टम्यादितिथिवृद्धावग्रेतन्या आराधनं क्रियते । यतस्तद्दिने प्रत्याख्यानवेलायां घटिका द्विघटिका वा भवति । तावत्या एवाराधनं भवति । तदुपरि नवम्यादीनां भवनात् । सम्पूर्णायास्तु विराधनं जातम्, पूर्वदिने भवनात् । अथ यदि प्रत्याख्यानवेलायां विलोक्यते तदा तु पूर्वदिने द्वितयमप्यस्ति प्रत्याख्यानवेलायां समग्रदिनेऽपीति सुष्ठु आराधनं भवतीति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - 'क्षये पूर्वा तिथि: कार्या, वृद्धौ कार्या तथोत्तरे 'ति उमास्वातिवाचकवचनप्रामाण्याद् वृद्धौ सत्यां स्वल्पाऽप्यग्रेतना तिथि: प्रमाणमिति । ' ग्रन्थत्रयी तथा च सिद्धं विवादापन्ने गुरुवासरे गतवर्षीये रविवासरे च पञ्चमीदिनत्वाभावे 'वृद्धौ कार्ये' ति विशेषवचनस्यैव प्रामाण्यमिति । अत्रेदं बोध्यम्-टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्यामुक्तवचनेन पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तौ तद्रूपेण तत्रैौदयिकत्वमपि निवर्त्तत एव । तिथौ प्रामाण्यस्यौदयिकत्वव्यापकत्वात् । व्यापकनिवृत्तौ च व्याप्यनिवृत्तेः प्रतिबद्धत्वादिति । इत्थं च टिप्पनके पञ्चमीतिथिवृद्धावाराधनायामुत्तरतिथिरूपा टिप्पनकोक्तद्वितीयैव पञ्चमीतिथिरौदयिकी पञ्चमीति व्यपदेश्या । न तु टिप्पनकोक्तप्रथमा पञ्चमी । तत्र पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तौ तद्रूपेणौदयिकत्वस्यापि तत्र निवृत्तेः । एवमष्टम्यादिष्वपि बोध्यम् । अत एव च श्रीहीरप्रश्नोत्तरे श्रीसेनप्रश्नोत्तरे च पूर्णिमामावास्यावृद्धिविषयकप्रश्नोत्तरे एकादशीवृद्धिविषयकप्रश्नोत्तरे चौदयिकीशब्देनोत्तरैव तिथिर्व्यवहृताऽपि । यदुक्तम्-पूर्णिमामावास्ययोर्वृद्धौ पूर्वमौदयिकीतिथिराराध्यत्वेन व्यवह्रियमाणाऽऽसीत् । केनचिदुक्तं श्रीतातपादाः पूर्वतनीमाराध्यत्वेन प्रसादयन्ति तत्किमिति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - पूर्णिमामावास्ययोर्वृद्धावौदयिक्येव तिथिराराध्यत्वेन विज्ञेया इति । एकादशीवृद्धौ श्रीहीरविजयसूरीणां निर्वाणमहिमपौषधौपवस्तादिकृत्यं पूर्वस्यामपरस्यां वा किं विधेयमिति प्रश्न: । अत्रोत्तरम्-औदयिक्येकादश्यां श्रीहीरविजयसूरिनिर्वाणपौषधादि विधेयमिति च । अत्र टिप्पनके पूर्वतन्यामपि तिथौ सूर्योदयस्पर्शित्वरूपौदयिकत्वसत्त्वेऽप्या Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १०७ राधनायामुक्तयुक्त्या तत्र तद्रूपेण तन्निवृत्तेरेव तस्यानौदयिकीशब्देन व्यवहारः कृत इति स्पष्टमेवेति । कथमन्यथा तत्रौदयिक्येवेत्येवकारेण पूर्वतन्यास्तिथेर्व्यवच्छेदोऽपि ग्रन्थकृदभिप्रेतो लभ्येत । वृद्धतिथिस्थले पूर्वदिने पूर्वतन्या अपि तिथेः टिप्पनके सूर्योदयवेलायां सत्त्वेनौदयिकत्वात् । तथा चौदयिक्येव इत्यत्रैवकारेणापि वृद्धतिथिस्थले टिप्पनके सूर्योदयस्पर्शित्वरूपौदयिकत्वे सत्यप्याराधनायां पूर्वतन्यां तिथौ तद्रूपेणौदयिकत्वं निवर्त्तत एवेति ज्ञेयम् । अन्यथैवकारव्यवच्छेद्याभावेन तद्वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । यदि चाराधनायां पूर्वतन्यां तिथेरौदयिकत्वनिवृत्तिरिष्टा न स्यात्तह्यदयिक्येव तिथिराराध्यत्वेन विज्ञेया । इत्यत्र उत्तरैव तिथिराराध्यत्वेन विज्ञेया- इत्येवोत्तरं प्रतिपाद्यं स्यात् । येनैवकारव्यवच्छेद्याभावेनैवकारवैयर्थ्यप्रसङ्गोऽपि न स्यादित्यपि विभावनीयम् । नन्वेवमपि विवादापत्रे गुरुवासरादौ टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीतिथौ पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तौ पञ्चमीत्वनिवृत्तावपि किंतिथित्वेन तत्र प्रामाण्यं किंतिथिदिनत्वेन च तत्र व्यपदेश: ? । नहि पञ्चमीत्वेन, तत्र प्रामाण्यनिवृत्तावपि तिथित्वसामान्येनापि प्रामाण्यनिवृत्तिरिष्टा, तत्र गुरुवासरादौ विवादापत्रे तिथिसामान्यशून्यत्वापत्तेः । न हि कस्मिन्नपि युगे कस्मिन्नपि वर्षे कस्मिन्नपि मासे कस्मिन्नपि पक्षे रव्यादिलक्षणः कोऽपि दिवसस्तिथिसामान्याभाववान् शास्त्रे लोके च प्रसिद्धः । 'अद्य दिने न काऽपि तिथिरस्ती' ति कस्यापि कुत्रापि व्यवहाराभावादिति चेत् । न । तवापि तत्रोत्तरनिर्वचनस्य कार्यतया तुल्यत्वात् । नहि तवापि 'वृद्धौ कार्ये 'ति वचनस्य प्रामाण्याङ्गीकारिणो गुरुवासरे पञ्चाङ्गोक्तप्रथमपञ्चमीदिने आराधनाविषये पञ्चम्याः स्वीकारो व्यपदेशो वा युक्तः । तत्र दिने तेन वचनेन पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यस्य निवृत्तेर्बोधनात् । नहि यत्र दिने यत्तिथित्वेन प्रामाण्यमेव नास्ति, तत्र दिने तत्तिथित्वेनोपादेयता व्यपदेश्यता वा युक्ता, अतिप्रसङ्गात् । पञ्चमीसमाप्त्यभावोऽपि त्वन्मते तत्र दिने पञ्चमीदिनत्वेनोपादेयतायां व्यपदेश्यतायां च बाधकत्वेनाधिक इत्यपि बोध्यम् । तथा च त्वयैव निर्वचनं कार्यं यद् विवादापत्रे गुरुवासरादौ टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने किंतिथित्वेन प्रामाण्यं किंतिथिदिनत्वेन च व्यपदेश्यतेति । अनिर्वचने चाप्रतिभातस्त्वं नैव मुच्येथाः । अथ सुहद्भावेन भवन्तमेव पृच्छामि किं तत्र निर्वचनमिति चेत् । पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यस्य तत्र निवृत्तेः पञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनत्याच्च Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ग्रन्थत्रयी चतुर्थीतिथित्वेनैव तत्र दिने प्रामाण्यं चतुर्थीदिनत्वेनैव च तत्र दिने व्यपदेश इति गृहाण । यतस्तिथिसामान्यस्य तत्र दिनेऽवश्याभ्युपगमनीयत्वम् । न च विशेषविनिर्मुक्तं सामान्यं वचिदपि प्रमाणम् । नापि तत्र दिने तृतीयातिथित्वेन षष्ठीतिथित्वेन वा प्रामाण्यम्, तृतीयादिनत्वेन षष्ठीदिनत्वेन वा व्यपदेश इति युक्तम् । सर्वसिद्धतिथिक्रमव्यवस्थाविप्लवप्रसङ्गात् । इत्थं च विवादापन्ने गुरुवासरादौ टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने तिथिसामान्यवति चतुर्थीतिथ्यन्यतिथिस्वीकारानर्हे 'वृद्धौ कार्ये' तिवचनज्ञापिता पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिरेव चतुर्थीत्वेन प्रामाण्यं विना न स्यात् । इति तिथिसामान्यवति पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिरेवान्यथाऽनुपपन्ना तत्र दिने चतुर्थीत्वेन प्रामाण्यमापादयति । 'सर्वतो बलवती ह्यन्यथानुपपत्ति'रिति सामान्यवति विशेषव्यावृत्तेविशेषान्तरं विनानुपपत्तेविशेषान्तराक्षेपकत्वनियमाच्च । दृष्टं चैतत् घटसामान्यवति भूतले नीलघयद्यात्मकघटविशेषनिवृत्तिः पीतघटाद्यात्मकघटविशेषान्तरं विनाऽनुपपन्ना तादृग्घटविशेषान्तरमाक्षिपत्येवेति । तत्राप्यौदयिकचतुर्थीत्वेनैव प्रामाण्यमित्यपि बोध्यम्। सर्वत्रापि तिथौ 'उदयंमि जा तिहि' इत्यादिनाऽऽराधनायामौदयिकत्वस्यैव प्रामाण्यप्रयोजकत्वस्य व्यवस्थापितत्वेन प्रामाण्यस्यौदयिकत्वाविनाभावित्वेनौदयिकत्वस्यापि तेनापादनादिति निष्प्रत्यूहमेव सिद्धमाराधनायां तत्र दिने औदयिकचतुर्थीतिथित्वेनैव प्रामाण्यं, चतुर्थीदिनत्वेनैव च तत्र दिने व्यपदेश इति । एवं च शास्त्रोपदर्शिततत्तत्पर्वतिथिनिमित्तकाहोरात्रव्यापिपौषधादिव्रतनियमस्याराधनान्यथानुपपत्तेरहोरात्रव्यापित्वमपि । तत्र दिने टिप्पनके प्रथमपञ्चमीसत्त्वेऽप्याऽऽराधनायां 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनेन प्राप्तप्रामाण्यकचतुर्थ्या एव मन्तव्यम् । 'सा सम्पूर्णे'ति वचनेनौदयिकत्वेनाभिमताया एव तिथेरहोरात्रव्यापित्वरूपसम्पूर्णत्वस्य मन्तव्यत्वादित्यपि बोध्यम् । इत्थं च 'अणागयचउत्थीए' 'चउत्थी पवत्तिया' इत्यादौ चतुर्थीशब्दस्य चतुर्थ्यर्थकत्वाऽऽग्रहेऽपि न नो विद्वेषः, आराध्यपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनात्मकटिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिनगुरुवासरे 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनानुसारेणाराधनायामौदयिकचतुर्थीदिनत्वस्यैव गणनीयत्वात् । एवं पर्वतिथ्याराधनायां सर्वत्रापि टिप्पनके पर्वतिथिवृद्धौ भावनीयम् । तथा हि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १०९ टिप्पनके द्वितीयावृद्धौ ‘वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति वचनेनाराधनायां टिप्पनकस्थोत्तरैव द्वितीया द्वितीयातिथित्वेन प्रमाणमिति । 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनमेवाराधनायामुक्तरीत्या टिप्पनकोक्तप्रथमद्वितीयादिने द्वितीयात्वेन प्रामाण्यं निवर्तयति । तन्निवृत्तौ च तदविनाभाव्यौदयिकत्वं तन्नियताहोरात्रव्यापित्वमपि च तत्र निवर्त्तते । एवं 'वृद्धौ कार्येति वचनज्ञापिता द्वितीयात्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिरेव च तत्र दिने तिथिसामान्यवत्त्वेनावश्याभ्युपगमनीये तिथिक्रमव्यवस्थाविप्लवभिया च प्रतिपत्तिथ्यन्यतिथिदिनत्वेन च स्वीकारानर्हे प्रतिपत्तिथित्वेन प्रामाण्यं विनानुपपन्नाराधनायां प्रतिपत्त्वेन प्रामाण्यमापादयति । प्रतिपत्त्वेन प्रामाण्यं चौदयिकत्वं विनानुपपन्नं सत्तत्र प्रतिपत्त्वेनौदयिकत्वमप्यापादयति । तत एव च तत्र दिने प्रतिपद एवाहोरात्रव्यापित्वमपीति । तथा च टिप्पनके द्वितीयावृद्धौ टिप्पनकोक्तप्रथमद्वितीया 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनेनाराधनायां प्रतिपदेव गणनीयेति प्राप्तम् ।। एवं टिप्पनकेऽष्टम्यादिपर्वतिथिवृद्धावप्याराधनायां टिप्पनकोक्तप्रथमाष्टम्यादिष्वष्टम्यादित्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिः । सप्तम्यादित्वेन च प्रामाण्योपपत्तिश्च स्वयमेव भावनीया । एवं टिप्पनके पूर्णिमावृद्धौ टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमायां 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनानुसारेण पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिः । तन्निवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या चोक्तयुक्ता तत्र दिने चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्यम् । एवं चात्र चतुर्दश्या वृद्धिः प्राप्ता । टिप्पनकोक्तचतुर्दशीदिने टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमादिने चेत्येवं दिनद्वयेऽपि चतुर्दश्याः प्राप्तत्वात् । टिप्पनकोक्तचतुर्दशी प्रथमा चतुर्दशी, टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमा च द्वितीया चतुर्दशीति । तथा च तस्या अपि पर्वतिथित्वेन 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे ति वचनस्य पूर्णिमायामिवात्र चतुर्दश्यामपि सावकाशत्वेन तदनुसारेणोक्तरीत्या टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमारूपद्वितीयचतुर्दश्यामेवाराधनायां चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्यात् टिप्पनकोक्तचतुर्दशीरूपप्रथमचतुर्दश्यां चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिः । तनिवृत्त्यन्यथानुपपत्त्यैव चोक्तयुक्त्या तत्र त्रयोदशीत्वेन प्रामाण्यम् । तथा च टिप्पनके पूर्णिमावृद्धौ ‘वृद्धौ कार्ये' ति वचनानुसारेणोक्तरीत्या टिप्पनकोक्तचतुर्दश्यां त्रयोदशीत्वेन प्रामाण्यम् । टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमायां चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्यम् । टिप्पनकोक्तद्वितीयपूर्णिमायां च पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यमिति सिद्धम् । तथा चैवं टिप्पनके चतुर्दशीवृद्धौ सत्यामाराधनायां त्रयोदशीवृद्धिरिव टिप्पनके पूर्णिमावृद्धावप्याराधनायां त्रयोदशीवृद्धिरेव गणनीयेति सिद्धम् । एवं टिप्पनकेऽमावास्यावृद्धावप्याराधनायामयमेवानन्तरोक्तः पन्था भावनीयः । एवं सर्वासामपि पूर्णिमानां सर्वासामप्यमावास्यानां टिप्पनके वृद्धौ सत्यामाराधनायां 'वृद्धौ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ग्रन्थत्रयी कार्ये'ति वचनानुसारेणोक्तप्रक्रियया त्रयोदशीवृद्धिरेव गणनीया । सर्वासामपि पूर्णिमामावास्यानां पर्वतिथित्वेन तत्र 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनस्य सावकाशत्वात् । यदुक्तं श्रीसेनप्रश्नोत्तरे सर्वासामपि पूर्णिमानां सर्वासामप्यमावास्यानां पर्वतिथित्वम् । तथा हि-'श्रावकाश्चतुष्पा चतुर्थादिकं कुर्वन्ति । सा का चतुष्पर्वीति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-चतुर्दशी-अष्टमी-अमावास्या-पूर्णिमा एताश्चतस्रश्चतुष्पळ' इति योगशास्त्रवृत्ती चतुष्पव्या चतुर्थाद्येतत् श्लोकव्याख्याने । तथा च प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ चतुष्पर्वीअष्टमी-चतुर्दश्यमावास्या-पूर्णिमालक्षणा उक्ताः । तथा पर्वाणि चैवमूचुः - अट्ठमी चाउद्दसि पुण्णिमा य तह अमावसा हवइ पव्वं । मासंमि पव्वछकं तिन्नि अ पव्वाई पक्खंमि ॥ १ ॥ बीआ पंचमी अट्ठमी इगारसी चउदसी पण तिहीओ। एआओ सुहतिहीओ गोअमगणहारिणा भणिआ ॥ २ ॥ बीआ दुविहे धम्मे पंचमि नाणेसु अट्ठमी कम्मे । एगारसी अंगाणं चउद्दसी चउदपुव्वाणं ॥ ३ ॥ एवं पञ्चपर्वी पूर्णिमामावास्याभ्यां षट्पर्वी च प्रतिपक्षमुत्कृष्टतः स्यादिति श्राद्धविधौ प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तौ च । तथा श्रीभगवतीवृत्तौ 'चउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु' इत्यत्रोद्दिष्टाऽमावास्या प्रोक्ताऽस्ति । विपाकवृत्तावपि तथैव । किं च-'संते बले वीरियपुरिसक्कारपरक्कमे अट्ठमी-चउद्दसी-नाणपंचमीपज्जोसवणा-चाउम्मासिएसु चउत्थच्छट्टमेन करिज्जा, पच्छित्तमित्येकोनविंशपञ्चाशकवृत्त्यादिष्वनेकग्रन्थेषु पञ्चमी भणिताऽस्ति । पञ्चम्याः पर्वत्वं महानिशीथेऽप्युक्तमस्ति। नन्वेवं सति त्रिपर्वी चतुष्पी पञ्चपर्वी वा तप:शीलादिनाऽऽराधनीयोच्यते । स्वशक्त्यपेक्षं सामेकां वा तामाराधयतां न कश्चिद्दोषः । तथा-'छण्हं तिहीण मज्झमि का तिही अज्ज वासरे' इत्यादिगाथा श्राद्धदिनकृत्यसूत्रेऽस्ति । तद्व्याख्यानं च ८-१४-१५ एताः सितेतरभेदात् षतिथय इति । इत्यादिग्रन्थानुसारेणाऽविच्छिनपरम्परया च सर्वा अपि अमावास्यापूर्णिमादितिथयः पर्वत्वेनाराध्या एवेति । अथ च-'चाउद्दसट्ठमुद्दिटुपुण्णिमासिणीसु पडिपुण्ण'मित्यस्य व्याख्या चतुर्दश्यष्टम्यौ प्रतीते, उद्दिष्टासु महाकल्याणकसम्बन्धितया पुण्यतिथित्वेन प्रख्यातासु, पौर्णमासीसु Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १११ तिसृषु चतुर्मासकसम्बन्धिनीष्विति सूत्रकृताङ्ग द्वितीय श्रुतस्कन्धसूत्रवृत्तौ लेपश्रावकाधिकारे । इत्येतत्पर्वाराधनं चरितानुवादरूपं शतवारं पञ्चमश्राद्धप्रतिमावाहककार्त्तिकश्रेष्ठिकवन तु विधिवादरूपम् । तल्लक्षणं पुनरेकेन केनचिद् यत्क्रियानुष्ठानमाचरितं स चरितानुवादः । सर्वैरपि यत्क्रियानुष्ठानं क्रियते स विधिवादस्तु सर्वैरपि स्वीकर्त्तव्य एव न तु चरितानुवाद इति । एवं श्रीहीरप्रश्नोत्तरेऽपि सर्वासामपि पूर्णिमानां पर्वतिथित्वमुक्तम् । तथाहि'पूर्णिमास्तिस्र एव पर्वत्वेन संगीर्यन्ते सर्व्वा अपि वा पर्वतयाऽङ्गीकार्या: ? इति श्राद्धा भूयो भूयः पृच्छन्ति इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - 'छण्हं तिहीण मज्झम्मि का तिही अज्ज वासरे' इत्याद्यागमानुसारेणाऽविच्छिन्नवृद्धपरंपरया च सर्वा अपि पूर्णिमाः पर्वत्वेन मान्या एवेति' । एतेन - ननु सूत्रकृताङ्गागमे चतुर्मास्यस्तिस्र एव पौर्णमास्य आराध्यत्वेन गृहीताः । तथाहि - 'सेणं लेवए गाहावई समणोवासगे अहिगयजीवाजीवे० ' इति सूत्रदेशस्य वृत्तिरियम्तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिषु उद्दिष्टासु महाकल्याणकसम्बन्धितया पुण्यतिथित्वेन प्रख्यातासु तथा पौर्णमासीषु च तिसृष्वपि चतुर्मासकतिथिष्वित्यर्थः । एवंभूतेषु धर्म्मदिवसेषु सुष्ठु - अतिशयेन प्रतिपूर्णो यः पौषधो- व्रताभिग्रहविशेषस्तं प्रतिपूर्णमाहारशरीरब्रह्मचर्याव्यापाररूपं पौषधमनुपालयन् सम्पूर्ण श्रावकधर्म्ममनुचरति । इति सूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे लेपश्रावकस्याधिकारस्य प्रागुपदर्शितपण्डितशुभविजयगणिकृतप्रश्नोत्तरे सेनप्रश्ने चरितानुवादरूपत्वोक्तेश्च । एवं पण्डितदेवविजयगणिकृतप्रश्नोत्तरेऽपि । तत्र सूत्रकृताङ्गवृत्तिव्याख्यानस्य चरितानुवादपरतैवोक्ता । तथा हि- 'चाउद्दसमुद्दिट्ठपुण्णिमासिणीसु णं पडिपुण्णं पोसहं' इत्यत्र श्रीसूत्रकृताङ्गवृत्तौ उद्दिष्टशब्देन कल्याणकतिथय उक्ताः, पौर्णमासीशब्देन तु तिस्रश्चतुर्मासकपूर्णिमा उक्ता: । राजप्रश्नीयवृत्तौ तु उद्दिष्टशब्देनामावास्या पौर्णमासीशब्देन सामान्येन पूर्णिमा उक्तास्तदयं कथमर्थभेद इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - सूत्रकृताङ्गवृत्तिराजप्रश्नीयवृत्ति - व्याख्यानं चरितानुवादपरं न च तत्साधकं बाधकं वा भव । भगवतीवृत्ति - योगशास्त्रवृत्त्यादौ तु चतुष्पव्र्व्यधिकारे सामान्यतः पूर्णिमामावास्ये उक्ते स्तः । इत्यत्र श्रावक्तानां तत्र ते ज्ञेये इति । एवं श्रीसमवायाङ्गवृत्तावप्युपासकप्रतिमाधिकारे चतुष्पव्र्व्या सामान्यत एव Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी ११२ पूर्णामावास्ये उक्ते, पर्वदिनत्वमपि तयोस्तत्रोक्तम् । तथाहि-"तथा, पोषं पुष्टि कुशलधर्माणां धत्ते यदाहारत्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधम्, तेनोपवसनमवस्थानमहोरात्रं यावदिति पौषधोपवास इति । अथवा-पौषधं पर्वदिनमष्टम्यादि, तत्रोपवासोऽभक्तार्थः पौषधोपवास इति । इयं व्युत्पत्तिरेव प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्यव्यापारपरिवर्जनेष्विति । तत्र पौषधोपवासे निरत आसक्तः पौषधोपवासनिरतो यः सः । एवंविधस्य श्रावकस्य चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः । अयमत्र भावः । पूर्वप्रतिमात्रयोपेतोऽष्टमीचतुर्दश्यमावास्यापौर्णमासीष्वाहारपौषधादिचतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरो मासान् यावच्चतुर्थी प्रतिमा भवतीति । तथा पञ्चमीप्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारी भवति । इति । तथा चौक्तवचनैः सर्वास्वपि पर्वतिथिरूपासु पूर्णामास्वमावास्यासु च 'वृद्धौ कार्येति वचनस्य सावकाशतया तदनुसारेणोपदर्शितप्रक्रियया टिप्पनके तहृद्धावप्याराधनायां त्रयोदशीवृद्धिः सूपपनैव । इत्थं च चतुर्दशीपूर्णिमयोः चतुर्दश्यमावास्ययोश्च पर्वतिथ्योर्द्वयोः सार्वदिकं सम्बन्धत्वमप्याराधनायामव्याहतं व्यवतिष्ठेत । नन्वेवं टिप्पनके पूर्णिमाभिवृद्धौ टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमादिने टिप्पनके सूर्योदयवेलायां पूर्णिमाया एव सत्त्वेऽपि 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति वचनानुसारेण प्रागुपदर्शितप्रक्रिययाऽऽराधनायामौदयिकचतुर्दशीत्वेन प्रामाण्याङ्गीकारे चतुर्दशीदिनत्वेन च व्यपदेशाभ्युपगमे, 'टिप्पनकोक्तचतुर्दशीदिने च टिप्पनके सूर्योदयवेलायां चतुर्दश्या एव सत्त्वेऽप्याराधनायामौदयिकत्रयोदशीत्वेन प्रामाण्याङ्गीकारे द्वितीयत्रयोदशीदिनत्वेन च व्यपदेशाभ्युपगमे च, तत्रोभयत्रापि चतुर्दशीत्वं त्रयोदशीत्वं चाऽऽरोपितमेव स्वीकार्यमिति 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'त्ति वचनेन टिप्पनकोक्तद्वितीयपूर्णिमादिने पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यम्, टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमादिने च फल्गुतिथिदिनत्वं टिप्पनकोक्तचतुर्दशीदिने च चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्यं स्वीकार्यमित्येव पन्था ज्यायान् । तथा च टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमायां चतुर्दशीत्वारोपः टिप्पनकोक्तचतुर्दश्यां च त्रयोदशीत्वारोपोऽपि नैव कल्पनीयः । एवं सर्वत्रापि टिप्पनकोक्तप्रथमद्वितीया-प्रथमपञ्चम्यादौ प्रतिपत्त्व-चतुर्थीत्वाधारोपकल्पना बोध्या । न च षष्ठतप:करणानुपपत्तिरिति । टिप्पनकोक्तत्रयोदशीचतुर्दशीदिनयोरेव षष्ठतपःकरणोपत्तेरिति चेत् । न । यत्र दिने टिप्पनके चतुर्दशीक्षयः तत्र दिने टिप्पनके औदयिकत्रयोदश्या Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ एव सत्त्वेऽपि तत्रौदयिकचतुर्दशीत्वेन प्रामाण्यस्य चतुर्दशीदिनत्वेन व्यपदेशस्य स्वीकारावश्यकत्वेन तवापि तत्र समारोपापत्तेस्तुल्यत्वात् । वस्तुतस्तूभयत्रापि समारोपस्य 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति वचनेनैव साक्षात् परम्परया च प्राप्सत्वेन न बाधकत्वम्, अपि तु साधकत्वमेव । वचनप्राप्तस्याऽऽरोपस्याऽनभ्युपगमे प्रतिमाप्रतिष्ठावन्दनपूजनादेरपि विलोपापत्तेः । तथा च वृश्चिकभिया पलायमानस्य तवाशीविषमुख एव निपातः । एतद्विशेषविचारस्तूपरिष्टाद् वक्ष्यते । किञ्चौदयिक्यास्तिथेरहोरात्रव्यापित्वरूपं सम्पूर्णत्वं त्वया मन्तव्यं न वा ? आद्ये-स्वीकृत एवारोपः । टिप्पनकेऽहोरात्रव्यापित्वाभावेऽपि तिथावहोरात्रव्यापित्वकल्पनात् । न हि शास्त्रे कापि तिथिरहोरात्रव्यापिनी श्रुता । किन्तु द्वाषष्टितमभागोनाहोरात्रप्रमाणैव । टिप्पनेऽपि काचिदेव तिथिः कदाचिदेवाहोरात्रव्यापिनी भवति । न तु सर्वदा सर्वा अपि तिथयः । द्वितीये-तत्र तत्र पूर्वाचाय: प्रमाणतयोपन्यस्तस्य - 'आदित्योदयवेलायां या स्तोकाऽपि तिथिर्भवेत् । सा सम्पूर्णेति मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना ॥" इति वचनस्याऽऽज्ञाभङ्गापत्तेः । अत्र च स्तोकाया अपि तिथेः सम्पूर्णत्वमन्तव्यताविधानात् प्रमाणप्राप्ततया स्पष्टमेवाध्यारोपस्य प्रामाण्यम् । प्रमाणप्राप्तस्याऽऽरोपस्याऽस्वीकार एव च दूषणम् । प्रमाणसिद्धस्यार्थस्यास्वीकारेऽन्ततः प्रमाणस्यैवाऽस्वीकारादिति समारोपापादनमस्माकं प्रत्यदूषणमेव । प्रमाणसिद्धत्वेन समारोपस्यैव भूषणत्वादिति । किञ्च, तव मते टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमादिनेन व्यवहिततया पाक्षिकपूर्णिमयोराराधनायामानन्तर्येण सार्वदिकस्य सम्बद्धत्वस्यापि विलोपापत्तिः । न च, मास्तु तदा तयोः सम्बद्धत्वम्, काऽनुपपत्तिरिति वाच्यम् । __ चतुर्दशीपूर्णिमयोः षष्ठतपोऽभिग्रहवतः षष्ठतपःकरणानुपपत्तेः । निरन्तरोपवासद्वयस्यैव हि षष्ठतपोरूपत्वम् । चतुर्दशीपूर्णिमादिनयोश्चाऽसम्बद्धत्वे निरन्तरत्वाभावेन कथं तत्पर्वतिथिद्वयाराधनानिमित्तकनिरन्तरोपवासद्वयात्मकषष्ठतपःकरणोपपत्तिः ?। न च, टिप्पनकोक्तचतुर्दशी-प्रथमपूर्णिमादिनयोरेव षष्ठोपपत्तिरिति वाच्यम् । टिप्पनकोक्त प्रथमपूर्णिमायां पूर्णिमात्वेन प्रामाण्याभावात् पूर्णिमात्वेनाऽनाराध्य Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ग्रन्थत्रयी त्वात्। अन्यथा 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति आज्ञाभङ्गापत्तेः । तत्र टिप्पनके वृद्धौ सत्यामाराधनायामुत्तरस्या एव तिथेः कार्यत्वोपदेशात् । न च, टिप्पनकोक्तत्रयोदशी-चतुर्दशीदिनयोरेव षष्ठं कार्यमिति वाच्यम् । अतिप्रसङ्गापत्तेः । चतुर्दशीपूर्णिमयोः षष्ठाभिग्रहवतोऽपि त्रयोदशीचतुर्दश्योस्तत्करणे त्वन्मते कदाचित् पूर्णिमाप्रतिपदोरपि तस्य करणापत्तेः । न चेष्टापत्तिरिति वाच्यम् । आराधनायां नियतक्रमव्यवस्थाविप्लवापत्तेः । किञ्च, टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमायाम्-'उदयंमि जा तिही सा पमाण' मियादिना टिप्पनकोक्तद्वितीयपूर्णिमायामिव पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यं त्वयाऽभ्युपगम्यते न वा ? आये, तस्यां पूर्वतन्यामपि पूर्णिमायां पूर्णिमापर्वाराधनाकर्त्तव्यताप्रसङ्गात् । 'वृद्धौ कार्ये'त्यस्य वैयर्थ्यापत्तेश्च । यदि च 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्युत्सर्गवचनापेक्षया 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे ति वचनस्याऽपवादवचनत्वेन तद्बाधकत्वान्न टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमायां पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यम् । तत्रोत्तरस्या एव पूर्णिमायाः प्रमाणतया कार्यत्वोपदेशादिति द्वितीय एव पक्षः श्रेयानिति चेत् । तर्हि तत्र दिने आराधनायां पूर्णिमात्वेन व्यपदेशोऽपि त्यज्यतामेव । न हि तत्र दिने पूर्णिमात्वेन प्रामाण्याभावे पूर्णिमात्वेन व्यपदेशोऽपि युक्तः । अन्यथा प्रतिपद्यपि पूर्णिमात्वेन व्यपदेशापत्त्या अतिप्रसङ्गापत्तेः । ___न च, टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमायां पूर्णिमात्वेन प्रामाण्याभावेऽप्यौदयिकत्वमस्त्येवेति न पूर्णिमात्वेन तत्र विरोधः । प्रतिपदि तु प्रतिपद एवौदयिकत्वं न तु पूर्णिमाया इति तत्र नातिप्रसङ्गोऽपीति वाच्यम् । क्षीणचतुर्दशीदिने टिप्पनके त्रयोदश्या एवौदयिकत्वेन त्रयोदश्या एव व्यपदेशापत्तेः। न चेष्टापत्तिः । तत्र त्रयोदशीतिव्यपदेशस्याप्यसम्भवात् । किन्तु प्रायश्चित्तादिविधौ चतुर्दश्येवेति व्यपदिश्यमानत्वादित्यनेन विरोधापत्तेः । एतदर्थस्य तवापीष्टत्वात् । आराधनायामद्य Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ।। ११५ चतुर्दशी वर्तते, अद्य चतुर्दश्यां पौषधोऽस्माकमित्याबालगोपालं प्रतीतस्य व्यवहारस्यानुपपत्तेश्च । किञ्च, टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमायां 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति वचनेन पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यनिवृत्तौ तव्याप्यं तद्रूपेणौदयिकत्वमपि निवर्त्तत एवेत्यवश्यमभ्युपेयम् । अत एव च हीरप्रश्नोत्तरे 'औदयिक्येव' इत्यत्रौदयिकीशब्देन टिप्पनकोक्ता उत्तरैव पूर्णिमाऽमावास्या च व्यपदिष्टा, न तु पूर्वतनी । एवकारेणैव च तद्व्यवच्छेदादिति । ननु टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमादिने पूर्णिमायाः पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यनिवृत्तावपि तन्निवृत्तौ च तद्रूपेणौदयिकत्वनिवृत्तावपि च टिप्पनके तद्भोगसत्त्वेनैव पूर्णिमात्वेन तत्र व्यपदेश इति चेत् । न। तद्भोगस्य तद्व्यपदेशं प्रत्यप्रयोजकत्वात् । अन्यथा प्रतिपद्दिनेऽपि टिप्पनके द्वितीयाया भोगसत्त्वेन द्वितीयात्वेन व्यपदेशापत्तेः । न चैतदिष्टं तवापि । प्रतिपत्त्वेनैव तत्र दिने प्रामाण्यस्य व्यपदेशस्य च तवापि सम्मतत्वात् । तस्माद् यस्मिन् दिने यत्तिथित्वेन प्रामाण्यं तस्मिन् दिने तत्तिथित्वेनैव व्यपदेशः । यस्मिन् दिने च यत्तिथित्वेन प्रामाण्याभावस्तस्मिन् दिने तत्तिथित्वेन व्यपदेशस्याप्यभाव एवेति बोध्यम् । नन्वेवं सति टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमादिने कितिथित्वेन प्रामाण्यं किंतिथित्वेन च व्यपदेश इति चेत् । प्रागेव दत्तमुत्तरमावर्तनीयं विभावनीयं च । तथा च 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनानुसारिण्योक्तप्रक्रिययाऽनन्तरोपदर्शित एव पन्थाः प्रमाणम् । एवं च चतुर्दशीपूर्णिमयोः चतुर्दश्यमावास्ययोश्च पर्वतिथ्योर्न सम्बद्धत्वानुपपत्तिः । न वा तनिमित्तकषष्ठाभिग्रहवतोऽपि षष्ठतपःकरणानुपपत्तिः । न वाऽऽराधनायां नियतक्रमव्यवस्थाविप्लवापत्तिश्च । इत्थमेव च प्रतिमाभृतः श्रावकस्य श्राविकाया वा चतुर्थीप्रतिमात आरभ्य चतुष्पर्वीपौषधभृतो मुख्यवृत्त्या पाक्षिकपूर्णिमयोश्चतुर्विधाहारषष्ठ एव कृतो युज्यते इति षष्ठज्ञाराधना भवति । - उक्तं च तद्विषयकं प्रश्नोत्तरं सेनप्रेश्ने । तथा हि-'प्रतिमाधर श्रावकः श्राविका वा चतुर्थीप्रतिमात आरभ्य चतुष्पर्वीपौषधं करोति । तदा पाक्षिकपूर्णिमा-षष्ठकरणाभावे पाक्षिकपौषधं विधायोपवासं करोति पूर्णिमायां चैकाशनकं कृत्वा पौषधं करोति । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ग्रन्थत्रयी तच्छ्रुध्यति न वा ? इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - प्रतिमाधरः श्रावकः श्राविका वा चतुर्थीप्रतिमात आरभ्य चतुष्पवपौषधं करोति । तदा मुख्यवृत्त्या पाक्षिकपूर्णिमयोश्चतुर्विधाहारषष्ठ एव कृतो युज्यते । कदाचित्त्व यदि सर्वथा शक्तिर्न भवति तदा पूर्णिमायामाचामाम्लं निर्विकृतिकं वा क्रियते । एवंविधाक्षराणि सामाचारीग्रन्थे सन्ति । परमेकाशनकं शास्त्रे दृष्टं नास्तीति' । एवं तत्रैव तद्विषयकं प्रश्नोत्तरान्तरमपि । तथा हि- 'श्रावकः श्राविका वा चतुर्थी पौषधप्रतिमां वहते । तस्य सामाचार्यनुसारेण चतुर्विधाहारपौषधः कर्त्तव्यः कथितोऽस्ति । तथा समवायाङ्गवृत्त्यनुसारेण तु त्रिविधाहारः सम्भवति । तस्मात् त्रिविधाहारपौषधं विधाय चतुर्थी प्रतिमां वहते किं न वा ? इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - प्रवचनसारोद्धारादिग्रन्थे श्राद्धचतुर्थप्रतिमायां चतुष्पवदिने परिपूर्णश्चतुष्प्रकारपौषधः कथितोऽस्ति । तदनुसारेणाष्टप्रहरपौषधश्चतुर्विधाहारोपवासः कर्त्तव्यो युज्यते । परं सामाचार्यनुसारेणैतावान् विशेषो ज्ञायते यत्-पक्षिकायां षष्ठकरणशक्तिर्न भवति तदा पूर्णिमायाममावास्यायां च त्रिविधाहारोपवासस्तथाऽऽचामाम्लशक्त्यभावे निर्विकृतिकमपि कर्त्तव्यम् । तत्र प्रथमोपवासस्तु शास्त्रानुसारेण चतुर्विधाहार एव कर्त्तव्य इति ज्ञायते । समवायाङ्गवृत्त्यनुसारेण तु त्रिविधाहारोपवासः कर्त्तव्य इति व्यक्तिर्न ज्ञायते इति ।' पाक्षिकपूर्णिमयो: पाक्षिकामावास्ययोश्चासम्बद्धत्वे च प्रतिमाभृतो निरन्तरोपवासद्वयात्मकषष्ठतपः करणाज्ञाराधनानुपपत्तेस्तद्विलोप एव त्वन्मते प्रसज्येतेति । एवं चैतद्विहितषष्ठाज्ञाराधनाया अन्यथानुपपत्तेरपि चतुर्दशीपूर्णिमयोश्चतुर्दश्यमावास्ययोश्चानन्तर्येण सार्वदिकं सम्बद्धत्वमेव स्वीकार्यम् । तदन्यथानुपपत्त्या च टिप्पनके पूर्णिमाया अमावास्यायाश्च वृद्धौ 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे तिवचनानुसारेणोक्तप्रक्रियया त्रयोदशीवृद्धिरेव प्रमाणतया सिध्यतीति । इत्थमेव च श्रीकालिकाचार्यभगवतोऽनु श्रीपर्युषणापर्वण आराध्यरूपौदयिकभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिनकर्त्तव्यतावत् श्रीचतुर्मासीपर्वणोऽप्याराध्यरूपौदयिकपूर्णिमादिनाव्यवहितपूर्वदिनकर्त्तव्यतापि निराबाधं निर्वाहिता भवतीत्यपि भावनीयम् । तथा च टिप्पनके पर्वतिथिवृद्धावाराधनायां सर्वत्रापि 'वृद्धौ कार्ये 'ति वचनानुसारेण प्रागुपदर्शित एव पन्थाः प्रमाणमिति । एतेन - ये टिप्पनके पूर्णिमाभिवृद्धावाराधनायां प्रतिपद्वृद्धिं कुर्वन्ति तन्मतमप्यपास्तं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ वेदितव्यम् । तथा सति उत्तरपूणिमायां प्रथमप्रतिपत्त्वस्य स्वीकार्यत्वेन 'वृद्धौ कार्येति वचनज्ञापितस्य तत्रैव पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यस्यास्वीकारात् तद्वचनाज्ञाभङ्गापत्तेः । उक्तयुक्त्या 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' तिवचनेन पूर्णिमाभिवृद्धौ त्रयोदश्या एव वृद्धेः प्राप्यमाणत्वाच्च न तु प्रतिपदः । अत एव च चतुर्मासकपूर्णिमावृद्धौ त्रयोदशीवृद्धिः कार्या शेषपूर्णिमावृद्धौ च प्रतिपद्वृद्धिः कार्येत्यपि निरस्तम् । अर्धजरतीयत्वप्रसङ्गात् । तत्रापि प्रमाणाभावात्, सर्वास्वपि पूर्णिमामावास्यासु पर्वतिथित्वस्य साधितत्वाच्चेति । नन्वस्त्वेतत्सर्वमपि प्रागुपदर्शितं निराबाधम् । परं 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे तिवचनस्य टिप्पनके पर्वतिथिक्षये पर्वतिथ्याराधनाया विलोपो मा भूत टिप्पनके पर्वतिथिवृद्धौ च पर्वतिथ्याराधनाया अव्यवस्थाऽनियतता वा मा भूदित्येवंरूपप्रयोजनकत्वमेव । अत एव च तत्र तत्र शास्त्रे प्रायः पर्वतिथ्याराधनोपदेशप्रकरण एव तद्वचनस्योपन्यासो दृश्यते नान्यत्रेति तद्वचनस्य बाहुल्येन पर्वतिथिविषयकत्वमेव सर्वैरभ्युपगम्यते । भाद्रशुक्लपञ्चम्याश्च कल्पकिरणावल्यां मतमातृकल्पतयोक्तत्वेन पर्वतिथित्वमेव नास्तीति तद्विषयकत्वमेव 'क्षये पूर्वे' तिवचनस्य न स्यादिति कथं तद्वचनबलेन टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावपि टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चमीदिने पञ्चमीत्वेन प्रामाण्यनिवृत्तिः । कथं वा तदन्यथानुपपत्त्या तत्रौदयिक चतुर्थीत्वेन प्रामाण्यव्यवस्थापनमिति चेत् । न । अभिप्रायापरिज्ञानात् । किरणावल्यां मृतमातृकल्पत्वोक्तेः पञ्चम्याः पर्युषणापर्वतयाऽनुपादेयताभिप्रायकत्वात्, हानमुद्दिश्य निन्दावाक्यस्य प्रयुज्यमानत्वस्योक्तत्वाच्च । तथा च तत्र सांवत्सरिकपर्वरूपपर्वतिथित्वापेक्षया तस्या मृतमातृकल्पतयोक्तत्वेऽपि पञ्चमीरूपपर्वतिथित्वापेक्षया मृतमातृकल्पत्वस्य कुत्राप्यनुक्तत्वेन पञ्चमीरूपपर्वतिथित्वं तु तस्या निरपायमेव । कथमन्यथा-'किञ्च पर्युषणाचतुर्थ्याः क्षये पञ्चमीस्वीकारप्रसङ्गेन त्वं व्याकुलो भविष्यसी'ति किरणावलीकारस्यैव वचनं सङ्गतं स्यात् ?। पर्वतिथितया तस्या आराध्यतायां सत्यामेव तदुक्तेस्तत्र सङ्गतत्वादित्यपि त्वया रहसि विचार्यम् । किञ्च, पञ्चम्यां पर्वतिथित्वं न पर्युषणापर्वाधीनम् । तथा च तत्र पर्युषणापर्वकर्त्तव्यतानिवृत्तावपि न पर्वतिथित्वनिवृत्तिः । सर्वस्या अपि पञ्चम्यास्तिथेनित्यपर्वतिथित्वात् । कल्याणकतिथीनामिव तस्या नैमित्तिकपर्वतिथित्वस्याप्यभावादिति भाद्रशुक्लपञ्चम्या अपि पर्वतिथित्वमव्याहतमेव । अत एव च येन शुक्लपञ्चमी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ग्रन्थत्रयी उच्चरिता तस्य पर्युषणाष्टमतपश्चिकीर्षोर्मुख्यवृत्त्या तृतीयात एवाष्टमकरणानुशासनं श्रीहीरप्रश्नोत्तरे विहितम् । यदुक्तम् - 'येन शुक्लपञ्चमी उच्चरिता भवति स यदि पर्युषणायां द्वितीयातोऽष्टमं करोति तदैकान्तेन पञ्चम्यामेकाशनं करोति उत यथारुच्या ? इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-येन शुक्लपञ्चम्युच्चरिता भवति तेन मुख्यवृत्त्या तृतीयातोऽष्टम: कार्यः । अथ कदाचिद द्वितीयातः करोति तदा पञ्चम्यामेकाशनकरणप्रतिबन्धो नास्ति । करोति तदा भव्यमिति।' यदि च भाद्रशुक्लपञ्चम्यां पर्वतिथित्वमेव न स्यात्तदा पञ्चम्याराधनाकामाधिकारिकस्यैतद्विशेषानुशासनस्यैव वैयर्थ्यापत्तिः । न चैतदिष्टं तवापि तत्प्रामाण्यमभ्युपगच्छत इति । एवं सेनप्रश्नोत्तरे-'षष्ठकरणशक्त्यभावे पञ्चम्युपवासः पञ्चम्यां विधीयतेऽथवा पर्युषणाचतुर्थ्यामिति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-पर्युषणायामुपवासे कृतेऽपि शुध्यति । श्रीहीरविजयसूरिप्रासादितप्रश्नसमुच्चयेऽपि तथैवोक्तत्वादिति प्रश्नोत्तरे । हीरप्रश्नोत्तरेऽपि-'पर्युषणोपवासः पञ्चमीमध्ये गण्यते न वा ? इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-पर्युषणोपवासः षष्ठकरणसामर्थ्याभावे पञ्चमीमध्ये गण्यते । नान्यथेति ।' इति प्रश्नोत्तरे च पर्युषणोपवासस्य पञ्चमीमध्ये गणनीयत्वानुज्ञाऽपि षष्ठकरणसामर्थ्याभाव एव विहिता । अन्यथा भाद्रशुक्लपञ्चम्याः पर्वतिथित्वाभावे तत्र 'षष्ठकरणशक्त्यभावे' इत्याधुक्तेरेवाऽसङ्गतिः स्यात् । किञ्च, पर्युषणोपवासः पञ्चमीमध्ये गण्यते न वा ? इति प्रश्नस्तावत् किं तत्र पञ्चम्याः पर्वतिथित्वाभ्युपगमेन वा पर्वतिथित्वानभ्युपगमेन वा ? आद्य-सिद्धं पञ्चम्याः पर्वतिथित्वम् । द्वितीये-प्रश्नस्यैव वैयर्थ्यात् । पञ्चम्या- पर्वतिथित्वाभावे पर्युषणोपवासस्य पञ्चमीमध्ये गणनीयत्वागणनीयत्वयोर्विशेषाभावेन प्रयोजनाभावात् । पञ्चम्याः पर्वतिथित्वे सत्येव हि तत्प्रश्नस्य सार्थक्यात् । तथा च सिद्ध भाद्रशुक्लपञ्चम्या अपि पर्वतिथित्वम् । तत्सिद्धौ च 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' तिवचनस्य भाद्रशुक्लपञ्चमीविषयकत्वमपि सूपपन्नमिति । यदपि च प्राक् टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्याः फल्गुतिथित्वादित्युक्तं, तदप्यसत् ।। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ __ आराधनायां फल्गुतिथेस्त्याज्यत्वे प्रमाणाभावात् । एवं टिप्पनकोक्तप्रथमपूर्णिमादिष्वपि बोध्यम् । न हि यत्र दिने फल्गुतिथिस्तत्र दिने धर्मक्रियाराधनापि नैव कर्त्तव्येत्यत्र प्रमाणमस्ति । प्रत्युत शास्त्रे शक्तिसद्भावे धर्मक्रियायाः सर्वेष्वपि दिनेषु कर्तव्यतोपदेशात् । तथा हि - 'जइ सव्वेसु दिणेसु पालह किरियं हवइ लढें । जं पुण तहा न सक्कइ तहविह पालिज्ज पव्वदिणं ॥' इति । न च ज्योति:शास्त्रे शुभकार्ये फल्गुतिथेस्त्याज्यत्वस्योक्तेराराधनायामपि तस्यास्त्याज्यत्वमेवेति वाच्यम् । तस्या मुहूर्त्तमात्रविषयकत्वेनाराधनाविषयकत्वाभावात् । अन्यथा तत्राऽवमतिथेरपि त्याज्यत्वोक्तेराराधनायामपि तस्यास्त्याज्यत्वापत्तेः । उक्तं च ज्योतिःशास्त्रे शुभकार्ये मुहूर्ते यथा वृद्धतिथेस्त्याज्यत्वं तथा क्षीणतिथेरपि त्याज्यत्वम् । यदुक्तमारम्भसिद्धौ सुधीशृङ्गारवार्तिके च । तथा हि - 'त्रीन् वारान् स्पृशती त्याज्या त्रिदिनस्पर्शिनी तिथिः । वारे तिथित्रयस्पशि-न्यवमं मध्यमा च या ॥ १ ॥' व्या०-यत्र तिथेवृद्धिस्तत्रैका तिथिस्त्रियं स्पृशतीति सा त्रिदिनस्पर्शिनी ।। तस्याः फल्गुरिति नाम हर्षप्रकाशग्रन्थे । यत्र तु तिथिपातस्तत्रैको वारस्तिस्रः तिथीः स्पृशति । तासु या मध्यमा तिथिः साऽवममित्युच्यते । एते द्वे अपि त्याज्ये । यदुक्तम् 'दिनक्षये भवेत् कार्य-क्षयस्तेन शुभं न तत् । प्रकृत्यन्यत्वमुत्पात-स्त्यहस्पृक् तदतोऽशुभम् ॥' इति । एवं मुहूर्तचिन्तामणिपीयूषधारायामपि-तथा हि - 'अथ तिथिक्षयर्धी वर्थे । क्षयश्च ऋद्धिश्च क्षयर्थी, तिथेः क्षयर्थी-तिथिक्षयर्थी । तिथिक्षयस्तिथिवृद्धिश्चैते वर्थे । अनयोः प्रसिद्धत्वाल्लक्षणं नोक्तम् । तत्र तिथिक्षयलक्षणम्-यत्र यो वारस्तिथिद्वयान्तं स्पृष्ट्वा तृतीयतिथेः कञ्चिदादिमभागमपि स्पृशति तत्र वारे मध्यमा तिथिः क्षयसंज्ञा । यथा नवमी रवौ घटिकाद्वयम्, पुनर्दशमी रखौ षट्पञ्चाशद् घटिकाः ५६, एकादश्याश्च घटिकाचतुष्टयं रविवारेण सह सम्बद्धमिति दशमी तिथिः क्षय संज्ञिता, अवमसंज्ञितेत्यपि चाहुः ! Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ग्रन्थत्रयी अथ तिथिवृद्धिलक्षणम् । यत्र या तिथिवारद्वयान्तं स्पृष्ट्वा तृतीयवारस्याऽऽदिमं कञ्चिद् भागं स्पृशति तत्र सा तिथिर्वृद्धिसंज्ञा । त्रिद्युस्पृगित्यपि चेत्याहुः । यथा तृतीया रवौ अष्टपञ्चाशद्धटिकाः ५८ । ततश्चतुर्थी सोमे षष्टिघटिका: ६०, ततो भौमवासरे चतुर्थी घटिकात्रयं ३, अतश्चतुर्थी वास्त्रयसम्बद्धा तिथिर्वृद्धिसंज्ञा । यदाह वसिष्ठः वसिष्ठः ' स्युस्तिस्रस्तिथयो वारे एकस्मिन्नवमा तिथिः । तिथिर्वास्त्रयं चैका त्रिद्युस्पृग् द्वेऽतिनिन्दिते ॥ कृतं यन्मङ्गलं तत्र त्रिद्युस्पृगवमे दिने । भस्मीभवति तत्क्षिप्रमग्नौ सम्यग्यथेन्धनम् ॥' इति । अथ शुभकृत्यावश्यकत्वे तिथिक्षय-तिथिवृद्ध्योः परिहारमाह दोषापवादाध्याये 'अवमाख्यं तिथेर्दोषं केन्द्रगो देवपूजितः । हन्ति यद्वत्पापचयं व्रतं द्वैवार्षिकं यथा ॥ त्रिस्पृगाह्वयं दोषं सौम्यः केन्द्रगतः सदा । हन्ति यद्वत्पापचय - मशून्यशयनव्रतम् ॥” इति ।" तथा च यत्र दिनेऽवमतिथि: स्यात्तत्र दिने तस्यास्ति थेराराधनाप्यकर्त्तव्यैव स्यादिति, चतुर्दशीक्षये तत्र दिने क्षयदिनत्वात् पाक्षिकचतुर्मासिकाराधनाया अकर्त्तव्यत्वेन तद्विलोपः स्यात् । एवं भाद्रशुक्लचतुर्थीक्षये तत्र दिने क्षयदिनत्वात् पर्युषणाराधनाऽप्यकर्त्तव्या स्यादिति तद्विलोपोऽपि । एवमष्टम्यादिक्षयेऽपि तत्तदाराधनादिविलोपापत्तिः । किञ्च, ज्योतिःशास्त्रे तु - रिक्ता षष्ठ्यष्टमीद्वादश्यमावास्याः शुभे त्यजेत् । स्वीकुर्यान्नवमीं क्वापि न प्रवेशप्रवासयोः ॥ दग्धामर्केण सङ्क्रान्तौ राश्योरोजयुजोस्त्यजेत् । भूत ५- दृग् २-युक्तयोः शेषां शोधिते भगणे १२ तिथिम् ॥ त्रिशश्चतुर्णामपि मेषसिंह- धन्वादिकानां क्रमतश्चतस्रः । पूर्णाश्चतुष्कत्रितयश्च तिस्र - स्त्याज्या तिथिः क्रूरयुतस्य राशेः ॥' इत्यादिना रिक्तादितिथीनामपि त्याज्यत्वोक्तेराराधनायामपि तत्त्याज्यत्वे तत्र तत्र दिने तत्तत्तिथिनिमित्तकाराधनाया अपि विलोपापत्तिः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ १२१ किञ्चैवं पाक्षिकचतुर्मासिकसांवत्सरिकाराधनायास्तु सर्वथैव त्वन्मते विलोपः । शास्त्रे पाक्षिकचतुर्मासिकयोश्चतुर्दश्यामेव कर्तव्यतोपदेशात् । सांवत्सरिकस्य च भाद्रशुक्लचतुर्थ्यामेव कर्त्तव्यतोपदेशात् । चतुर्थीचतुर्दश्योश्च रिक्ततिथित्वेन ज्योतिःशास्त्रे त्याज्यत्वोक्तेराराधनायामपि त्याज्यत्वाभ्युपगमात् । तस्माद् रिक्तादितिथीनां यथा तत्र तत्र ज्योतिःशास्त्रे त्याज्यत्वोक्तेर्मुहूर्त्तमात्रविषयकत्वं न त्वाराधनाविषयकत्वं तथा, क्षीणतिथिवृद्धतिथ्योरपि त्याज्यत्वं मुहूर्त एव बोध्यं न त्वाराधनायामपीति टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्या अपि फल्गुतिथितया मुहूर्ते त्याज्यत्वेऽप्याराधनायामत्याज्यत्वमेवेति । प्रत्युताऽऽराधनायां प्रागुपदर्शितया 'वृद्धौ कार्ये'ति वचनानुसारिण्याऽविच्छिनसुविहितपरम्परया तत्र चतुर्थीत्वेनैव प्रामाण्यं न तु पञ्चमीत्वेनेत्यपि सयुक्तिकमेवोपदर्शितमधस्तादिति । स्यादेतत् । ततः कार्तिकमासप्रतिबद्धचतुर्मासककृत्यकरणे यथा नाधिकमासः प्रमाणं तथा भाद्रमासप्रतिबद्धपर्युषणाकरणेऽपि नाधिकमासः प्रमाणमिति । एवं लोकेऽपि दीपालिकाक्षततृतीयादिपर्वसु धनकलान्तरादिषु चाधिकमासो न गण्यते इति । एवमन्यच्च सर्वाणि शुभकार्याण्यभिवधिते मासे नपुसंक इति कृत्वा ज्योतिःशास्त्रे निषिद्धानि । अपरमास्तामन्योऽभिवर्धितः, भाद्रपदवृद्धौ प्रथमो भाद्रपदोऽप्यप्रमाणमेव । यथा चतुर्दशीवृद्धौ प्रथमां चतुर्दशीमवगणय्य द्वितीयायां चतुर्दश्यां पाक्षिककृत्यं क्रियते तथाऽत्रापीति । इत्यादिभिः कल्पवृत्त्यादिवचनैरपि यथा टिप्पनके भाद्रपदादिवृद्धौ प्रथमभाद्रपदादेप्रमाणत्वं तथा टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चम्यादिवृद्धौ टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्यादेरप्यप्रमाणतैवेति कथं तत्र गुरुवासरे श्रीपर्युषणापर्वाराधनमिति चेत् । किमत्र तवाभिप्रेतम् ? किं प्रथमभाद्रपदस्य प्रथमतिथेश्च सर्वथैवाप्रमाणत्वात् तत्र किमपि धर्मक्रियाराधनं नैव कर्त्तव्यम्, किं वा तत्तन्मासप्रतिबद्धं तत्तत्तिथिप्रतिबद्धं च धर्मक्रियाराधनं तत्र न कर्त्तव्यमिति ? आये-दिनप्रतिबद्धमपि तत्र देवपूजामुनिदानादिरूपं धर्मक्रियाराधनमप्यकर्त्तव्यमेव तवापद्येत । सन्ध्यादिसमयप्रतिबद्धमावश्यकाद्यपि तत्राकर्त्तव्यमेव तवापद्येत । किञ्चैवं प्रथमे भाद्रपदादौ द्वादशपर्व्याराधनं पाक्षिकाद्याराधनं च त्वयापि क्रियत एव । एवं त्वदभ्युपगतायां फल्गुतिथावपि त्वया विंशतिस्थानकरोहिणीयोगोपधानपर्युषणाद्यष्टाहिकाद्याराधनमपि क्रियते कार्यते चेति सर्वमेवाऽप्रमाणमकर्त्तव्यमेव तत्र तवापद्येत । न चैतदिष्टं तवापीति न प्रथमः पक्षो युक्तः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ग्रन्थत्रयी अथ द्वितीयः पक्ष इति चेत् । इष्टापत्तिरेव । यतो भाद्रपदादिमासप्रतिबद्ध धर्मकृत्याराधनं टिप्पनके तदृद्धौ प्रथमे भाद्रपदे नैव कर्त्तव्यं एवं चतुर्दश्यादितिथिप्रतिबद्धमपि पाक्षिकादिधर्मकृत्याराधनं टिप्पनके तद्वृद्धौ टिप्पनकोक्तप्रथमचतुर्दश्यादौ नैव कार्यमित्यस्माकमपीष्टमेव । तथा च यथा भाद्रपदवृद्धौ भाद्रपदप्रतिबद्धमेव धर्मकृत्याराधनं प्रथमभाद्रपदे न कर्त्तव्यं न तु तदतिरिक्तमपि, यथा च चतुर्दशीवृद्धौ चतुर्दशीप्रतिबद्धमेव पाक्षिकाद्याराधनं टिप्पनकोक्तप्रथमचतुर्दश्यां न कर्त्तव्यं न तु तदतिरिक्तमपि, चतुर्दशीत्वेनैव तस्या अप्रमाणत्वात् । एवमेव च टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धौ टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्यां पञ्चमीत्वेनाऽप्रमाणत्वात् पञ्चमीप्रतिबद्धं पञ्चम्याराधनमेव तत्र न कर्त्तव्यं न तु तदतिरिक्तं पञ्चम्यप्रतिबद्धं पर्युषणापर्वाराधनमपि । श्रीकालिकाचार्यभगवतोऽनु पर्युषणापर्वाराधनस्य पञ्चमीप्रतिबद्धत्वाभावस्य तवापि सम्मतत्वात् । प्रत्युत 'अंतरा वि य से कप्पई' इत्यनेन तदव्यवहितपूर्वदिन एव तदाराधनं कार्यमिति प्रागेव सुष्ठूपपादितमिति टिप्पनकोक्तप्रथमपञ्चम्यां गुरुवासर एव तदाराधनं युक्तमिति । अत्रेदं बोध्यम्-असङ्क्रान्तिमासोऽधिकमासः । यदाह-यदाऽमावास्यामध्ये एका सङ्क्रान्तिलगेदन्या चान्यमासप्रतिपदि तदा सङ्क्रान्तिहीनो मध्येऽधिकमासः । उक्तं च- 'एकोऽमावास्यायां भवेद्रवेः सङ्क्रमः परो दर्शात् । ऊर्ध्वं जायेत यदा तदाधिकमासः शुभेऽनिष्टः ॥' इति । तथा च टिप्पनके मासप्रामाण्यस्य सङ्क्रान्त्यधीनत्वेन सङ्क्रान्तिरहितस्याधिकमासस्य सर्वथैवाप्रमाणता । तस्मात् टिप्पनके भाद्रपदादिवृद्धौ प्रथमभाद्रपदस्य यथा भाद्रपदत्वेन अप्रामाण्यं तथा श्रावणत्वादिनापि तस्याप्रामाण्यमेव। __ न चैवं टिप्पनके तिथिवृद्धौ तत्र पूर्वस्यामुत्तरस्यां चोभयत्रापि तिथौ 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्यादिना प्रामाण्यं प्राप्तमेव । तत्र 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे ति विशेषवचनेनाराधनायां टिप्पनकोक्तपूर्वतन्यां प्रामाण्यं निवर्तते । तन्निवृत्त्यन्यथानुपपत्या च तत्र तत्पूर्वतिथित्वेन प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यत इति प्राक् सयुक्तिकमुपदर्शितमेव । __ न चैवं टिप्पनके वृद्धतिथिविषयकमिवाधिकमासविषयकमाराधनायां प्रथमभाद्रपदादौ प्रामाण्यनिवर्तकं तन्निवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या च तत्र श्रावणत्वादिना प्रामाण्यव्यवस्थापकं वचनम् । येन प्रथमभाद्रपदादावाराधनायां श्रावणत्वादिना प्रामाण्यापत्तिः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ स्यात् । सङ्क्रान्तितद्भावयोरेव ज्योतिःशास्त्रे मासनिष्ठप्रामाण्याप्रामाण्यप्रयोजकत्वादिति सर्वं सुस्थमित्यलम् । तथा च विवादापत्रे गुरुवासरे 'वृद्धो कार्ये 'ति वचनानुसारेणोक्तयुक्त्याऽऽराधनायां पञ्चमीदिनत्वेन प्रामाण्यनिवृत्त्या चतुर्थीदिनत्वेनैव प्रामाण्यस्य सिद्धौ प्रागुक्ते तवानुमाने तोरसिद्धिः सूपपन्नैवेति हीनबलेनाप्रयोजकेन तेन हेतुना नास्माकं हेतोः सत्प्रतिपक्षत्वमिति । इत्थमेव च व्यभिचारविरोधासिद्धिबाधाऽपि असम्भावितैवात्र । १२३ तथा चानुमानादपि टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चमीवृद्धावाराध्यौदयिकरूपटिप्पनकोक्तद्वितीयपञ्चमीदिनाव्यवहितपूर्वदिने आराधनायां चतुर्थीदिनात्मकतयैव सिद्धे विवादापत्रे गुरुवासरे, गतवर्षी रविवासरे चैव श्रीपर्युषणापर्वकर्त्तव्यता निराबाधा सिद्धेति । अथ पूर्वम् - 'उदयंमि जा तिही सा पमाणमियराए कीरमाणीए । आणाभंगणवत्था-मिच्छत्तविराहणं पावे ।" इत्याद्युक्तम् । अथ यदा टिप्पनके चतुर्दश्यादिपर्वतिथेः क्षयः स्यात् तदा टिप्पनके चतुर्दश्या औदयिकत्वमेव नास्ति । यथाऽऽश्विनशुक्लपक्षे सोमवासरे साधिकाः पञ्च घटिका यावत् त्रयोदशी, तदनु साधिकाश्चतुःपञ्चाशद् घटिका यावत् चतुर्दशी, तदनु कतिपयपलानि यावत् पञ्चदशी । भौमवासरे च साधिका द्वापञ्चाशद् घटिका यावत् पञ्चदशी । अत्र सोमवासरे त्रयोदश्या एवौदयिकत्वं, भौमवासरे च पूर्णिमाया एवौदयिकत्वं चतुर्दश्यास्तु न कुत्रापि दिने औदयिकत्वं वर्त्तते । किन्तु सोमवासर एवान्तर्हितत्वमत एव तस्या अवमाख्या संज्ञा भवति । इयमेव चतुर्दशी क्षीणेत्युच्यते । तिथौ क्षीणत्वं हि सूर्योदयास्पर्शित्वम् । तथा च तत्र चतुर्दशी चतुर्दशीत्वेन कस्मिन् दिने प्रमाणीकार्या ? कस्मिन् दिने च चतुर्दशीपर्वाराधना कार्या ? सोमवासरे त्रयोदश्या एवौदयिकत्वात्, भौमवासरे च पूर्णिमाया एवौदयिकत्वात्, औदयिक्या एव च तिथेः तत्र दिने तत्तिथित्वेन प्रामाण्यात् । किं वा चतुर्दश्याः क्षीणत्वेन चतुर्दश्येवौदयिकी नास्तीति कुत्र तदाराधना स्यादिति तदाराधनमपि क्षीणमेव गणनीयमिति ? | एवं सर्वत्रक्षीणतिथिस्थले तदाराधनाया अव्यवस्थितत्वं विलोपो वा स्यादिति चेत् । न । आराधनायां 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या इति श्रीउमास्वातिप्रघोषात्मकविशेषवचनस्यैव शास्त्रानुसारिशास्त्राबाधितसुविहितपरम्परागतस्य सर्वसम्मतस्य तत्र व्यवस्थापकत्वात् पर्वाराधनविलोपस्यानिष्टत्वात् । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ग्रन्थत्रयी अत्र क्षयपदस्य सनिरूपकत्वात् तिथिपदसमभिव्याहाराच्च तिथिक्षयपरत्वमेव । तत्रापि पर्वाराधनाप्रकरण एव तत्र तत्र शास्त्रे एतद्वचनस्योपन्यस्तत्वेन मुख्यत्वेन पर्वतिथिविषयकत्वमेवेति । क्षये-पर्वतिथिक्षये, पूर्वा तिथि:-प्रथमोपस्थितत्वेनाऽव्यवहितपूर्वा तिथिः, 'सर्वं वाक्यं सावधारण'मिति नियमात् पूर्वा एव तिथिः, नोत्तरा इत्यपि बोध्यम् । कार्या-तत्तिथित्वेन प्रमाणीकार्या इत्यर्थः । यद्यपि प्रायः सर्वत्र कार्येत्येव पाठः प्रमाणतयोपलभ्यते, तथापि क्वचिदभ्युपगतस्य ग्राह्येति पाठस्योपादेयत्वाग्रहेऽपि नैवार्थभेदोऽत्र कश्चित् । तथा च यत्र ख्यादिदिने यस्यां पर्वतिथेः क्षयः स्यात्तत्र ख्यादिदिने आराधनायां तत्पूर्वतिथिरेव तत्पर्वतिथित्वेन प्रमाणीकार्या इति भावः । __ यथा टिप्पनके सोमवासरे चतुर्दश्याः क्षयो वर्तते, इति सोमवासरे औदयिक्याश्चतुर्दश्या अलाभेन तत्पूर्वाया तद्दिनव्यापित्वेनाभिमतौदयिकी त्रयोदशीतिथि: सैवाराधनायां चतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकार्या । न तु टिप्पनके तद्दिनतिन्यपि तदुत्तरा पूर्णिमा तिथिः चतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकार्या । पूर्णिमायाः तत्र दिने टिप्पनके वर्तमानत्वेऽपि तत्र दिने तस्या औदयिकत्वाभावेन चतुर्दशीतिथित्वेन प्रामाण्ये तत्रौदयिकत्वलाभाभावात् । तथा च सैव तत्र दिने औदयिकी तद्दिनव्यापिनी त्रयोदशी चतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकार्या, सैव च चतुर्दशीत्वेनाऽऽराध्या, सैव च तद्दिनव्यापितया सम्पूर्णा चतुर्दशीत्वेन व्यवपदेश्येति सिद्धम् । इत्थं च टिप्पनके पर्वतिथिक्षयेऽपि प्रागापादिता पर्वतिथ्यगाधनाया अव्यवस्थापत्तिविलोपापत्तिश्च दूरोत्सारितैव । नापि 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इति नियमबाधः । औदयिकत्रयोदश्या एव चतुर्दशीत्वेन कार्यत्वोपदेशात्, औदयिकत्वस्यापि तत्र लाभात् । अत एव नापि 'इयराए कीरमाणीए आणाभंगणवत्था मिच्छत्तविराहणं पावे' इति आज्ञाभङ्गादिप्रत्यवायप्रसङ्गोऽपि । अनौदयिक्यां तिथौ प्रमाणीक्रियमाणायामेव तदापत्तेः । औदयिक्या एव त्रयोदश्याः चतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकरणात् तत्रौदयिकत्वस्याऽनपायाच्च। नन्वेवमपि टिप्पनके चतुर्दशीक्षये सोमवासरे औदयिक्यास्त्रयोदश्या एव सत्त्वेन तत्र चतुर्दशीत्वाभावेन तत्र चतुर्दशीत्वज्ञानमारोपरूपं भविष्यति । अतस्मिस्तदध्यवसाय: समारोपः । यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति हि तल्लक्षणात् । न च तत्र दिने टिप्पनके चतुर्दश्या औदयिकत्वाभावेऽपि चतुर्दश्या भोगसत्त्वेन Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ १२५ तत्र दिने चतुर्दशीज्ञानं नारोपरूपम्, आरोपलक्षणस्याभावात् । न हि घटपटवति भूतले घटपटौ' स्तः इति ज्ञानम्, कनकरत्नमयकुण्डले कनकरत्नज्ञानं वारोपरूपं भवितुमर्हतीति वाच्यम् । तत्र दिने तद्भोगसत्त्वेऽपि तिथिप्रामाण्ये तद्भोगस्याऽप्रयोजकत्वात् । 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्यादिना तत्र सूर्योदयस्पर्शित्वरूपौदयिकत्वस्यैव प्रामाण्यप्रयोजकत्वेनोक्तत्वात् । यत्र दिने टिप्पनके यस्यास्तिर्भोगः स्यात्तत्र दिने तस्यास्तिथे: तत्तिथित्वेनाराधनायां प्रामाण्यमित्येवंरीत्या तिथिप्रामाण्ये भोगस्यैव प्रयोजकत्वे 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्यादिना विरोधापत्तिः । तत्रौदयिकत्वस्यैव प्रामाण्यप्रयोजकत्वस्योक्तत्वात् । 'उदयंमि' इत्यादेवैयर्थ्यापत्तेश्च । टिप्पनकवचनादेव प्रागुक्तार्थलाभात् । किञ्चैवं तत्तत्तिर्भोगस्यापि यथा तत्र दिने व्यादिलक्षणे सत्त्वं तथा तत्पूर्वदिनेऽपि तद्भोगस्य सत्त्वादतिप्रसङ्गापत्तिः । तिथिक्षयदिने च तिथित्रयस्य भोगसत्त्वेन तत्रैकस्मिन्नेव दिने तिथित्रयस्यापि तत्तत्तिथित्वेनाराधनायां प्रामाण्यापत्तिश्च दुरुद्धरा स्यात् । न च क्षीणतिथ्यतिरिक्ततिथिस्थले आराधनायां प्रामाण्ये 'उदयंमि' इत्यादिनौदयिकत्वस्य प्रयोजकत्वेऽपि क्षीणतिथौ प्रामाण्ये तद्भोगस्यैव प्रयोजकत्वमिति न प्रागुक्तदोषापत्तिर्न वारोपज्ञानापत्तिरिति वाच्यम् । तत्रार्थे प्रमाणाभावात् । 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या' इत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेश्च । प्रत्युत तथा सति 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या' इत्यत्र स्थाने-'क्षये भोगदिने कार्या'-यद्वा- 'क्षये भोगवती कार्या'- इत्येवंरूपस्यैव वचनसन्दर्भस्य युक्तत्वेन कर्त्तव्यत्वं स्यात् । न चैवमस्तीति न क्षयस्थलेऽपि भोगस्य प्रामाण्यप्रयोजकत्वं युक्तियुक्तं प्रतिभातीति । तथा च प्रागुक्तसोमवासरे औदयिक्यां त्रयोदश्यां चतुर्दशीत्वाभावेन तत्र चतुर्दशीत्वज्ञानमारोपरूपमेव। प्रागुक्तारोपलक्षणस्य तत्र सुघटत्वात् ।। अथ तिथिसामान्ये समाप्तिमत्त्वस्यैव प्रामाण्यप्रयोजकताऽस्तु । तथा हि यस्मिन्नेवादित्यवारलक्षणे दिने या तिथिः समाप्यते स एवादित्यवारलक्षणो दिवस आराधनायां तत्तिथित्वेन प्रमाणतया स्वीकार्यः । यथाऽऽश्विनशुक्लपक्षे आदित्यदिने साधिके द्वे घटिके यावद् द्वादशी, तदनु च त्रयोदशीति आदित्यदिने द्वादश्यां समाप्तिमत्त्वेनादित्यदिनो द्वादशीतिथित्वेनाराधनायां प्रमाणतया स्वीकार्यः, न तु Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ग्रन्थत्रयी त्रयोदशीतिथित्वेन । तत्र त्रयोदशीभोगसत्त्वेऽपि त्रयोदश्यास्तत्र दिने समाप्तिमत्त्वाभावात् । किन्तु सोमवासर एव त्रयोदशीतिथित्वेन स्वीकार्यस्तत्रैव दिने त्रयोदश्यां समातिमत्त्वात् । तथा च चतुर्दशीक्षयेऽपि सोमवासरे चतुर्दश्याः समाप्तिमत्त्वेन सोमवासर एव चतुर्दशीतिथित्वेनापि स्वीकार्यस्तल्लक्षणसत्त्वात् । तत्राऽऽरोपज्ञानापत्तेरप्यभावात् चतुर्दशीसमाप्तिमत्येव सोमवासरे चतुर्दशीज्ञानात् ।। न च तत्र दिने त्रयोदश्याः समाप्तत्वेन कथं चतुर्दश्या अपि समाप्तत्वमिति वाच्यम् । तस्मिन् सोमवासरे द्वयोरपि तयोः समाप्तिमत्त्वेन तस्या अपि समाप्तिमत्त्वाविरोधादिति चेत् । न । तिथिसामान्ये 'उदयंमि जा तिही सा पमाणं' इत्यादिनौदयिकत्वस्यैव प्रामाण्यप्रयोजकत्वस्य तत्र तत्रोक्तत्वेन तत्र समाप्तिमत्त्वेन प्रामाण्यप्रयोजकतायां प्रमाणाभावात्। टिप्पनके एकस्मिन् दिने तिथिद्वयसत्त्वेऽप्याराधनायामेकस्मिन् दिने तिथिद्वयमन्तव्यतायां प्रमाणाभावात् । 'आदित्योदयवेलाया' मित्यादिवचनप्रामाण्यात् तत्र दिने एकस्यास्त्रयोदश्या एवाहोरात्रव्यापित्वमन्तव्यताया अनिवार्यत्वेन तत्र चतुर्दश्यभेदाध्यारोपं विना चतुर्दशीमन्तव्यताया अनवकाशाच्च । . न च, समाप्तिघटितलक्षणे को विरोधः ? किं शास्त्रविरोधो वा लोकव्यवहारविरोधो वा? को वा दोषः ? किमव्याप्तिर्वाऽतिव्याप्तिर्वाऽसम्भवो वेति वाच्यम् । समाप्तिघटितलक्षणस्य शास्त्रलोकव्यवहारोभयविरोधित्वात्, शिष्टपुरुषैः परिगृहीतत्वाभावात्, अव्याप्तिदोषग्रस्तत्वाच्च । तथा हि-शास्त्रे पूर्वाचार्य:-'उदयंमि जा तिहि प्रातः प्रत्याख्यानवेलायाम्'जासिं उदेइ सूरो' 'जीए उदेइ सूरो' इत्यादिभिर्वचनैरुदयघटितलक्षणस्यैव सर्वत्र प्रणयनात् शास्त्रविरोधः । एवं सूर्योदयानुसारेणैव लोकेऽपि दिवसादिव्यवहारात् 'आदित्योदयवेलायाम्', 'यां तिथि समनुप्राप्य उदयं याति भास्कर । सा तिथि सकला ज्ञेया दानस्नानजपादिषु ।' इत्यादिभिश्च वचनैर्लोकव्यवहारेऽप्युदयघटितलक्षणस्यैव परिग्रहालोकव्यवहारविरोधोऽपि। श्राद्धविधि-विचारामृतसङ्ग्रह-हीरप्रश्न-सेनप्रश्न-धर्मसङ्ग्रह-तिथिहानिवृद्धि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १२७ विचारादौ क्वचिदपि शिष्टपुरुषैः समाप्तिघटितलक्षणस्यापरिग्रहात्, साक्षिपाठतयाऽपि शिष्टपुरुषैः क्वचिदपि तस्यानुपात्तत्वेन शिष्टपुरुषैरपरिग्रहोऽपि तस्य स्पष्ट एवेति । एवं यत्र गुरुवासरे षष्टिं घटिका यावदष्टमी, शुक्रवासरेऽपि चत्वारिंशत्पलानि यावदष्टमी, तदनु च नवमी, तत्र गुरुवासरे कस्या अपि तिथेः समातेरभावात् समाप्तिघटितलक्षणस्य तव मते तत्र गुरुवासरेश्व्याप्तिदोषग्रस्तत्वमपि । नहि कोऽपि रव्यादिवारलक्षणो दिनः तिथिव्यवहारशून्यो लोके शास्त्रे चाभ्युपगम्यते । तथा च त्वन्मते समाप्तिघटितलक्षणे गुरुवासरेऽष्टम्याः समाप्त्यभावेन कस्या अपि तिथे: समाप्त्यभावेन तिथिसामान्याभावापत्त्या 'अद्य गुरुवासरे न कापि तिथिर्वर्तते किन्तु तिथिशून्योऽयं गुरुवासरः' इत्यपूर्वव्यवहारापत्तिरपि दुर्निवारेति ।। न च तत्र दिनेऽपि भोगघटितलक्षणेनोदयघटितलक्षणेन वा तिथिप्रामाण्यं तिथिव्यवहारश्चेति वाच्यम् । ___ क्वचित् समाप्तिघटितलक्षणेन क्वचिद्भोगघटितलक्षणेनोदयघटितलक्षणेन वा तिथिप्रामाण्यं तिथिव्यवहारचेत्यत्र विनिगमकप्रमाणाभावात् । स्वेच्छया विनिगमकत्वकल्पनाया निर्मूलत्वेन तस्या अनुपादेयत्वाच्च । - किञ्च समातिमत्त्वस्य प्रामाण्यप्रयोजकतायामौदयिकत्वेन प्रामाण्यप्रयोजक प्रतिपादकपूर्वाचार्यनिबद्धपूर्वाचार्यपरिगृहीतप्रागुपदर्शितशास्त्रवचनानामनवकाशत्वेन वैयर्थ्यापत्तिः । 'क्षये पूर्वा तिथि: कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति विशेषवचनस्यापि वैयर्थ्यापत्तिश्च, प्रयोजनाभावात् । न च तवेष्टापत्तिरपि वक्तुं शक्या । प्रावचनिकानां पूर्वाचार्यभगवतां वचनानां वैयर्थ्यकथने स्वमतिमान्द्यदोषादनवगततद्वचनतात्पर्यार्थकस्य तव महाशातनाप्रसङ्गात् । एतेन-क्षीणवृद्धतिथ्यतिरिक्ततिथावौदयिकत्वेन प्रामाण्यम्, क्षीणतिथौ वृद्धतिथौ च समाप्तिमत्त्वेनैव प्रामाण्यमस्तु । यतस्तिथिक्षये यत्र दिने पूर्वा तिथिस्तत्र क्षीणतिथेः समाप्तिसत्त्वात् । तिथिवृद्धौ च यत्र दिन उत्तरा तिथिस्तत्र वृद्धतिथेः समाप्तिसत्त्वादित्यपि निरस्तम् । उक्तदोषानतिवृत्तेः । एतदर्थस्यापि निर्मूलत्वाच्च । तत्र समाप्तिसत्त्वेऽपि तस्याः प्रामाण्यप्रयोजकत्वे प्रमाणाभावात् । औदयिकत्वेनैव प्रामाण्यस्य शास्त्रे लोके च व्यवस्थापितत्वात् । __किञ्चैवं सति 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा' इत्यत्र 'समाप्तैव तिथिः कार्या क्षये वृद्धौ तथैव चे' त्येतादृशसमाप्तिवाचकपदघटितत्वदभिमततादृशार्थप्रतिपादकस्यैव वचनसन्दर्भस्य कर्त्तव्यतापत्तेः । अन्यथा 'क्षये पूर्वे' तिवचनस्यैव Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ग्रन्थायी वैयर्थ्यापत्तेस्तादवस्थ्यात् । ___ एतेन-तिथावौदयिकत्वलाभे सर्वत्रौदयिक्येव ग्राह्या, औदयिकत्वेनैव प्रामाण्यात् । परं तिथिक्षये तु तत्रौदयिकत्वस्यासत्त्वादनौदयिक्येव सा प्रमाणीकार्येत्यपि निरस्तम् । एवं हि 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये' त्यत्र 'क्षयेऽनौदयिकी कार्ये' ति अनौदयिकत्वबोधकपदघटितस्यैव वचनसन्दर्भस्य कर्त्तव्यत्वापत्तेः । अन्यथा तत्र पूर्वतिथ्युपादानस्यैव वैयर्थेन 'क्षये पूर्वे' ति वचनस्य वैयर्थ्यापत्तेः । तथा च प्रागुक्तारोपज्ञानापत्तिर्दुरुद्धरैवेति चेत् । अत्रोच्यते तथा हि-किमिदमारोपज्ञानमाहार्यरूपमापाद्यते किं वाऽनाहार्यरूपम् : बाधकालीनेच्छजन्यं हि ज्ञानमाहार्यज्ञानम् । तद्भिनं ज्ञानमनाहार्यज्ञानमिति । ___ तत्र न द्वितीयः पक्ष:-'क्षये पूर्वे' ति वचनप्रयोज्यस्य तादृशारोपज्ञानस्याऽनाहार्यत्वस्यैवाऽसिद्धेः । प्रथमः पक्ष इति चेत् । तर्हि इष्टापत्तिरेव । तिथिक्षये तदाराधनायां कर्त्तव्यतायां तत्रौदयिकत्वलाभाय 'पूर्वा तिथिः कार्ये' ति वचनेन तबाहार्यारोपज्ञानस्यैव विहितत्वात् । टिप्पनके चतुर्दश्यादिक्षये तत्र दिने चतुर्दश्या औदयिकत्वबाधेऽपि तदाराधनायां कर्त्तव्यतायां तत्रौदयिकत्वलाभाय 'क्षये पूर्वे' तिवचनप्रयोज्यस्य 'तत्पूर्वा तिथिगैदयिकी त्रयोदश्येव चतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकार्ये'त्याकारकस्य तत्राहार्यारोपात्मकस्यैव चतुर्दशीत्वज्ञानस्य प्रयोजकत्वात् । न चाहार्यारोपज्ञानं नाराधनायां प्रयोजकमिति वाच्यम् । एवं हि जिनप्रतिमाया अप्याहार्यभगवदभेदाध्यारोपविषयत्वेन वन्दनपूजनादिफलहेतुता शास्त्रप्रतिपादिता न स्यादेव । यदुक्तं नयोपदेशे - 'प्रतिष्ठितप्रत्यभिज्ञा-समापन्नपरात्मनः। आहार्यारोपतः सा च द्रष्ट्रणामपि धर्मभूः ॥' 'वन्दनपूजनादिफलप्रयोजकत्वं कथं प्रतिष्ठाया इति जिज्ञासायामाह-प्रतिष्ठितेति । सा स्थापना प्रतिष्ठिंतप्रत्यभिज्ञया समापन्नो यः परमात्मा-भगवान्, तस्याहार्यारोपतः राष्ट्रणामुपलक्षणाद् वन्दकानां पूजकानां च धर्मभू-धर्मकारणं भवति । अयं भावः Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ प्रतिमायांभगवदभेदाध्यारोपं विना न तावद् वन्दनपूजनादिफलं हेतुसहस्रेणापि सम्पद्यते। स च काठपाषाणत्वादिनाऽभेदप्रत्यक्षे सति स्वरसतो नोदेतीत्याहार्य एव सम्पादनीयः । आहार्यत्वं चेच्छाजन्यत्वम् । इच्छ चेष्टसाधनताज्ञानसाध्येतीष्टसाधनताज्ञानसम्पादनाय प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगवदभेदेनाध्यारोपयेदिति विधिः कल्पनीयः । तथा चाहार्यभगवदभेदाध्यारोपविषयप्रतिमापूजनत्वादिना फलविशेषहेतुत्वे आहार्यत्वप्रयोजकेच्छाजनकज्ञानजनकज्ञानविशेष्यतावच्छेदककुक्षिप्रविष्टत्वेन प्रतिष्ठाया अपि परम्परया प्रयोजकत्वमित्युक्तं भवति' । इति तद्वृत्तौ नयामृततरङ्गिण्याम् । , एवमत्रापि चतुर्दशीक्षये सोमवासरे औदयिकत्रयोदश्यामौदयिकचतुर्दश्यभेदारोपं विना 'अट्ठमी चउद्दसीसु अ नियमेण हविज्ज पोसहिओ' इत्यादिवचनप्रासं चतुर्दश्यां चतुर्दश्याराधनं तज्जनितकर्मनिर्जरारूपफलं च नैव सम्पद्यते, चतुर्दश्याराधनस्यौदयिकचतुर्दशीप्रतिबद्धत्वात् । तत्र दिने चौदयिकत्रयोदश्या एव सत्त्वेनौदयिकचतुर्दश्यभावात् । चतुर्दश्यभेदारोपश्च तत्र सोमवासरे औदयिकत्रयोदशीत्वेन भेदज्ञाने सति स्वरसतो नोदेतीत्याहार्यारोप एव सम्पादनीयः । आहार्यत्वं चाहार्यज्ञानं मे भवत्वितीच्छाजन्यत्वम्। इच्छा चाहार्यज्ञानं मदिष्टसाधनमितीष्टसाधनताज्ञानसाध्येतीष्टसाधनताज्ञानसम्पादनायात्रापि प्रतिष्ठितां प्रतिमा पूजयेदित्यादिवाक्यलक्षणपूजादिविधिना प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगवदभिन्नत्वेनाध्यारोपयेदिति ज्ञानविधिकल्पनावत, आराधनायां 'क्षये पूर्वा तिथि: कार्ये' ति वाक्यलक्षणक्षीणतिथिविषयकप्रामाण्यविधिनैव पर्वतिथिक्षये तत्पूर्वी तिथिमेव तत्पर्वमें तिथ्यभिन्नत्वेनाध्यारोपयेदिति सामान्यतः चतुर्दश्यादिक्षये तत्पूर्वामौदयिकत्रयोदशीमेवीदयिकचतुर्दश्यभिन्नत्वेनाध्यारोपयेदिति । विशेषतच ज्ञानविधिरपि कल्पनीय एवेति । अध्यारोपश्चात्र सोमवासरे औदयिकत्रयोदश्यां चतुर्दश्येवेयम्, औदयिकचतुर्दश्येवेयम्, औदयिकचतुर्दशीदिन एवायमित्याद्याकारकबोधरूप एव । तथा च चतुर्दशीक्षयेऽपि चतुर्दश्याराधनमौदयिकचतुर्दश्यामेव जातमिति न तद्विलोपो न वाऽव्यवस्था, नैव चाज्ञाभङ्गादिरूपप्रत्यवायलेशोऽपि । यथा जिनाभावेऽपि जिनप्रतिमायां जिनेश्वरभगवदभेदाध्यारोपेणैव शास्त्रविहितजिनपूजनाधाराधना भवति । न वा जिनपूजनाधाराधनाविलोपो नैव च जिनपूजनाधकरणप्रत्ययप्रत्यवायलेशोऽपीति सर्व निर्दुष्टमेवोपपत्रमिति । न चारोपज्ञानं प्रमज्ञानमेव । भ्रमस्य चार्थक्रियां प्रत्यायोजकत्वात कथमत्र तस्य प्रयोजकत्वमिति वाच्यम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ग्रन्थत्रयी विसंवादिभ्रमस्यार्थक्रियाकारित्वाभावेऽपि संवादिभ्रमस्यार्थक्रियाकारित्वाविरोधात् । तथा हि-कस्मिश्चिन्मन्दिरेऽपवरकस्यान्तर्दीपस्तिष्ठति । तस्य प्रभा बहिनिदेशे रत्नमिव वर्तुलोपलभ्यते । तथाऽन्यस्मिन्मन्दिरेपवरकस्यान्तःस्थितस्य रवस्य प्रभा बहिनिदेशे दीपप्रमेव रत्नसमानोपलभ्यते । तत्र तथाविधं प्रभाद्वयं दूरतो दृष्ट्वा अयं मणिरयं मणिरिति बुझ्या द्वौ पुरुषावभिधावनं कुरुतः । तयोर्द्वयोरपि प्रभाविषये जायमानं . मणिज्ञानं भ्रान्तमेव । तथापि दीपप्रभायां मणिबुद्धिं कृत्वा धावता पुरुषेण मणिर्न लभ्यते, मणेः प्रभायां मणिबुड्या धावता मणिर्लभ्यत एव । अथात्र या दीपप्रभायां मणिभ्रान्तिरस्ति स विसंवादिभ्रम उच्यते । मणिलाभलक्षणार्थक्रियारहितत्वात् । या च मणिप्रभायां मणिबुद्धिरस्ति सा तु मणिलाभलक्षणार्थक्रियाकारित्वात् संवादिभ्रमः कथ्यते। उक्तश्चायमर्थोऽन्यैानदीपे । तथा हि - 'संवादिभ्रमवद् ब्रह्म-तत्त्वोपास्त्यापि मुच्यते । उत्तरे तापनीयेऽतः श्रुतोपास्तिरनेकधा ॥ १ ॥ मणिप्रदीपप्रभयो-मणिबुद्ध्याभिधावतोः । मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रिया प्रति ॥ २॥ दीपोऽपवरकस्यान्त-वर्तते तत्प्रभा बहिः । दृश्यते द्वार्यथाऽन्यत्र तद्वद् दृष्टय मणेः प्रभा ॥ ३ ॥ - दूरे प्रभाद्वयं दृष्ट्वा मणिबुद्ध्याऽभिधावतोः । . प्रभायां मणिबुद्धिस्तु मिथ्याज्ञानं द्वयोरपि ॥ ४ ॥ न लभ्यते मणिर्दीप-प्रभा प्रत्यभिधावता । प्रभायां धावताऽवश्यं लभ्येतैव मणिर्मणेः ॥ ५ ॥ दीपप्रभामणिप्रान्ति-विसंवादिभ्रमः स्मृतः ।। मणिप्रभामणिप्रान्तिः संवादिभ्रम उच्यते ॥ ६ ॥ बाष्पं धूमतया बुवा तत्राङ्गायनुमानतः । वहिर्यदृच्छया लब्धः स संवादिप्रमो मतः ॥ ७ ॥ गोदावर्युदकं गङ्गो-दकं मत्त्वा विशुद्धये । सम्प्रोक्ष्य शुद्धिमाप्नोति स संवादिभ्रमो मतः ॥ ८ ॥ ज्वरेणाप्तः सन्निपातं प्रान्त्या नारायणं स्मरन् । मृतः स्वर्गमवाप्नोति स संवादिभ्रमो मतः ॥ ९ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १३१ प्रत्यक्षस्यानुमानस्य तथा शास्त्रस्य गोचरे. । उक्तन्यायेन संवादि-भ्रमाः सन्ति हि कोटिशः ॥१०॥ अन्यथा मृत्तिका - दारु-शिलाः स्युर्देवताः कथम् । अग्नित्वादिधियोपास्यां कथं वा योषिदादयः ॥ ११ ॥ अयथावस्तुविज्ञानात् फलं लभ्यत ईप्सितम् । काकतालीयतः सोऽयं संवादिभ्रम उच्यते ॥ १२ ॥ स्वयं भ्रमोऽपि संवादी यथा सम्यक्फलप्रदः । ब्रह्मतत्त्वोपासनापि तथा मुक्तिफलप्रदा ॥ १३ ॥ इति । इत्थं च संवादिभ्रमस्यार्थक्रियाकारित्वमविरुद्धमिति सिद्धम् । एवमनङ्गीकारे च प्रतिष्ठितप्रतिमादयोऽपि जिनत्वेन पूज्या न भवेयुः । नैव वा वन्दनपूजनादिफलप्रयोजिकाश्च भवेयुरिति प्रतिमापूजादिविलोपापत्तिः प्रतिष्ठाविधिवैयर्थ्यापत्तिश्च दुर्निवारा तव प्रसज्येत । तस्मात् चतुर्दशीक्षये सोमवासरे औदयिकत्रयोदश्यां चतुर्दश्यभेदारोपस्यापि संवादिभ्रमरूपतयाऽऽराधनां प्रति प्रयोजकत्वं निर्विरोधमेव सिद्धम् । न च तस्य संवादिभ्रमत्वे किं मानमिति वाच्यम् । 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये' ति विधिप्रयोज्यत्वस्यैव तत्र मानत्वात् । प्रतिमायां भगवदभेदाध्यारोपस्य संवादिभ्रमत्वेऽपि 'प्रतिष्ठितां प्रतिमां पूजये' दितिविधिप्रयोज्यत्वस्यैव प्रमाणतयेष्टत्वादिति । एतेन प्रतिमाप्रतिष्ठापूजादावारोपज्ञानस्योपादेयत्वेऽप्यत्र तिथ्याराधनायां तिथौ तस्यानुपादेयत्वमेवेत्यपि निरस्तम् । द्वयोरपि तुल्यकक्षत्वात् । प्रागुक्तयुक्त्या तिथावहौरात्रव्यापित्वाभावे तत्तत्तिथिनिमित्तकशास्त्रप्रतिपादिताहोरात्रव्यापिपौषधादिव्रतनियमाराधनान्यथानुपपत्तेः । 'आदित्योदयवेलाया' मित्यादिवचनप्रामाण्याभ्युपगमाच्च । टिप्पनके तिथावहोरात्रव्यापित्वाभावेऽप्याराधनायां तत्राहोरात्रव्यापित्वस्य तवाप्यवश्यं स्वीकार्यतया तिथावप्यारोपज्ञानस्य तवाप्युपादेयत्वात् । इत्थमेव च टिप्पनके चतुर्दशीक्षये तत्र दिने आराधनायां त्रयोदशीतिव्यपदेशस्याऽसम्भवोऽपि घटते । त्रयोदश्या एव तत्र चतुर्दशीत्वेन स्वीकारात् । अन्यथा तत्र दिने टिप्पनके त्रयोदश्या एक आदित्योदयवेलायां सत्त्वेनाऽहोरात्रव्यापित्वस्यापि तस्या एव मन्तव्यतानुज्ञानात् कथं तत्र दिने चतुर्दशीतित्वव्यपशोऽपीति ? 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ग्रन्थत्रयी किञ्च, यथा जिनप्रतिमायां जिनाभेदाध्यारोपं विना'ऽनेन सूरिणा जिनप्रतिष्ठा कृता, मया जिनपूजा विहिता, इदं जिनमन्दिरं वर्तते' इत्यादयो व्यवहाराः, तत्र जिनप्रतिमाया अग्रे शकस्तवादिपठनम्, अङ्गाग्रभावभिन्नं पूजाविधानम्, अवस्थात्रयध्यानं चेति सर्व नोपपद्येत, तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिक्षयेऽप्यौदयिकत्रयोदशीसप्तम्यादिषु चतुर्दश्यष्टम्याद्यभेदाध्यारोपं विनापि 'अद्य चतुर्दशी वर्तते, अद्याष्टमी वर्त्तते, अद्य मया चतुर्दशी आराधिता, अद्याष्टमीपर्व वर्तत इति मया पौषधः कृतः' इत्यादयो व्यवहाराः चतुर्दश्यादिपर्वतिथिनिमित्तकपाक्षिकप्रतिक्रमण-चैत्यपरिपाटि-साधुवन्दनपौषधोपवासादिव्रतनियमादिकं चेति सर्वमपि नोपपद्येत । 'उदयंमि जा तिही सा प्रमाणं' इत्यादिनौदयिकचतुर्दश्यादेरेव प्रमाणतया कर्तव्यतानुज्ञानात् । टिप्पनके चतुर्दश्यादिक्षये चौदयिकचतुर्दश्यादेरलाभात् । . तस्माद् यथा जिनाभावे आराधनायां जिनप्रतिमैव जिनरूपा मन्तव्या, तथा टिप्पनके औदयिकचतुर्दश्याद्यभावे आराधनायां 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये'ति वचनप्रामाण्यात तत्पूर्वा तिथिगैदयिकत्रयोदश्यादिरेवौदयिकचतुर्दश्यादिरूपा मन्तव्येति सिद्धम् । एवं परमात्मप्रतिमायां यथा परमात्माभेदाध्यारोपं विना परमात्मविषयकभावोल्लासस्यैवाऽनुद्भवःतथा टिप्पनके औदयिकचतुर्दश्याद्यभावे आराधनायामौदयिकत्रयोदश्यादिष्वौदयिकचतुर्दश्याद्यभेदाध्यारोपं विना तत्र चतुर्दश्यादिपर्वविषयकभावोल्लासस्याप्यनुद्भव एवेत्यपि बोध्यम् । ननु क्षये पूर्वी तिथिमा॑ह्या' इत्यत्र क्षये-चतुर्दश्यादितिथिक्षये पूर्वैव-त्रयोदश्यादितिथिरेव ग्राह्या-आराध्यत्वेनोपादेया, इत्येवार्थो ज्यायान् । किमर्थमारोपादिकल्पनमिति चेत् । न । तत्राऽऽरोपस्य सप्रमाणं युक्तियुक्तत्वस्य दर्शितत्वात् । किञ्चैवं सति चतुर्दशीक्षये त्रयोदश्या एवाराध्यत्वं प्राप्तम्, पूर्वतिथितया तस्या एव तत्राराध्यत्वेनोपादेयत्वात् । न तु चतुर्दश्याः, इति तस्या अनाराध्यतैव प्रसक्ता । तथा च चतुर्दशीक्षये तदाराधनोपपत्तये विहितं व्याख्यानं तदाराध्यत्वमपि लोपयतीति तदाराधनमिच्छतस्तव तदाराध्यत्वमेव विलुप्तमिति वृद्धिमिच्छतो मूलमपि ते विनष्टमिति न्यायापत्तिः । किञ्च, चतुर्दशीक्षये पूर्वा तिथिौदयिकी त्रयोदश्याराध्यत्वेनोपादेया । इत्यत्र Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ त्रयोदशी किं त्रयोदशीत्वेनोपादेया किं वा चतुर्दशीत्वेन ? आद्ये, त्रयोदश्या एवाराधनं जातम्, न तु चतुर्दश्या, इति चतुर्दश्याराधनाया अनवकाशात्तद्विलोपः । द्वितीये तु स्वीकृत एवाऽभेदाध्यारोप इति । स्यादेतत् । चतुर्दशीक्षये पूर्वा तिथिरौदयिकी त्रयोदश्येवाराध्यत्वेनोपादेया, इत्यत्र यदा चतुर्दश्याः क्षयः स्यात्तदा चतुर्दश्याराधना- साधुवन्दन - चतुर्थकरणचैत्यपरिपाटि - पाक्षिकप्रतिक्रमणादिरूपा तत्पूर्वस्यां तिथावौदयिक्यां त्रयोदश्यामेव विधेया । इत्येतदेव तात्पर्यमिति चेत् । I १३३ न । एवं हि चतुर्दश्याराधना त्रयोदश्यामेव जाता, न तु चतुर्दश्यामिति चतुर्दश्यां तदकरेणन प्रायश्चित्तापत्तिः । शास्त्रे च चतुर्दशीरूपपाक्षिकाराधनायाश्चतुर्दश्यामेव कर्त्तव्यतोक्तेः । तत्र तदकरणे प्रायश्चित्तोक्तेश्च । यदुक्तं महानिशीथ - निशीथ-व्यवहारावश्यकचूर्ण्यादौ, तथा हि - 'संते बले वीरियपुरिसयारपरक्कमे अट्ठमी - चउद्दसी - नागपंचमी - पज्जोसवणाचाउमासीए चउत्थट्ठमटुं न करेइ, पच्छित्त' मिति । 'अट्टमीए पक्खिए चउत्थं चउमासीए छटुं संवच्छरीए अट्ठमं न करेइ, पच्छित्त' मिति । 'एएस चेव चेइयाई साहुणो वा जे आणाए विहिए ठिआ, ते न वदंति पच्छित्तमिति । 'एतेषु चाष्टम्यादिदिवसेषु चैत्यानामन्यवसतिगतसाधूनां वाऽवन्दने प्रत्येकं प्रायश्चित्तमिति । 'अट्टमी - चउद्दसीसुं अरहंता साहुणो य वंदेयव्वा' इति । 'अट्ठम छटु- चउत्थं संवच्छर- चाउमास पक्खेसु । पोसहियतवे भणिए बितियं असहू गिलाणेसु ॥' इति । 'अट्ठमी - चउद्दसीसु उववासकरण' मिति च । एवं च सर्वसम्मतस्य तत्तत्तिथ्याराधनायास्तत्तत्तिथिकर्त्तव्यता त्वनियमस्य विराधनाप्रसङ्गोऽपि दुर्निवारः स्यात् । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ग्रन्थत्रयी ननु, तत्रौदयिकत्रयोदश्याश्चतुर्दशीत्वेनैव स्वीकारः । त्रयोदशीतिव्यपदेशस्यापि तत्राभावात्, चतुर्दश्येवेति तत्र व्यपदिश्यमानत्वादिति चेत् । तर्हि घट्टकुट्यां प्रभातमायातमेव । 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये'ति वचनप्रामाण्यात चतुर्दश्याः क्षये तत्पूर्वोदयिकी त्रयोदशी चतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकार्येति स्वीकृत एव चौदयिकत्रयोदश्यां चतुर्दश्यभेदाध्यारोपः । अन्यथा क्षीणचतुर्दश्याराधना त्रयोदश्यां क्रियमाणा चतुर्दश्याराधनाया व्यपदेशमेव न लभेत । प्रतीतमेव चाबालगोपालं चतुर्दश्याः क्षयेऽपि तादृशव्यपदेशः, 'अद्यास्माभिः पौषधोपवासादिना चतुर्दश्याराधना विहिते'ति । जिनप्रतिमायामपि क्रियमाणा वन्दनपूजनाधाराधना तब भगवदभेदाध्यारोप एव जिनाराधनाव्यपदेशं लभते, नान्यथेति ।। एतेन चतुर्दश्या औदयिकत्वलाभे चतुर्दश्यामेव चतुर्दश्याराधना कार्या । तस्या औदयिकत्वाभावे तु 'क्षये पूर्वे' तिवचनात् तत्पूर्वस्यामौदयिकत्रयोदश्यामेव चतुर्दश्याराधना कार्येति न प्रागुक्तदोषापत्तिरित्यपि निरस्तम् ।। तथा सति 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये'त्यत्र प्रथमान्ततिथिपदघटितात् तादृशवाक्यात तदर्थालाभात्, 'क्षये पूर्वतिथौ कार्ये' ति सप्तम्यन्ततिथिपदघटितस्यैव वाक्यसन्दर्भस्य कर्तव्यतापत्तेश्च । यत्तु 'क्षये पूर्वा तिथि: कार्ये' त्यस्यायमर्थ:-'क्षये-चतुर्दश्यादिक्षये पूर्वापूर्वविद्धा त्रयोदश्यादिविद्धैव तिथि:-सा क्षीणा चतुर्दश्यादितिथिः कार्या-प्रमाणतया विधेयेति ।' तथा च चतुर्दश्यादावौदयिकत्वलाभे औदयिक्येव सा प्रमाणीकार्या । तदलाभे तु पूर्वविद्धैव सा प्रमाणीकार्येति । - तदप्यसत् । तादृशार्थे प्रमाणाभावात् । पूर्वपदस्य गङ्गादिपदस्य तीरत्वादिनेव शक्यावृत्तिरूपेण पूर्वविद्धत्वेनैव बोधकतया जहत्सवाख्यलक्षणापत्तेश्च । किञ्च, कलिङ्गः साहसिक-इत्यत्रेवात्र प्रसिद्धिरूपरूढेरभावात् प्रयोजनमवश्यं वाच्यम् । यथा-गङ्गायां घोषः, इत्यत्र, गङ्गातटे घोषः इति प्रतिपादनालभ्यस्य शीतत्वपावनत्वातिशयस्य बोधनरूपं प्रयोजनं रूढि-प्रयोजनयोरन्यतरं विनापि यस्य कस्यचित् सम्बन्धिनो लक्षणेऽतिप्रसङ्गापत्तेः । न चात्रैवं किञ्चिदपि प्रयोजनमुपलभ्यते । न चौदयिकत्वालाभेऽनौदयिक्येव सा कार्येत्येवार्थमा बोधनरूपं प्रयोजनमिति वक्तुं साम्प्रतम् । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ __ तथा सति हि 'क्षये पूर्वे'त्यत्र 'क्षयेऽनौदयिकी कार्ये'त्येवं मुख्यशब्दघटितस्यैव प्रतिपादनस्य युक्तत्वं स्यात् । लक्षणायां विशेषाभावात् । किञ्च, क्षीणतिथौ यथा पूर्वतिथिविद्धत्वं तथोत्तरतिथिविद्धत्वमपि वर्तत एव । तत्र पूर्वतिथिविद्धत्वेनैव प्रामाण्यं न तूत्तरतिथिविद्धत्वेनेत्यत्राप्युत्तरविद्धत्वात् पूर्वविद्धत्वे विशेषाभावेन बीजाभावात् यत्त्वितिपक्षस्यायुक्तत्वमेव, व्यवच्छेदफलाभावे व्यवच्छेदस्य वैयर्थ्यात् । न च क्षीणतिथावुत्तरतिथिविद्धत्वमेव नास्तीति वाच्यम् । सिद्धान्तानुसारेण तत्रोत्तरतिथिविद्धत्वाभावेऽपि टिप्पनकानुसारेण तत्रोत्तरतिथिविद्धत्वावश्यंभावात् । तत्र क्षयदिनस्य तिथित्रयस्पर्शित्वनियमात् । 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' तिवचनस्यापि टिप्पनकानुसारितिथिविषयकत्वमेव । अन्यथा 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' त्युक्तिरेवाऽसङ्गता स्यात् । सिद्धान्तानुसारेण तिथेरहोरात्रप्रमाणन्यूनप्रमाणतया तिथेः क्षयेऽपि तिथिवृद्धेरभावात् । तिथि-तिथिप्रमाण-तिथिपातस्वरूपं चैवं सिद्धान्तानुसारि, श्रीलोकप्रकाशे'साधारणासाधारण-मण्डलान्येवमूचिरे । सम्प्रतीन्दोवृद्धिहानि-प्रतिभासः प्ररूप्यते ॥ अवस्थितस्वभावं हि स्वरूपेणेन्दुमण्डलम् । सदापि हानिर्वृद्धिर्वा येक्ष्यते सा न तात्त्विकी ॥ केवलं या शुक्लपक्षे वृद्धिानिस्तथाऽपरे । राहुविमानावरण-योगात् सा प्रतिभासते ॥ तथा हि- ध्रुवराहुः पर्वराहु-रेवं राहुविधा भवेत् । ध्रुवराहोस्तत्र कृष्ण-तमं विमानमीरितम् ॥ तच्च चन्द्रविमानस्य प्रतिष्ठितमधस्तले । चतुरङ्गलमप्राप्तं चारं चरति सर्वदा ॥ तेनापावृत्त्य चाकृत्त्य चरत्यधः शनैः शनैः । . वृद्धिहानिप्रतिभासः पोस्फुरीतीन्दुमण्डले ॥' । तथोक्तम्-"चंदस्स नेव हाणी न वि वुड्डी वा अवढिओ चंदो । सुक्किलभावस्स पुणो दीसइ वुड्डी य हाणी य ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ 'तत्र प्रकल्प्य द्वाषष्टिं भागान् शशाङ्कमण्डले । ह्रियते पञ्चदशभिर्लभ्यतेंऽशचतुष्टयम् ॥ किन्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमपपत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥ तेणं वड्डइ चंदो परिहाणी वावि होइ चंदस्स ।" द्वौ भागौ तिष्ठतः शेषौ सदैवानावृतौ च तौ । एषा कला षोडशीति प्रसिद्धिमगमद् भुवि ॥ कल्प्यन्तेऽशाः पञ्चदश विमाने राहवेऽथ सः । जयत्येकैकांशवृद्ध्या नीतिज्ञोऽरिमिवोडुपम् ॥ तच्चैवम् - स्वीयपञ्चदशांशेन कृष्णप्रतिपदि ध्रुवम् । पुक्त्वांशौ द्वावनावाय शेषषष्टेः सितत्विषः ॥ एतावदाव्रियते तत् प्रत्यहं भरणीभुवा । अहोभिः पञ्चदशभिरेवमाव्रियतेऽखिलम् ॥ चतुर्भागात्मकं पञ्चदशं भागं विधुंतुदः । आवृणोति द्वितीयायां निजभागद्वयेन च ॥ द्यष्टभागात्मकौ पञ्च- दशांशौ द्वौ रुणद्धि सः । षष्टिं भागानित्यमायां स्वैः पञ्चदशभिर्लवैः ॥ त्रिभिर्विशेषकम् । ततः शुक्लप्रतिपदि चतुर्भागात्मकं लवम् । एकं पञ्चदशं व्यक्ती - करोत्यपसरन् शनैः ॥ द्वितीयायां द्वौ विभांगौ पूर्णिमायामिति क्रमात् । द्वाषष्ट्यंशात्मकः सर्वः स्फुटीभवति चन्द्रमाः ॥ - तथाहु: - इन्दोः विधीयमनाः स्युः कृष्णाः प्रतिपदादिका: । तिथयो मुच्यमानाः स्युः शुक्ला: प्रतिपदादिकाः ॥ ' इन्दोश्चतुर्लवात्मांशो यावत्कालेन राहुणा । विधीयते मुच्यते च तावत्कालमिता तिथिः ॥ ग्रन्थत्रयी 'कालेण जेण हायइ सोलसभागो उ सा तिही होइ । तह चेव य वुड्डीए एवं तिहिणो समुप्पत्ती ॥' Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ "एकोनत्रिंशता पूर्णैर्मुहूर्तेश्च द्विषष्टिजैः । द्वात्रिंशता मुहूतांश-रेकैको रजनीपतेः ॥ चतुर्द्धा षष्ठ्यंशरूपो राहुणाऽऽच्छाद्यते लवः । मुच्यते व च तदैताव-न्मानाः स्युस्तिथयोऽखिलाः ॥ एवं च - द्वाषष्ठिभक्ताहोरात्र-स्यैकषष्ठ्या लवैर्मिता । तिथिरेवं वक्ष्यते यद् तद्युक्तमुपपद्यते ॥ ...... तिथिमानेऽस्मिश्च हते त्रिंशता स्याद्यदोदितैः । मासश्चान्द्र एवमपि त्रिंशत्तिथिमितः खलु ॥' इति विंशतितमे सर्गे । एवम्- अहोरात्रतिथीनां च विशेषोऽयमुदीरितः । भानूत्पन्ना अहोरात्रा-स्तिथयः पुनरिन्दुजाः ॥ उक्तं च- सूरस्स गगणमंडल-विभागनिप्फाइया अहोरत्ता । चंदस्स हाणिवुड्डी-कएण निष्फज्जए उ तिही ॥ किञ्च- अहोरात्रो भवेदों-दयादोंदयावधि । द्वाषष्टितमभागोना-होरात्रप्रमिता तिथिः ॥ इत्यादिभिर्विशेषैः स्या-दहोरात्रात्पृथक् तिथिः । द्विधात्वं च भवेत्तस्या दिनरायंशकल्पनात् ॥ यद्वदेकोऽप्यहोरात्रः सूर्यजातो द्विधाकृतः । दिनरात्रिविभेदेन संज्ञाभेदप्ररूपणात् ॥ तथैव तिथिरेकापि शशिजाता द्विधा कृता। दिनरात्रिविभेदेन संज्ञाभेदप्ररूपणात् ॥ एकैकस्यास्तिथेः काल-मानमेवं प्रकीर्तितम् । मुहूर्तानां त्रिंशदेक-न्यूनभागास्तथोपरि ॥ स्युभत्रिंशन्मुहूर्तस्यै-कस्य द्वाषष्ठिकल्पिताः । अस्योत्पत्तिः कथमिति श्रद्धा चेत् श्रूयतां तदा ॥ . अहोरात्रस्य भागा द्वा-षष्टिभागीकृतस्य हि । एकषष्ठिस्तिथेर्मान-मेकैकस्या यदीरितम् ॥ द्वाषष्टिजांशरूपैक-षष्टिस्तत् त्रिंशता हता । अहोरात्रमुहूर्तेः स्यात् त्रिंशाष्टादशशत्यहो ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ग्रन्थत्रयी एते चांशा द्वाषष्ट्यंशीकृतसकलतिथिमुहूर्तानाम् । सन्तीति द्वाषष्ट्या मुहूर्त्तकरणाय भजनीयाः ॥ (आर्या) ततो मुहूर्ता एकोन-त्रिंशद् द्वात्रिंशदंशकाः । द्वाषष्टिजा मुहूर्तस्या-गतास्तैश्च तिथेर्मितिः ॥ . कालेन चेयता पञ्च-दशांशश्चतुरंशकः । द्वाषष्टयंशी कृतस्येन्दो -हीयते वर्धते तथा ॥ ततश्च- यत्तिथिश्चन्द्रजेत्युक्तं तदप्येवं विनिश्चितम् । इन्दोः पञ्चदशांशस्य हानिवृद्ध्यनुवर्तनात् ॥ युगेऽथावमरात्राणां स्वरूपं किञ्चिदुच्यते । - भवन्ति ते च षड् वर्षे तथा त्रिंशद्युगेऽखिले ॥ . एकैकस्मिन्नहोरात्रे एको द्वाषष्टिकल्पितः । लभ्यऽवमरात्रांश-एकवृद्ध्या यथोत्तरम् ॥ कर्ममासे ततः पूर्णे त्रिंशद् द्वाषष्टिजा लवाः । लभ्यन्तेऽवमरात्रस्य तत एवोच्यते बुधैः ॥ विश्लेषे विहिते येऽशा: शेषाः कर्मेन्दुमासयोः । त्रिंशद् द्वाषष्टिजाः कर्म-मासस्यैतेऽवमांशकः ॥ उक्तं च - चंदउडूमासाणं अंसा जे दिस्सए विसेसंमि । . ते ओमस्तभागा भवंति मासस्स नायव्वा ॥ कर्ममासद्वये पूर्णे ततः षष्टिदिनात्मके । सम्पूर्णोऽवमरात्रः स्या-देकषष्टितमे दिने ॥ अयं भाव:- द्वाषष्टिरंशाः कल्प्यन्ते-ऽहोरात्रस्यादिमेऽथ च । तत्रैकषष्टिभागात्मा सम्पूर्णा प्रथमा तिथिः । एको द्वाषष्टिभागो यो-ऽहोरात्रस्यावशिष्यते । एकांशेन द्वितीयापि तिथिस्तत्र समाविशत् ॥ एको द्वाषष्टिभागोऽस्या अतीतः प्रथमे दिने । ततः षष्ट्यंशात्मिकेय-महोरात्रे द्वितीयके ॥ द्वाषष्ठ्यंशद्वये तस्य शेषेऽसौ पूर्णतां गता । द्वाभ्यां भागाभ्यां प्रविष्टा तृतीयाऽस्मिस्ततस्तिथिः ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ अहोरात्रे तृतीयेऽथ भागास्तुर्यतिथेस्त्रयः । प्रविशन्त्यथ पञ्चम्या - श्चत्वारोंऽशास्तुरीयके ॥ एवमेकैकभागेन हीयते प्राक्तना तिथिः । वर्धते प्रत्यहोरात्रं तिथिरागामिनी पुनः ॥ एकत्रिंशत्तमतिथे रेवं त्रिंशत्तमे दिने । त्रिंशदंशाः प्रविष्टाः स्यु- स्ततस्तस्मिन् दिने खलु ॥ द्वात्रिंशदंशप्रमिता तिथिरित्रंशत्तमी भवेत् । त्रिंशद् द्वाषष्ठ्यंशमाना चैकत्रिंशत्तमी तिथिः ॥ क्रमाच्च द्वावंशौ स्तः षष्टितम - तिथेः षष्टितमे दिने । एकषष्टितमतिथे - स्तत्र षष्टिः स्युरंशकाः ॥ एकषष्टितमतिथे-चैकषष्टितमे दिने । एकोऽशः स्यात्ततो द्वा षष्टितमी चाखिला तिथिः ॥ एवं च द्वाषष्टितमी प्रविष्टा निखिला तिथिः । एकषष्टिभागरूपाऽत्रैकषष्टितमे दिने ॥ एकषष्टतमदिन - स्याद्यो द्वाषष्टिजो लवः । एकषष्टितमतिथे चरमोऽसौ विभाव्यताम् ॥ ततश्च द्वाषष्टितमोऽप्यत्रैवान्तं गतस्तिथिः । एवमस्मिन्नहोरात्रे द्वे तिथी पूर्णतां गते ॥ द्वाषष्टितमघस्त्रस्य ततः सूर्योदयक्षणे । उपस्थिता पूर्वरीत्या द्राक् त्रिषष्टितमी तिथिः ॥ एवं च द्वाषष्टितमी नासा सूर्योदयं तिथिः । पतितेति ततो लोके शुभकार्येष्वनादृता ॥ तथाऽऽहुः - एक्कंमि अहोरते दोऽवि तिही जत्थ निहणमेज्जासु । सोऽत्य तिही परिहायइ सुहुमेण हविज्ज सो चरिमो ॥ सुहमेण त्ति-सूक्ष्मेण अतिश्लक्ष्णेन द्वाषष्टितमरूपतया एकैकेन भागेन हीने परिहीयमानाया द्वाषष्टितमायास्तिथेः स एकषष्टितमो दिवसश्चरम इति । तथा हि- युगस्याद्यप्रतिपद-श्चतुष्पर्वव्यतिक्रमे । लभतेऽवमत्रत्व - मेकषष्टितमा तिथिः ॥ १३९ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ग्रन्थत्रयी आश्विनप्रतिपत् कृष्णा सा ज्ञेयाऽस्यां यतोऽविशत् । तिथिर्द्वितीया सर्वांश-रेकषष्टिलवात्मिका ॥' ज्योतिष्करण्डके तु- तइयंमि ओमरतं कायव्वं सत्तमंमि पक्खंमि । वासहिमगिम्हकाले चउ चउ मासे विधीयते ॥ इत्युक्तम् । एतदनुसारेण' चाषाढप्रतिपद आरभ्य यथोत्तरमेकषष्टितमासु भाद्रपदकृष्णप्रतिपदादिष्ववमरात्राः स्युः । परं ज्योतिष्करण्डकटीकायां श्रीमलयगिरिपादैरेवमुक्तम्'इहाषाढाद्या लोके ऋतवः प्रसिद्धिमैयरुस्ततो लौकिकव्यवहारमपक्ष्याषाढादारभ्य प्रतिदिवसमेकैकद्वाषष्टिभागहान्या वर्षाकालादिगतेषु तृतीयादिपर्वसु यथोक्ता अवमरात्राः प्रतिपाद्यन्ते। परमार्थतः पुनः श्रावणबहुलप्रतिपल्लक्षणाद्युगादित आरभ्य चतुश्चतुष्पतिक्रमे वेदितव्या, इति ज्ञेयम् ।' 'अश्विनस्य तृतीयाया असितायाः प्रभृत्यथ । कृष्णा तृतीया मार्गस्या-वमस्तुर्यान्विता भवेत् ॥ प्रभृत्यस्याश्च पञ्चम्या कृष्णा माघस्य पञ्चमी । युक्ता पतितया षष्ट्या प्राप्नोत्यवमरात्रताम् । एवं च- आश्विनो मार्गशीर्षश्च माघश्चैत्रस्तथा पर । ज्येष्ठस्ततः श्रावणश्च पुनरप्येत एव षट् ॥ पुनरप्याश्विनो मार्गो द्वितीयः पौष एव च । युगाद्यर्धे पञ्चदश मासाः सावमरात्रकाः ॥ आश्विनाघेषु मार्गान्ते-ष्वष्टस्वाद्येष्वनुक्रमात् । विषमाः प्रतिपन्मुख्याः स्युः कृष्णास्तिथयोऽवमाः ॥ माघादिषु स्युर्द्वितीय-पौषान्तेषु च सप्तसु । समसङ्ख्या द्वितीयाद्या उज्ज्वलास्तिथयोऽवमाः ।। विषमेयोऽवमेभ्यशा-निन्दास्तिथयः समाः । पतिताः स्युद्धितीयाद्या-स्तेऽष्ट प्रतिपदन्विताः ॥ अवमेभ्यः समेभ्यस्तु विषयास्तिथयः खलु । . भवन्ति पतिताः सप्त तृतीयाद्या यथोदिताः ॥ चैत्रो ज्येष्ठः श्रावणोऽश्व-युग्मार्गो माघ एव च । पुनः षडेते चैत्रोऽथ ज्येष्ठोऽन्त्याषाढ एव च ॥ . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ युगान्त्यार्धे पञ्चदश मासाः सावमरात्रकाः । तिथयस्त्ववमाः कृष्ण-शुक्लाः पूर्वार्धवत्स्मृताः ॥ ननु कालः सदाऽनादि-प्रवाहः परिवर्तते । जगत्स्वभावानियत-स्वरूपेण दिवानिशम् ॥ न हानिः कापि कालस्य न च वृद्धिः स्वरूपतः । ततोऽत्रावमरात्राधि-मासादीनां कथा वृथा । सत्यं किन्त्विह मासानां विरूपाणां परस्परम् । अंशादिभिर्विशेषो यो वर्तते तदपेक्षया ॥ विवक्ष्येते हानिवृद्धी कालस्य न तु वास्तवी । वस्तुतस्त्वेष नियत-स्वरूपः परिवर्तते ॥ तथा हि- चन्द्रमासविवक्षायां कर्ममासव्यपेक्षया । कालस्य हानिर्वृद्धिश्च सूर्यमासविवक्षणे ॥ पृथक् पृथग् विवर्तन्ते वस्तुतस्तु त्रयोऽप्यमी । मासा अनादिनियत-स्वरूपेण सदा भुवि ॥' इत्यशाविंशतितमे सर्गे । इति ।। न चैवं तिथिवृद्धिस्वरूपप्रतिपादनं सिद्धान्ते दृश्यते इति बोध्यम् । ननु, सिद्धान्ते यथाऽवमरात्रप्रतिपादनं तथाऽतिरात्रप्रतिपादनमप्यस्त्येव । यदुक्तं श्रीस्थानाङ्गसूत्रे-'छ ओमरत्ता पण्णत्ता । तं जहा-ततिए पव्वे, सत्तमे पव्वे, एक्कारसमे पव्वे, पण्णरसमे पव्वे, एगुणवीसमे पव्वे, तेवीसमे पव्वे इति । छ अतिरत्ता पण्णत्ता। तं जहा-चउत्थे पव्वे, अट्ठमे पव्वे, दुवालसमे पव्वे, सोलसमे पव्वे, वीसइमे पव्वे, चउवीसमे पव्वे इति ।' तथा च कथं न तिथिक्षयवत् सिद्धान्ते तिथिवृद्धिरपीति चेत् । न । अतिरात्रकल्पनायाः कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्तायामेव सम्भवेन तत्र तिथिवृद्धरसम्भवात् । तिथीनां सूर्योत्पन्नत्वाभावात् । अवमरात्रसम्भवस्य च कर्ममासमपेक्ष्य चन्द्रमासचिन्तायां सत्त्वेन तिथीनां चन्द्रोत्पन्नत्वेन च तत्र तिथिक्षयस्यावश्यंभावित्वात् । यदुक्तं सूर्यप्रज्ञप्त्यादौ - 'यत्त्विदमवमरावातिरात्रप्रतिपादनं तत्परस्परं मासचिन्तापेक्षया । तथा हि - कर्ममासमपेक्ष्य चन्द्रमासचिन्तायामवमरात्रस्य सम्भवः । कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्तायामतिरात्रकल्पनेति ।' लोकप्रकाशेऽप्युक्तम् - Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ग्रन्थत्रयी 'ब्रूमः षण्णामथतूनां स्वरूपं किञ्चिदागमात् । सूर्यसम्बन्धिनस्ते स्यु-श्चन्द्रसम्बन्धिनोऽपि च ॥ . सार्धास्त्रिंशदहोरात्रा एको मासो विवस्वतः । ताभ्यां द्वाभ्यामहोरात्रा एकषष्टिर्ऋतू रवेः ॥ ऋतुः प्रावृड्भवेदाद्यो वर्षारात्रो द्वितीयकः । शरदाख्यस्तृतीयः स्या-तुर्यो हेमन्तसंज्ञकः ॥ वसन्तः पञ्चमः ख्यातः षष्ठो ग्रीष्मः प्रकीर्तितः । षडेते ऋतवः ख्याता युगे त्रिंशद्भवन्ति ते ॥ उक्तं च ज्योतिष्करण्डके - पाउसवासारत्तो सरओ हेमंत-वसंत-गिम्हा य । एए खलु छप्पि उऊ जिणवरदिट्ठा मए सिट्ठा ।। प्रथमाषाढराकायाः प्रारभ्यैषामुपक्रमः । __ भवन्ति त्रिंशतैभिश्च यथोक्ता युगवासराः ॥ द्वावाषाढौ युगान्ते स्तस्तत्राद्यस्य सितत्विषि । चतुर्दश्यां प्राग्युगर्तुः पूर्णस्त्रिंशत्तमो भवेत् ॥ ततस्तस्यैव राकायां युगस्याभिनवस्य तु । - ऋतुराधो लगेद्भाद्र-स्यायेऽसौ पूर्यते तिथौ ॥ आद्याषाढस्यैकदिनं विंशत्त्रिंशद्दिनात्मकौ । द्वितीयाषाढनभसौ भाद्रस्यैकं दिनं ततः ॥ स्युषष्टिरेभ्य एकोऽवमरात्रो निपात्यते । एकषष्टिदिनात्मेति सूयर्तुः प्रथमो युगे । एकषष्टिस्त्रिंशता च गुण्या सर्वर्तुसङ्ख्यया । अष्टादशशतास्त्रिंशा एवं स्युर्युगवासराः ॥ कर्ममासात् सूर्यमासे-ऽहोराबाधं यदेधते । ऋतौ द्विभानुमासोत्थे-ऽहोरात्रो वर्धते ततः ॥ ततश्च- कर्ममासद्वये षष्टि-रहोरात्रा भवन्ति वै । सूर्यमासद्वयात्मर्तु-स्त्वेकषष्टिदिनात्मकः ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १४३ द्विकर्ममासापेक्षस्त-द्भवेहतुमृतुं प्रति । अहोरात्रः समधिक-चतुर्मास्यां तु तद्वयम् ॥ वर्षाशीतोष्णकालेषु चतुर्मासमितेषु यत् । अधिरात्रं भवेत् पर्व तृतीयमथ सप्तमम् ॥ तथोक्तं ज्योतिष्करण्डे - तइयंमि य कायव्वं अइरतं सत्तमे य पव्वंमि । वासहिमगिम्हकाले चउचउमासे विहीयते ॥ श्रावणो मार्गशीर्षश्च चैत्रश्चेति यथाक्रमम् । वर्षाशीतोष्णकालाना-मादिमासाः प्रकीर्तिताः ॥ सूर्यर्तुपूर्तिसमये कर्ममासव्यपेक्षया । अहोरात्रः समधिकः स्यादेकैक इति स्फुटम् ॥ आषाढे च भाद्रपदे कार्तिके पौष एव च । ___फाल्गुने माधवे चाति-रात्रं नान्येषु कहिचित् ॥' इत्यष्टाविंशतितमे सर्गे। अत्र सर्वत्राऽपि यथाऽवमरात्रप्रकरणे क्षीणतिथीनां नामग्राहमुपदर्शनं न तथाऽतिरात्रप्रकरणे वृद्धतिथीनां वापि नामग्राहमुपदर्शनमित्यपि बोध्यम् । अत्र यदि टिप्पनककरणोपयोगिसम्पूर्णप्रक्रियाप्रतिपादकस्य सिद्धान्तविभागस्याऽधुनाऽनुपलम्भ एव, तत्र चाऽवश्यं तिथिवृद्धिप्रतिपादनमपि भविष्यतीति विभाव्यते, तदा तत्र क्षयदिनस्य तिथित्रयस्पर्शित्वप्रतिपादनमपि कथं न भविष्यति ? इत्यपि विभावनीयमेवेति । सिद्धान्तेऽतिरात्रप्रतिपादनमस्तीत्येतावतैव तिथिवृद्धिरस्तीति कथनमनुचितमेवेति । तथा च सिद्धान्तेऽतिरात्रकल्पनासत्त्वेऽपि तिथिवृद्धेरभावात्, 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे तिवचनस्य टिप्पनकानुसारितिथिक्षय-तिथिवृद्धिविषयकत्वमेव निर्वावादमुपपन्नमिति क्षीणतिथौ टिप्पनकानुसारेणोत्तरतिथिविद्धत्वस्यापि सत्वेन तद्व्यवच्छेदफलाभावाद् युक्तमेव 'यत्त्विति पक्षस्याऽयुक्तत्वम् । ___ एवं पूर्वविद्धाया अपि क्षीणतिथेरहोरात्रव्यापित्वाऽव्यापित्वाभ्यामपि विरोधो बोध्यः । तस्या अहोरात्रव्यापित्वाऽस्वीकारे प्रागुपदर्शिताहोरात्रव्यापितत्तत्तिथिनिमित्तकपौषधादिनियमस्य तत्र दिने क्षीणतत्तत्तिथिव्यपदेशस्य चाऽनुपपत्तेः । अन्यथा, 'आदित्योदयवेलाया'मित्यस्यैव वैयापत्तेः । तस्याहोरात्रव्यापित्वस्वीकारे तु तत्राऽऽरोपस्वीकारा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ग्रन्थत्रयी ऽऽवश्यकत्वेनाऽहोरात्रव्यापित्वनियतौदयिकत्वस्यापि तत्राऽवश्यं स्वीकार्यत्वेन चौदयिकत्वेनैव प्रामाण्यसम्भवेन पूर्वविद्धत्वेन प्रामाण्यकल्पनाया अपि तत्र निरवकाशत्वादिति । न च तत्र पूर्वस्यां तिथावौदयिकत्वं वर्तते, न तूत्तरस्यां तिथाविति पूर्वविद्धत्वेन प्रामाण्यकल्पनं तत्र क्षीणतिथावौदयिकत्वलाभायैवेति चेत् । तथा सति प्रकारान्तरेणाऽस्मदुपदर्शितमेव पन्थानमाश्रितो भवान् । अस्माभिरपि क्षीणतिथावौदयिकत्वलाभायैव तत्पूर्वस्यामौदयिक्यां तिथौ तत्क्षीणतिथ्यभेदाध्यारोपस्य साधितत्वादिति । अत्रेदं बोध्यम्-तिथेः क्षयो नाऽप्राप्ताऽऽत्मस्वरूपत्वम्, असम्भवात् । किन्तु, सत्वे सति सूर्योदयऽस्पर्शित्वमेव । सूर्योदयस्पर्शित्वमेव च तिथावौदयिकत्वं तदेव च तिथावक्षीणत्वमिति । तथा च चतुर्दश्यादिपर्वतिथेः क्षये सूर्योदयाऽस्पर्शित्वरूपौदियकत्वाऽभावे तदाराधनायां तत्र तल्लभाय तत्र दिने पूर्वैव तिथिरौदयिकी त्रयोदश्यादितिथि: चतुर्दश्यादितिथित्वेन प्रमाणीकार्येति सिद्धम् । इत्थमेव चास्य 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये'ति विधिवचनस्य सार्थक्यम् । प्रमाणान्तरेणाऽप्राप्तस्यार्थस्य प्रापणे ह्येव विधिवचनस्य सार्थक्यमिति बोध्यम् । ____ एवं च चतुर्दशीक्षये तत्र दिने तत्पूर्वोदयिकी त्रयोदश्येव चतुर्दशीत्वेन मन्तव्येति चतुर्दश्येवौदयिकी जाता । सैव चाऽहोरात्रव्यापित्वेन मन्तव्या । सैव च तत्र दिने आराध्या व्यपदेश्या चेत्यौदयिकचतुर्दश्यामेव चतुर्दश्याराधनायाः करणान्नाऽऽज्ञाभङ्गादिदोषापत्तिलेशोऽपीति । इत्थमेव द्वितीयादिपर्वतिथिक्षयेऽपि बोध्यम्। तथा हि-टिप्पनके द्वितीयायाः क्षये औदयिकत्वाऽभावे तदाराधनायां तल्लभाय तत्पूर्वीदयिकी प्रतिपदेव तत्र दिने द्वितीयात्वेन प्रमाणीकार्येति द्वितीयैवौदयिकी, सैव चाऽहोरात्रव्यापिनी, सैव चाऽऽराध्या, सैव च व्यपदेश्या तत्र दिने । एवमेव च टिप्पनके पञ्चम्यादिपर्वतिथिक्षयेऽपि बोध्यम् । इत्थमेव च टिप्पनके चतुर्दश्यादिक्षये तत्पूर्वोदयिक्यास्त्रयोदश्यादितिथेश्चतुदश्यादिपर्वतिथित्वेनाऽऽराधनायां प्रमाणतया मन्तव्यत्वे सिद्ध औदयिक्यामेव त्रयोदश्यादि तिथौ चतुर्दश्यादितिथ्यभेदाध्यारोपाच्चतुर्दश्यादितिथिरेव तत्रौदयिकी प्राप्ता । त्रयोदश्यादितिथिस्तु तत्र दिने टिप्पनके वर्तमानाऽप्यसत्येव जाता । आराधनायां 'क्षये पूर्वे'ति वचनेन तस्याश्चतुर्दश्यादिरूपेणैव प्रमाणतया गणनीयत्वात् । पूर्वदिने च या त्रयोदश्यादितिथिः सा च सर्वथा सूर्योदयाऽस्पर्शित्वेनाऽनौदयिक्येव । पूर्वदिने द्वादश्या एव Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १४५ सूर्योदयस्पशित्वादिति सत्त्वे सति सूर्योदयाऽस्पशित्वरूपाऽनौदयिकत्वमेव तत्र त्रयोदश्यादितिथेः प्राप्तम् । स एव च टिप्पनके चतुर्दश्यादिपर्वतिथेः क्षये आराधनायां त्रयोदश्यादितिथिक्षयः । तथा च टिप्पनके द्वितीयायाः क्षये आराधनायां 'क्षये पूर्वेति वचनप्रामाण्यात प्रतिपद एव क्षयो गणनीय इति सिद्धम् । एवमेव च पञ्चम्यादिपर्वतिथिष्वपि बोध्यम्। एवं टिप्पनके पूर्णिमायाः क्षये पूर्णिमाया अपि पर्वतिथित्वेनाऽऽराधनायां 'क्षये पूर्वे' तिवचनेन तत्पूर्वीदयिकी चतुर्दश्येव तत्र दिने टिप्पनकोक्तचतुर्दशीदिनात्मके पूर्णिमात्वेन प्रमाणीकार्येति प्राप्तम् । तथा च प्रागुपदर्शितरीत्या पूर्णिमाया एवौदयिकत्वं तत्र दिने प्राप्तम् । चतुर्दश्यास्तु पूर्वदिनेऽनौदयिकत्वेन प्रागुक्तयुक्त्या क्षयः प्रासः । तथा च तस्या अपि पर्वतिथित्वेनाऽऽराधनायां तत्र दिने टिप्पनकोक्तत्रयोदशीदिनात्मके तत्पूर्वोदयिकी त्रयोदश्येव 'क्षये पूर्वे'ति वचनेन चतुर्दशीत्वेन प्रमाणीकार्येति प्राप्तम् । तथा च प्रागुक्तरीत्या तत्र दिने चतुर्दश्या एवौदयिकत्वं प्राप्तम् । त्रयोदश्या अपि प्रागुक्तयुक्त्या पूर्वदिनेऽनौदयिकत्वेन क्षयः प्राप्तः । तथा च टिप्पनके पूर्णिमायाः क्षयेऽप्याराधनायां 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्येति वचनानुसारेण प्रागुपदर्शितरीत्या त्रयोदश्या एव क्षयो गणनीय इति सिद्धम् । ___एवं च तत्तत्तिथ्याराधनायास्तत्तत्तिथिकर्तव्यताकत्वनियमोऽप्याराधितः स्यात् । एवं च टिप्पनके अमावास्यायाः क्षयेऽप्याराधनायां त्रयोदश्या एव क्षयो गणनीयः, तस्या अपि पर्वतिथित्वादित्यपि स्वयमेव परिभावनीयम् । 'एकत्र निर्णीतः शास्त्रार्थोऽन्यत्रापि तथेति न्यायात् । एतेन 'बीआ पंचमी अट्ठमी य इक्कारसी चउद्दसी खओ होइ । पुव्वस्स खओ अत्थि पुण्मिमासाए पडुअस्स ॥ १ ॥ आसाढ-कत्तिय-फग्गुण-मासाणं पुण्णिमाखओ होइ । तासं खओ (?ए?) तेरसी-खओ भणिओ जिणवरिंदेहिं ॥ २ ॥ आषाढ-कार्तिक-फाल्गुनमास सम्बन्धिपूर्णिमाक्षये त्रयोदश्याः क्षयः कार्यः, शेषपूर्णिमामावास्यानां च क्षये प्रतिपद एव क्षयः कार्य इत्यपि निरस्तम्, अर्धजरतीयत्वाऽऽपत्तेः । तत्रापि प्रमाणाभावात् । तथा सति पूर्णिमामावास्याक्षये तदुत्तरस्यां तिथौ प्रतिपद्येव पूर्णिमात्वस्याऽऽमावास्यात्वस्य च तव स्वीकार्यत्वेन 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये'ति वचनाद् ज्ञापितस्य Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ग्रन्थत्रयी तत्पूर्वस्यामेव तिथौ पूणिमात्वादिना प्रामाण्यस्याऽस्वीकारात्, तद्वचनाऽऽज्ञाभङ्गापत्तेश्च । तस्मात् सर्वासामपि पूर्णिमामावास्यानां पर्वतिथित्वस्य शास्त्रसिद्धत्वेन 'क्षये पूर्वेति वचनानुसारेण प्रागुक्तयुक्त्या टिप्पनके-'तत्क्षये आराधनायां सर्वत्रापि त्रयोदश्या एव क्षयस्य प्राप्यमाणत्वं विभावनीय'मिति । उक्तं चाऽन्यत्राऽपि - 'बीयाए पंच पव्वि-खयंमि पुव्वस्स तिहिखओ होइ । पुण्णिमाखए तेरसी अमावास्साए एमेव ॥ १ ॥ विसरणाए पडिवा एवं भणियं जिणवरिंदेहि । कत्तियआइबारस पुण्णिमावासाय तुल्लाय ॥ २ ॥' इति । इत्थं च प्रागुपदर्शितायाः शास्त्राबाधिताया अविच्छिनायाः सुविहितपरम्परायाः प्रामाण्यमपि प्रागुपदर्शितप्रक्रियया 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'ति श्रीउमास्वातिवाचकवचनप्रामाण्यमूलकत्वेन सूपपत्रमेव ।। एवं श्रीजिनप्रभसूरिविरचितायां श्रीविधिप्रपानामखरतरगच्छीयसामाचार्याम्'पक्खिय-चाउम्मासिय-अट्ठमि-पंचमी-कल्लाणयाइतिहीसु तवपूयाईए उदइयतिही अप्पयरभुत्ता वि घेत्तव्वा, न बहुतरभुत्ता वि इयरा । जया य पक्खियाइपव्वतिही पडइ तया पुवतिही चेव तब्भुत्तिबहुला पच्चक्खाणपूयाइसु धिप्पइ, न उत्तरा । तब्भोगगंधस्स वि अभावाओ । पव्वतिहिवुड्ढीए पुण पढमा चेव पमाणं संपुण्ण त्ति काउं । नवरं चाउम्मासिए तह य चउद्दसीहासे पुण्णिमा जुज्जइ । तेरसीगहणे आगम-आयरणाणं अन्नयरं पि नाराहियं होज्जा ।' इत्युक्तमपि परास्तं वेदितव्यम्, तिथिप्रामाण्यलक्षणस्याऽनैयत्यापत्तेः । अव्याप्त्यतिव्यातिप्रसङ्गात् । क्वचिदौदयिकत्वस्य क्वचित् सूर्योदयसूर्यास्तोभयस्पर्शित्वस्य क्वचिद् भोगवत्त्वस्य क्वचिदल्पभोगवत्त्वस्य कचित् सम्पूर्णभोगवत्त्वस्य क्वचिदुत्तरतिथित्वस्य तिथिप्रामाण्यलक्षणघटकत्वमित्यत्र प्रमाणाभावाच्च । पर्वतिथिपातस्थले तद्भोगगन्धाभावेन न तदुत्तरतिथिग्रहणं त्रुटितचतुर्दशीस्थले च तद्भोगगन्धाभावेऽपि तदुत्तरपूर्णिमातिथिग्रहण-मित्यस्यागमोपपत्तिरहितत्वेन निर्मूलत्वात् । ___ एवं श्रीपर्युषणाचतुर्थ्याः क्षये तदुत्तरपञ्चमीस्वीकारोऽपि निर्मूल एवेत्यपि व्याख्यातम् । एवं प्रविष्टतिथित्वेन प्रतिक्रमणादिक्रियाकालवर्तमानतिथित्वेन वा प्रामाण्यमित्यपि निरस्तम् । सर्वत्रौदयिकत्वेनैकरूपेणैव तिथेः प्रामाण्यात्, तस्या एव चाऽहोरात्र Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १४७ व्यापितया क्रियाकालेऽपि वर्तमानत्वात् । त्रुटितचतुर्दश्यादिस्थले तु तत्पूर्वस्यास्त्रयोदश्यादितिथेरेव चतुर्दश्यादितिथित्वेन प्रमाणीकार्यत्वस्य वृद्धतिथिस्थले चोत्तरस्या एव तत्तिथित्वेन प्रमाणीकार्यत्वस्य 'क्षये पूर्वा तिथि: कार्या वृद्धी कार्या तथोत्तरा' इत्यनेन सुव्यवस्थापितत्वात् । 'सूर्योदयानुसारेणैव' इत्यत्र एवकारेणौदयिकत्वातिरिक्तान्यसमाप्तिमत्त्वभोगवत्त्वा-ऽल्पभोगवत्त्व-बहुभोगवत्त्व-सूर्योदयसूर्यास्तोभयस्पर्शित्वप्रभृतिसर्वप्रकाराणां तिथिप्रामाण्यप्रयोजकत्वव्यवच्छेदाच्चेति। ननु तत्र तत्र, 'अर्हज्जन्मादि पञ्चकल्याणकदिवसाश्चापि पर्वतिथित्वेन विज्ञेयाः', इत्याधुक्ते. कल्याणकदिवसानामपि पर्वतिथित्वं प्रतिपादितमिति कल्याणकतिथीनां टिप्पनके क्षयः स्यात्तदा तत्रापि 'क्षये पूर्वे'ति वचनेन तत्पूर्वस्यास्तिथेः क्षयः कार्यों न वा ?। एवं यत्र टिप्पनके पूर्णिमाक्षयः त्रयोदश्याच कल्याणकतिथित्वं तत्र त्रयोदश्या एव क्षयः कार्यः किं वा द्वादश्याः ? इति चेत् । उच्यते - कल्याणकतिथीनां क्षये तत्र तत्र तत्पूर्वस्यास्तिथेः क्षयो नैव गणनीयः । एवं पूर्णिमाक्षयेऽपि सर्वदा सर्वत्र त्रयोदश्या एव क्षयो गणनीयः, न तु क्वापि द्वादश्याः । एवं तदृद्धावपि बोध्यम् । न चाऽऽराध्यत्वे पञ्चदशीकल्याणकतिथ्योरप्यविशेष इति वाच्यम् । आराध्यत्वमात्रेण साम्येऽप्येकरूपेण तयोराराध्यत्वाभावात् । चतुष्पा अप्येकरूपेणाराध्यत्वाभावस्य तवापीष्टत्वाच्च । तथा च कल्याणकदिवसानां पर्वतिथित्वेऽपि तत्क्षये तदृद्धौ च तत्र विषये 'क्षये पूर्वे' ति वचनानुसारिण्यास्तथाविधायाः परम्पराया एवाऽभावात् । मुख्यत्वेन द्वितीयादिषट्पींविषय एव 'क्षये पूर्वे'ति वचनानुसारिण्यास्तथाविधायाः प्रागुपदर्शितपरम्पराया अविच्छिन्नतया विद्यमानत्वम् । वस्तुतस्तु कल्याणकदिवसानां यत् पर्वत्वं तत्तु तत्तत्कल्याणकनिमित्तकमेवेति कल्याणकतिथीनां नैमित्तिकपर्वतिथित्वमेव, न तु नित्यपर्वतिथित्वम् । द्वितीयादिदिवसानां पर्वत्वं न तथा तत्तनिमित्तकं, किन्तु नित्यमेवेति द्वितीयादितिर्थीनां नित्यपर्वतिथित्वमिति। 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे ति विशेषवचनानुसारिण्यास्तथाविधायाः परम्पराया मुख्यत्वेन नित्यपर्वतिथिविषयकत्वमेव दृश्यते । न कल्याणकतिथिविषयकत्वमिति न कोऽपि दोषो न वा काऽप्यव्यवस्थेत्येवमस्माकं सम्यक्प्रतिभातीति । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अत्रेदं बोध्यम् - यद्यपि, 'क्षये पूर्वे 'ति वचनस्याऽऽराध्यतिथिसामान्यविषयकत्वमेवेति सर्वास्वप्याराध्यतिथिषु तद्वचनस्य प्रवृत्तिः । तथापि, कल्याणकतिथिरूपत्रयोदश्यादितिथ्या टिप्पनके क्षये पूर्वस्यां द्वादश्यादितिथावेव तत्र त्रयोदश्यादितिथित्वेनाऽऽराधनायां प्रामाण्यं स्वीकृत्य कल्याणकतपो- रथयात्रादिमहोत्सवादिरूपकल्याणकादितिथ्याराधना विधीयते । क्षयस्तु तत्र त्रयोदश्या एव गण्यते, भैत्तिकपञ्चाङ्गादावपि त्रयोदश्या एव क्षयो लिख्यते, न तु प्रागुक्तयुक्त्या प्राप्तोऽपि द्वादश्याः क्षयः । तथैव सुविहितपरम्पराया अद्यापि यावदविच्छिनतया प्रवृत्तेः । युक्तं चैतत् । अन्यथा, सर्वत्राऽऽराध्यतिथौ पूर्वपूर्वतिथीनां क्षयस्य गणनीयत्वे द्वित्रादिसम्बद्धाऽऽराध्यतिथिस्थले क्वचित् तिथिद्वयव्यवहिततिथेः, क्वचित् तिथित्रयव्यवहिततिथेः क्षयस्य गणनीयत्वे प्राप्ते तिथिव्यवहारव्यवस्थाविप्लवप्रसङ्गात् । ग्रन्थत्रयी एवं वृद्धिस्थलेऽपि टिप्पनके तादृशत्रयोदश्यादिवृद्धावाराधनायामुत्तरस्यामेव त्रयोदश्यादौ त्रयोदश्यादितिथित्वेन प्रामाण्यं स्वीकृत्य कल्याणकादितिध्याराधना क्रियते । वृद्धिस्तु त्रयोदश्या एव गण्यते, न तु प्रागुक्तयुक्त्या प्राप्ताऽपि द्वादश्या इति । किञ्च, आराध्यतिथित्वं यथा द्वितीयादिनित्यपर्वतिथिषु यथा वा कल्याणकतिथिषु तथोपधानमालापरिधापनतिथि- सङ्घपतिमालापरिधापनतिथिः प्रतिष्ठयतिथिप्रतिमास्थापनतिथि-स्वप्रव्रज्यातिथ्युपस्थापनातिथि - सूरिपदादितिथि- स्वगुर्वादिनिर्वाणादितिथिप्रभृतितिथिष्वपि वर्तते । तथा च सर्वत्राऽऽराध्यतिथौ टिप्पनके क्षये वृद्धौ वाऽऽराधनायाः क्रमेण पूर्वस्यामुत्तरस्यां च तिथौ करणीयत्वेऽपि क्षयो वृद्धिश्च नित्यपर्वतिथिव्यतिरिक्ततिथिस्थलेषु सर्वत्र तस्या एव टिप्पनकोक्तक्षीण वृद्धतिथेः गण्यते, न तु पूर्वस्याः [उत्तरस्याश्च ] । तथा च यत्र यत्र द्वितीयादिनित्यपर्वतिथिषु यत्र यत्र च कल्याणकतिथ्यादिरूपनैमित्तिकाऽऽराध्यतिथिषु 'क्षये पूर्वेति वचनानुसारिणी यादृशी यादृश्यविच्छिना सुविहितपरम्पराऽऽगता प्रवृत्तिः, तत्र तत्र तिथौ क्षय - वृद्धिस्थले तादृश्येव प्रवृत्तिः प्रमाणयितव्या । न तत्र कश्चित् शङ्काकणावकाशोऽपि । तथैव कर्मनिर्जरोपपत्तेः, तथैव च सर्वत्र सर्वदा तिथिव्यवस्थोपपत्तेः । I इत्थं च क्वचित् नित्यपर्वतिथ्युत्तरवर्तिन्या आराध्यतिथेः टिप्पनके क्षयेऽपि तत्राऽऽराधनायामपि तस्या एव क्षयो गण्यते, न तु तत्पूर्वस्या नित्यपर्वतिथेः । नैमित्तिकाऽऽराध्यपर्वतिथिभ्यो नित्यपर्वतिथीनां बलिष्ठवात् । आराधनाऽपि तस्यास्त Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १४९ दुत्तरस्यामेव तिथौ क्रियते, न तु तत्पूर्वस्यां नित्यपर्वतिथौ । तथैव सर्वत्र सर्वदा सुविहितपरम्परागतप्रवृत्तिसद्भावादिति । यथाऽद्यापि यावत् सुविहितपरम्परया सर्वत्र श्रीश्रमणसङ्ग्रेन टिप्पनके वैशाखशुक्लतृतीयाक्षये आराधनायामपि तृतीयाया एव क्षयो गण्यते, न द्वितीयायाः । द्वितीयायां तु नित्यपर्वत्वेन द्वितीयाया एवाऽऽराधना क्रियते । वार्षिकतपःपारणकादिरूपाऽक्षयतृतीयाऽऽराधना तु तत्र टिप्पनकस्थौदयिकचतुर्थ्यामेव क्रियते । एवं टिप्पनके आषाढशुक्लषष्ठीक्षये आराधनायामपि षष्ठ्या एव क्षयो गण्यते, न तु पञ्चम्याः, तस्या नित्यपर्वतिथित्वात् । तत्र कल्याणकतपो-रथयात्रादिरूपा षष्ठ्याऽऽराधनापि टिप्पनकस्थौदयिकसप्तम्यामेव क्रियते, न तु पञ्चम्याम् । तत्र नित्यपर्वत्वेन तस्या एवाऽऽराधनाया: क्रियमाणत्वादित्येवमन्यत्राऽपि बोध्यम् । नन्वेवं, "टिप्पनके पूर्णिमाक्षये सत्याराधनायां प्रागुक्तयुक्त्या त्रयोदश्या एव क्षयस्य गणनीयत्वे सिद्धे सति पञ्चमीतिथिस्त्रुटिता भवति । तदा तत्तपः कस्यां तिथौ क्रियते ?। पूर्णिमायां च त्रुटितायां कुत्र ?। इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्- पञ्चमीतिथिस्त्रुटिता भवति, तदा तत्तपः पूर्वस्यां तिथौ क्रियते । पूर्णिमायां च त्रुटितायां त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते । त्रयोदश्यां विस्मृतौ तु प्रतिपद्यपि' । इत्यस्य श्रीहीरप्रश्नोत्तरस्य कोऽर्थः ? इति चेत् । उच्यते - यदा टिप्पनके पञ्चमीतिथिस्त्रुटिता भवति तदा पञ्चमीतपः । अत्र तप इत्युपलक्षणं बोध्यम् । तेन सर्वापि पञ्चम्याराधना बोध्या । कस्यां तिथौ क्रियते ? पूर्णिमायां च टिप्पनके त्रुटितायां कुत्र-षष्ठं तपः कुत्र क्रियते ? इति प्रश्नस्यार्थः । ___एवं, यदा टिप्पनके पञ्चमी तिथिस्त्रुटिता भवति तदा तत्तपः-तपःप्रभृतिका सर्वाऽपि पञ्चम्याऽऽराधना-पूर्वस्यां तिथौ-टिप्पनकोक्तचतुर्थ्यां तिथौ क्रियते । यतः टिप्पनके पञ्चमीक्षये आराधनायां 'क्षये पूर्वे'ति वचनप्रामाण्यात् तत्र दिने टिप्पनकोक्तचतुर्थ्या एव पञ्चमीत्वेन प्रमाणतया कर्तव्यतोपदेशेन टिप्पनकोक्तचतुर्थ्यामेव पञ्चम्यभेदाध्यारोपात् चतुर्थी पञ्चम्येव गणनीयेति चतुर्युव तत्र पञ्चमी जातेति । एवं टिप्पनके पूर्णिमायां च त्रुटितायां त्रयोदशीचतुर्दश्यो:-टिप्पनकोक्तत्रयोदशीचतुर्दशीदिनयोः, आराधनायां क्रमेण चतुर्दशी-पूर्णिमादिनत्वेन गणनीययोः क्रियते-षष्ठं तपः क्रियते । टिप्पनके पूर्णिमाक्षये आराधनायां 'क्षये पूर्वेति वचनेन तत्र दिने टिप्पनकोक्तचतुर्दश्या एव पूर्णिमात्वेन प्रामाण्यात्, तत्रैव च पूर्णिमाभेदाध्यारोपात् । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ग्रन्थत्रयी एवं च प्रागुपदर्शितदिशा टिप्पनकोक्तत्रयोदशीदिने चतुर्दश्याः क्षये प्रासे तस्या अपि नित्यपर्वतिथित्वेन तद्विषयेऽपि 'क्षये पूर्वेति वचनस्य सावकाशत्वेन तत्पूर्वस्यास्त्रयोदश्या एव तत्र दिने चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्यम्, तत्रैव च चतुर्दश्यभेदाध्यारोपात् । तथा च टिप्पनकोक्ता त्रयोदश्येव तत्र चतुर्दशी जाता, चतुर्दशी च पूर्णिमा जातेति । त्रयोदश्यां विस्मृतौ तु प्रतिपद्यपीति । त्रयोदश्यां-टिप्पनकोक्तत्रयोदशीदिने 'क्षये पूर्वेति वचनेनाऽऽराधनायां चतुर्दशीदिनत्वेनैव गणनीये विस्मृतौ 'अद्य चतुर्दशी कर्तव्याऽस्ति, पश्च पूर्णिमा कर्तव्याऽस्ति, त्रयोदश्याश्च क्षयः कर्तव्योऽस्तीत्युपयोगाभावेनाऽन्येन वा केनचित् कारणेन षष्ठतपोविषयकविस्मृतौ सत्यां टिप्पनकोक्तत्रयोदशी-चतुर्दशी-दिनयोराराधनायां क्रमेण चतुर्दशीपूर्णिमादिनत्वेनैव गणनीययोः षष्ठतपोऽकरणे 'प्रतिपद्यपी'ति टिप्पनकोक्तप्रतिपद्दिने, अपिशब्दस्य समुच्चयार्थकत्वेन तेन टिप्पनकोक्तचतुर्दशीदिनस्याराधनायां पूर्णिमादिनत्वेन गणनीयस्य समुच्चयात् । टिप्पनकोक्तचतुर्दशीदिने च षष्ठं तपः क्रियते । इत्युत्तरवचनस्यार्थः । तथा च टिप्पनके पूर्णिमाक्षये षष्ठतपः टिप्पनकोक्तत्रयोदशी-चतुर्दशीदिनयोः क्रियते । टिप्पनकोक्तत्रयोदश्यां षष्ठतपोविषयकविस्मृतौ सत्यां टिप्पनकोक्तचतुर्दशीप्रतिपद्दिनयोः षष्ठतपः क्रियते, इति भावः । अत्र 'त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते' इत्यत्र यदेवाऽन्वयि षष्ठतपः "विस्मृतौ' इत्यत्राऽपि तदेवाऽन्वयि, तदेव च 'प्रतिपद्यपी'त्यत्राप्यन्वयि । इत्थमेव चाऽस्योत्तरवचनस्य सङ्गतत्वं, नान्यथा । एवं 'त्रयोदशीचतुर्दश्यो'रित्यत्र चतुर्दशीग्रहणान्यथाऽनुपपत्त्यैव चाऽस्य पूर्णिमासम्बन्धिप्रश्नोत्तरस्य षष्ठतपोविषयकत्वमपि बोध्यम् । अन्यथा, यदि पूर्णिमामात्रसम्बन्धितपोविषयकत्वं प्रश्नोत्तरस्य स्यात्तदोत्तरवचने 'पूर्णिमायां त्रुटितायां त्रयोदश्यां क्रियते, त्रयोदश्यां विस्मृतौ तु प्रतिपद्यपी'त्येवमेव वाच्यं स्यात् । तत्र 'त्रयोदशीचतुर्दश्यो'रित्युक्तेरसङ्गतत्वात् । पूर्णिमामात्रसम्बन्धितपस उभयदिनकर्तव्यताकत्वाभावात् । निरन्तरोपवासद्वयात्मकत्वेन षष्ठतपस एवोभयदिनकर्तव्यताकत्वात् । किञ्च, 'यदा पूर्णिमा क्षीयते तदा क्षीणपूर्णिमासम्बन्धि तपस्त्रयोदश्यां कार्यम्, तदनन्तरं चतुर्दश्यां चतुर्दश्यास्तपः कार्य मिति तव मतानुसारेणाऽपि तत्र त्रयोदशीमात्रग्रहणस्यैव युक्तत्वेन चतुर्दशीग्रहणस्य वैयर्थ्यमेवेति तत्र चतुर्दशीग्रहणमेवाऽन्यथाऽनुपपत्रं तस्य प्रश्नोत्तरस्य षष्ठतपोविषयकत्वं ज्ञापयतीति सूपपत्रम् । नन्वस्य प्रश्नोत्तरस्य षष्ठतपोविषयकत्वमेव, परमयं विशेषस्तस्यार्थे । तथा हि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ तत्र षष्ठतपश्चतुर्दशीपूर्णिमासम्बन्ध्युपवासद्वयात्मकम् । तत्र पूर्णिमासम्बन्धी प्रथमोपवासः त्रयोदश्यां क्रियते, चतुर्दश्यां च चतुर्दशीसम्बन्धी द्वितीयोपवासः । इत्थमेव तत्र त्रयोदशीचतुर्दश्योः षष्ठतपः क्रियते । तत्र त्रयोदश्यां पूर्णिमासम्बन्धितपसो विस्मृतौ प्रतिपद्यपि तत्क्रियते इतीति चेत् ।। न । तादृशार्थे प्रमाणाभावात् । चतुर्दशीपूर्णिमातपसः शास्त्रसिद्धसर्वकालीनक्रमिककर्तव्यताकस्य व्युत्क्रमापत्तेः, प्रतिमाधरस्याऽपि चतुष्पाऽऽराधनायां तपोव्युत्क्रमे महदसामञ्जस्यापत्तेश्च । तत्रापि प्रमाणाभावाच्च ।। न चाऽस्य प्रश्नोत्तरस्यैवाऽन्यथानुपपत्त्याऽत्रार्थे प्रामाण्यमिति वाच्यम् । तस्याऽन्यथैवोपपादितत्वादन्यथाऽनुपपत्तेरेवाऽभावात् । एवमस्य प्रश्नोत्तरस्यैतादृशार्थकत्वे सिद्ध एव तवाभिमतसिद्धिः, तवाभिमतसिद्धावेव च तस्यैतादृशार्थकत्वसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयोऽपि दुरुद्धरः । किञ्च, 'त्रयोदश्यां विस्मृतौ' इत्यत्र, 'प्रतिपद्यपि' इत्यत्र च पूर्णिमामात्रसम्बन्धितपसोऽन्वयोऽप्यसङ्गत एव । तत्र तद्वाचकपदाभावेन तदर्थस्यैव तत्राऽनुपस्थितत्वात् । प्रागपि तद्वाचकपदाभावेन तत्र तत्परामर्शस्याऽप्यसम्भवात् । किन्तु, 'त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते' इत्यत्र 'तत्तप' इत्यवश्यमध्याहार्यम् । अन्यथा, निराकाङ्क्षवाक्यार्थप्रतिपत्तेरेवाऽभावात् । तत्र च तपःपदस्य षष्ठतपोऽर्थकत्वं त्वयाऽपि स्वीकार्यमेव । अन्यथा, 'त्रयोदशीचतुर्दश्योः' इत्यत्र चतुर्दशीत्यस्यैवाऽनन्वयाऽऽपत्तेः । तदेव च पदं "विस्मृतौ' इत्यत्र, 'प्रतिपद्यपि' इत्यत्र चाऽध्याहार्यम्, पदान्तराभावात् । तथैव सङ्गतेश्च प्रागुक्तत्वात् । यतो यस्यैव त्रयोदशीचतुर्दश्योविधानं तस्यैव 'विस्मृतौ' 'प्रतिपद्यपी'त्यनेन कारणिकं विधानमिति सङ्गतिः । तत्रार्थभेदकल्पने प्रमाणाभावः, असङ्गतत्वापत्तिः, वाक्यभेदापत्तिः, प्रश्नान्तरापत्तिश्च । विवादापत्रस्य प्रश्नस्य पूर्णिमामात्रसम्बन्धितपोविषयकत्वाभावात् । यतः पूर्णिमाविषयकप्रश्नस्य षष्ठतपोविषयकत्वमेव त्वयाऽपि स्वीकृतमिति तदुत्तरेऽपि सर्वत्र षष्ठतपोग्रहणस्यैव युक्तत्वम् । तस्मादस्मदुक्त एवार्थों ज्यायान् । तत्रैव प्रमाणोपपत्तेः, तपोव्युत्क्रमाऽनापत्तेः, असङ्गतत्वाऽनापत्तेः, वाक्यभेदाऽनापत्तेः, प्रश्नान्तराऽनापत्तेश्च, प्रागुपदर्शिताऽविच्छिनसुविहितपरम्पराविलोपाऽनापत्तेश्चेति बोध्यम् । एतेन, यदा पूर्णिमा क्षीयते तदा तत्तपः त्रयोदश्यां क्रियते, तदनन्तरं चतुर्दश्यास्तपः क्रियते। पूर्णिमादिवसस्तु क्षयं प्राप्तः, अतः पूर्णिमातपः त्रयोदश्यां पूर्यते । तपोव्युत्क्रमसम्मोहो Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थत्रयी १५२ नैव कार्य: । परं यदुदयगतायां त्रयोदश्यां चतुर्दशी क्रियते, तदसत् । कुतः ?, औदयिक्येव चतुर्दश्याराध्यते इति । यदुक्तम् - 'यां तिथि समनुप्राप्य उदयं याति भास्करः । सा तिथिः सकला ज्ञेया दानाऽऽध्ययनकर्मसु ॥' इति । तथा च- पूर्णिमाक्ष त्रयोदश्यां चतुर्दशी न कर्तव्येति तात्पर्यम्, इत्यपि निरस्तम् । क्षीणपूर्णिमातपसस्त्रयोदशीकर्तव्यताकत्वे प्रमाणाभावात् । अनन्तरोक्त - श्रीहीरप्रश्नोत्तरस्याऽन्यथैवोपपत्तेरुपदर्शितत्वात् । निष्प्रमाणस्य तपोव्युत्क्रमस्याऽनुपादेयत्वाच्च । न हि, 'तपोव्युत्क्रमव्यामोहो नैव कार्य' इति त्वत्प्रलापमात्रेण तपोव्युत्क्रमव्यामोहस्य दुष्टत्वम् । किन्तु, प्रमाणप्राप्त एवार्थे व्यामोहस्य दुष्टत्वम् । यथाऽतीताऽनागत - प्रत्याख्यानादौ । · न चाऽत्र तपोव्युत्क्रमे किञ्चिदपि प्रमाणमस्ति । प्रत्युत तपसः क्रमिकत्वस्यैव शास्त्रपरम्परोभयसिद्धत्वम्, तपोव्युत्क्रमस्याऽनिष्टत्वं च । "सांवत्सरिक-पाक्षिका- ऽष्टमी - ज्ञानपञ्चमी - रोहिणीतपांसि येन यावज्जीवमुच्चरितानि भवन्ति, स रोहिण्या अग्रतः पृष्ठतो वाऽऽगमने षष्ठकरणशक्त्यभावे किं करोति ? | इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - सर्वथा षष्ठकरणशक्त्यभावे यत्तपः प्रथममागच्छति, तत्तपः प्रथमं करोति । स्थितं तु पश्चात्कृत्वा प्रापयतीति" श्रीहीरप्रश्नोत्तरादपि त्वया विभावनीयमिति । यच्च ‘यदुदयगतायां त्रयोदश्यां चतुर्दशी क्रियते, तदसत्' इत्याद्युक्तं तदपि 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये 'ति वचनानालोचनविजृम्भितमेव । किञ्च, चतुर्दशीक्षये त्वयाऽप्यौदयिक्यां त्रयोदश्यामेव चतुर्दशी क्रियते, चतुर्दशीति व्यपदिश्यते चाऽपि । तथा 'चौदयिक्येव चतुर्दश्याराध्यते' इति तव सिद्धान्तस्य त्वयैव व्याहतिर्विधीयते इति किं न विचार्यते । यतः 'यां तिथि समनुप्राप्ये' त्यादिना तत्र त्रयोदश्या एवौदयिकत्वेनाऽहोरात्रव्यापित्वरूपसाकल्यम्, न तु चतुर्दश्याः । इति 'क्षये पूर्वे 'ति विशेषवचनानुसरणं तु द्वयोरपि तुल्यमेव । ननु चतुर्दशीक्षये चतुर्दश्या अनौदियकत्वादेवौदयिकत्रयोदश्यां चतुर्दशीकरणमस्माकं न दोषावहमिति चेत् । पूर्णिमाक्षयेऽपि पूर्णिमाया अनौदयिकत्वादेवौदयिकचतुर्दश्यां पूर्णिमाकरणम्; तथाकरणे च चतुर्दश्या अनौदयिकत्वमेव प्राप्तमिति तत्र चतुर्दश्या अप्यनौदयिकत्व Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १५३ भावादेवौदयिकत्रयोदश्यां चतुर्दशीकरणमस्माकमपि निर्दुष्टमेवेति प्रागुपपादितमेव विभावनीयम् । तथा च पूर्णिमाक्षये त्रयोदश्यामेव चतुर्दशी कर्तव्या, चतुर्दश्यामेव च पूर्णिमा कर्तव्या । इत्थमेव हि द्वयोरपि क्रमिकाराधनाऽनुष्ठानपद्धतिः सम्यगाराधिता भवति । 'यदा पूर्णिमा क्षीयते तदा तत्तपत्रयोदश्यां क्रियते' इति तवाभिमतस्य क्षीणपूर्णिमातपसः त्रयोदशीकर्तव्यताकत्वस्य कुत्राप्यनुपदेशाच्च । न च चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन क्षीणपूर्णिमाऽऽराधनस्य चतुर्दश्याराधनायामेवान्तर्भावोऽस्त्विति वाच्यम् । पूर्णिमाऽऽराधनाविलोपापत्तेः । चतुर्दशीपूर्णिमयोरेकरूपेणाऽऽराध्यत्वे मानाऽभावात् । "भिन्नं हि चतुर्दशीपर्व भिन्नं च पूर्णिमापर्वे'ति सार्वदिकशास्त्रपरम्परोभयसिद्धभेदाऽन्यथाऽनुपपत्त्या तयोभिन्नरूपेणैवाऽऽराध्यत्वात् । 'त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते' इत्यनेन विरोधापत्तेश्च । तत्र चतुर्दश्यां समावेशमनुक्त्वा पृथक्करणोपदेशात् । न च तत्र चतुर्दश्यां टिप्पनके 'द्वयोरपि विद्यमानत्वेऽप्याराधनायां द्वयोविद्यमानत्वमस्ती'त्यपि युक्तम् । पूर्णिमायाः क्षये आराधनायां 'क्षये पूर्वे' ति वचनेन पूर्वस्या औदयिकचतुर्दश्याः पूर्णिमात्वेन प्रमाणतया कार्यत्वोपदेशात् । टिप्पनकोक्तचतुर्दशीदिने पूर्णिमात्वेनैव प्रामाण्यस्योचितत्वात् । समाप्तिमत्त्वेन भोगवत्त्वेन वा प्रामाण्यस्य प्राग निरस्तत्वात् । 'क्षये पूर्वे' ति विशेषवचनानुसारेण तत्र दिने चतुर्दशीत्वेन प्रामाण्ये मानाभावाच्च। न चात्र पूर्णिमायालुटितत्वेन चतुर्दश्यां पौर्णिमास्या वास्तव्येव स्थितिः । न तु तत्राऽऽरोपिता सती पूर्णिमाऽऽराध्यते । तथा च चतुर्दश्यां तत्र द्वयोरपि चतुर्दशीपूर्णिमयोर्विद्यमानत्वेन तस्या अप्याराधनं जातमेव, न तु तत्क्षये तदाराधनं व्यतीतमेवेति वाच्यम् । 'तयोरेकरूपेणाऽऽराध्यत्वे मानाभावा'दित्यादिना दत्तोत्तरत्वात् । किञ्च, क्षीणपूर्णिमाऽनुष्ठानं चतुर्दश्यामनुष्ठीयमानं किं चतुर्दश्यनुष्ठानं पूर्णिमाऽनुष्ठानं वा व्यपदिश्यते ? आये- पूर्णिमाऽनुष्ठानविलोपापत्तिः । द्वितीये-पाक्षिकाऽनुष्ठानविलोपापत्तिः । न च चतुर्दश्यामेव द्वयोरप्यनुष्ठानं समाविष्टमिति वाच्यम् । अनन्तरोक्तश्रीहीरप्रश्नोत्तरानुसारेण टिप्पनकस्थत्रयोदशीचतुर्दश्योरेव चतुर्दशी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ग्रन्थत्रयी क्षीणपूणिमयोर्द्वयोरपि तपोऽनुष्ठानादिसम्पूर्णाऽऽराधनायाः क्रमेण पृथक्पृथक् सम्भवेनैकत्र द्वयोराराधनासमावेशकल्पनाया निष्प्रमाणत्या निर्मूलत्वात् । पाक्षिकचातुर्मासिकादिषष्ठतपःप्रभृत्यभिग्रहवतां षष्ठादितपोविलोपापत्तेश्च । न च तादृशाभिग्रहवतां तत्र पृथगेव तपःसमाचरणं भविष्यतीत्यपि साम्प्रतम् । पृथगेव च तदनुष्ठानं पृथगेव च तत्तपःसमाचारणं भिन्नभिन्नदिनमादायेति खण्डखण्डाऽऽराधनाऽऽपत्तेः । तत्रापीष्टापत्तौ मानाभावाच्च । यद्दिनमादाय च पृथक् तत्तपःसमाचरणं प्रामाणिकं, तद्दिनमादायैव च तदाराधनाऽपि कथं न प्रामाणिकी ? इत्याराधनासमावेशकल्पनाऽपि निरस्तैव । - किञ्च तादृशाभिग्रहवता तत्र पूर्णिमातपः कुत्र कार्यम् ? किं त्रयोदश्यामुत प्रतिपदि ? नाद्यः, तपोव्युत्क्रमापत्तेरनिष्टत्वात् । न द्वितीयः, 'क्षये पूर्वेति विरोधापत्तेः । । 'प्रतिपद्यपी'ति श्रीहीरप्रश्नोत्तरवचनस्य च विस्मृतिमात्रविषयकत्वात् । अन्यथा च, . क्षीणपूर्णिमासम्बन्धितपोऽनुष्ठानादेरनन्तरोत्तरप्रतिपद्दिनमादायैव कर्तव्यतायाः प्रामाणिकत्वे श्रीहीरप्रश्नोत्तरे 'त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते' इत्यत्र, 'चतुर्दशीप्रतिपदोः क्रियते' इत्येवोत्तरवचनस्य सङ्गतत्वं स्याद्, न चैतदेवम्, तस्मान तथा । किञ्चैवं क्षीणपूर्णिमास्थलेऽनन्तरोत्तरप्रतिपद्दिनग्रहणे क्षीणचतुर्दशीस्थलेऽप्यनन्तरोत्तरपूर्णिमादिनग्रहणप्रसङ्गो दुर्निवारः स्यात् । अन्यथा, चतुर्दशीक्षये त्रयोदशीरूपा प्राचीना तिथिः, पूर्णिमाक्षये चोत्तरा प्रतिपद्रूपा तिथिाह्येत्येवंरूपाऽर्धजरतीयन्यायापत्तिः । तथा च वृश्चिकभिया पलायमानस्य तवाऽऽशीविषमुखे निपातः । शास्त्रानुसारि-शास्त्राऽबाधिताऽविच्छिन्न-तपागच्छीय-सुविहितपरम्पराया भीतस्य तवाऽऽगमपरम्परोभयं पथाऽतीतखतरमतप्रवेशप्रसङ्गात् । एतेन च 'पूर्णिमा-भाद्रशुक्लपञ्चमीप्रभृतिवृद्धौ प्रथमपूर्णिमा-प्रथमपञ्चमीप्रभृतिदिनमादायैव तत्सम्बन्धितपोऽनुष्ठानादि विधेय' मित्युच्छृङ्खलंप्रवादोऽपि परास्त एव बोध्यः । 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे' ति वचनविरोधापत्तेश्च । न च, क्षीणचतुर्दशीस्थले न पूर्णिमाग्रहणम्, तत्र चतुर्दशीभोगगन्धस्याप्यसम्भवात्, किन्तु त्रयोदश्या एव ग्रहणम् । यतस्त्रुटितत्वेन त्रयोदश्यां चतुर्दश्या वास्तव्येव स्थिति न तत्राऽऽरोपिता सती चतुर्दश्याराध्यते इति वाच्यम् । एवं हि क्षीणपूर्णिमास्थलेऽपि न प्रतिपद्ग्रहणं युक्तम्, तत्रापि पूर्णिमाभोगगन्धस्याप्यसम्भवात् । तत्र चाऽऽरोपिताया एव पूर्णिमाया आराध्यत्वप्रसङ्गात् । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १५५ किञ्च, तद्भोगवत्त्वस्य तद्ग्रहणप्रयोजकतावच्छेदकत्वमन्तरा न तद्भोगवत्त्वाभावस्य तदग्रहणप्रयोजकत्वं सम्भवति । प्रयोजकताऽवच्छेदकधर्माऽवच्छिनाऽभावस्यैव प्रयोज्यताऽवच्छेदकधर्माऽवच्छिन्नाऽभावप्रयोजकत्वात् । औदयिकतिथिस्वीकारान्यतिथितिरस्कारप्रवणस्य भवतस्तत्तत्तिथिग्रहणे तत्तदौदयिकत्वस्यैव प्रयोजकत्वस्य वाच्यत्वात् । औदयिकत्वाग्रहवतो भवतो भोगवत्त्वप्रयोजकत्वस्य वक्तुमप्यशक्यत्वात् । औदयिकत्वाभावस्य च क्षीणचतुर्दश्यादिस्थले त्रयोदशी-पूर्णिमाद्योरूभयत्रापि समानत्वात्। तत्र त्रयोदशीग्रहणं, न पूर्णिमाग्रहणम्; पूर्णिमायां त्रुटितायां च प्रतिद्ग्रहणं, न चतुर्दशीग्रहणमित्यत्र विनिगमकाभाव एव । एतेन समाप्तिमत्त्वस्य प्रयोजकताऽपि निरस्ता। सर्वत्रौदयिकतिथिस्वीकारसिद्धान्तविलयापत्तेः । क्वचिदौदयिकत्वस्य क्वचिद्भोगवत्त्वस्य चित्समाप्तिमत्त्वस्य प्रयोजकतेति निर्मूलायाः स्वेच्छजन्यकल्पनायाश्चानुपादेयत्वात् । न च सर्वत्र समाप्तिमत्तिथिस्वीकारान्यतिथितिरस्कारप्रवणतैवाऽस्माकमस्तु, अस्तु च सर्वत्रौदयिकतिथिस्वीकारसिद्धान्तविलयः । तथा च त्रुटितचतुर्दशीस्थळे त्रयोदश्या एव ग्रहणम्, तत्रैव चतुर्दश्याः समाप्तिमत्त्वात् । न तु पूर्णिमायाः, तत्र चतुर्दशीसमाप्तिमत्त्वाभावादिति वाच्यम् । ___ एवं हि क्षीणपूर्णिमास्थलेऽप्यनन्तरोत्तरदिने तत्समाप्तिमत्त्वाभावात् तदग्रहणप्रसङ्गेन तत्रानन्तरोत्तरदिनग्रहणरूपत्वत्सिद्धान्तक्षतिप्रसङ्गात् । न वा समाप्तिमत्त्वमस्तीत्येतावता समाप्तिमत्त्वस्य प्रयोजकता, तत्र समाप्तिमत्त्वस्याऽन्यथासिद्धत्वात् । समाप्तिमत्त्वेन प्रयोजकतायां च प्रमाणाभावात् । 'उदयंमि जा तिही' इत्यादिप्रागुपदर्शितानां प्रामाणिकत्वेनोभयपक्षसम्मतानां वचनानां समाप्तिघटितत्वाऽभावादुदयमात्रघटितत्वाच्च तैः सह विरोधाऽऽपतेः । एवं च 'उदयंमि जा तिही', 'क्षये पूर्वे'त्यादि सर्ववचनानां वैयर्थ्यापत्तेरप्युक्तत्वान्महदसामञ्जस्यापत्तेश्च । किञ्चैवं सति तत्तत्तिथिदिवसव्यवहारेऽपि समातिमत्त्वस्यैव प्रयोजकत्वस्य वाच्यतायां त्रुटितवृद्धचतुर्दश्यादिस्थले सर्वसम्मतैः, लोकेऽपि सूर्योदयानुसारेणैव दिवसादिव्यवहारात्, 'यां तिथिं समनुप्राप्य', 'क्षये पूर्वी तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा' इत्यादिवचनैः सह तत्रापि विरोधापत्तेर्दुष्परिहरत्वमेवेति । एतेन समाप्तिमत्त्वे सत्यौदयिकत्वस्यापि प्रयोजकत्वं प्रत्युक्तम् । चतुर्दशीपाते तत्र दिने त्रयोदश्यामेव समाप्तिमत्त्वविशिष्टौदयिकत्वसत्त्वेन त्रयोदशीत्येव व्यपदेशापत्तेः । चतुर्दश्यास्तु तत्र समाप्तिमत्त्वेऽप्यौदयिकत्वाभावाद्विशेष्याभावप्रयुक्तविशिष्टाभावस्यैव सत्त्वेन Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ग्रन्थत्रयी चतुर्दशीति व्यपपदेशस्याप्यभावप्रसङ्गात् । तदाराधनार्थं त्रयोदशीदिनाऽनुपादानप्रसङ्गाच्च । चतुर्दशीवृद्धिस्थले च प्रथमदिने चतुर्दश्याः टिप्पनके औदयिकत्वसत्त्वेऽपि समातिमत्त्वाऽभावाद्विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टाभावस्य सत्त्वेन तत्राऽपि चतुर्दशीतिव्यपदेशा- . ऽभावप्रसङ्गात् । न च तत्र प्रथमदिने सा फल्गुतिथिरेवेति वाच्यम् । आराधनायां फल्गुतिथि-क्षीणतिथि(थ्योः) द्वयोरप्याराध्यत्वस्य प्राक् 'क्षये पूर्वा तिथि: कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा' इति वचनेन तत्तद्रूपेण व्यवस्थापितत्वात् । किञ्चाऽऽराधनायां तत्र दिने फल्गुतिथिस्तव मते केन रूपेण व्यपदेश्या ?। किं तिथित्वरूपसामान्यरूपेण वा चतुर्दशीतिथित्वरूपविशेषरूपेण वा ?। नाद्यः-विशेषविनिर्मुक्तसामान्यस्याऽभावात् । न द्वितीयः-तत्र दिने चतुर्दश्यां विशिष्टाभावत्वस्यैव सद्भावेन चतुर्दशीतिथित्वेनाऽपि व्यपदेश्यत्वाऽभावात् । एवं पञ्चम्यादितिथिवृद्धिस्थले टिप्पनकस्थप्रथमपञ्चम्यादिदिनेऽपि बोध्यम् । क्षीणपूर्णिमास्थले च त्रयोदशी-प्रतिपद्दिनयोर्द्वयोरपि पूर्णिमायाः समाप्तिमत्वाभावादौदयिकत्वाभावाच्च विशेषणाभाव-विशेष्याभावोभयप्रयुक्तविशिष्टाभावसत्त्वेन चतुर्दश्यां च पूर्णिमायाः समाप्तिमत्वेऽप्यौदयिकत्वाभावाद्विशेष्याभावप्रयुक्तविशिष्टाभावसत्त्वेन च त्रयोदशी-चतुर्दशी-प्रतिपद्दिनानामन्यतमस्याऽपि पूर्णिमात्वेन व्यपदेश्यत्वाऽभावात् तत्रयाणामन्यतमस्यापि पूर्णिमासम्बन्धितपोऽनुष्ठानाऽऽराधनार्थं तव मतेऽनुपादानप्रसङ्गात् । तथा च क्षीणचतुर्दशीस्थले तदाराधनार्थं त्रयोदश्या एव ग्रहणम्, क्षीणपूर्णिमास्थले च तदाराधनाथ त्रयोदश्यादिदिनत्रयाणामन्यतमस्य ग्रहणमिति त्वत्परिकल्पितप्रणालिकाया नियुक्तिकत्वमेवेति क्षीणचतुर्दश्याराधना क्षीणपूर्णिमाराधना च दत्ताञ्जलिरेव तवाऽऽपद्येत। एवमन्यत्रापि विभावनीयम् । सर्वं रहसि समालोच्य प्राविशदीकृतोऽस्मदुपदर्शित एव शास्त्रपरम्परोभयानुसारी पन्था ज्यायस्तयाऽऽराधनायां श्रेयोऽथिभिः स्वीकार्य इत्यलम् ।। एतेन 'भाद्रशुक्लपञ्चम्या: क्षये पञ्चम्या एव क्षयो गण्यः, टिप्पनकोक्तौदयिकचतुर्थ्यामेव च सांवत्सरिकपर्वाराधनं विधेयम् । क्षीणपञ्चम्याराधनायाश्च तत्रैव समावेशः कार्यः'। इत्यपि निरस्तम् , 'क्षये पूर्वेति वचनप्रामाण्यात्, प्रागुक्तयुक्त्याऽऽराधनायां टिप्पनकोक्तचतुर्था एव पञ्चमीत्वेन गणनीयत्वात् । सांवत्सरिकपर्वणश्च पञ्चमीदिनाऽव्यवहितपूर्वदिनकर्तव्यताकत्वनियमात् । अनन्तरोक्तत्रुटितपञ्चमीप्रश्नोत्तरे च 'पूर्वस्यां तिथौ समाविश्यते' इत्यनुक्त्वा 'पूर्वस्यां तिथौ क्रियते' इत्युक्तेश्च । तत्रापि Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ समावेशस्याऽयोग्यत्वात् । 'पर्युषणोपवासः पञ्चमीमध्ये गण्यते न वे' ति श्रीहीरप्रश्नोत्तरस्य 'षष्ठकरणशक्त्यभावे पञ्चम्युपवासः पञ्चम्यां विधीयतेऽथवा पर्युषणाचतुर्थ्या' मिति श्रीसेनप्रश्नोत्तरस्य च षष्ठकरणशक्त्यभावविषयकत्वात्, क्षीणपञ्चमीविषयकत्वाभावाच्च । न ततोऽपि समावेशसिद्धिप्रत्याशेत्यपि बोध्यम् । १५७ इत्थमेव च 'करोति तदा भव्य' मिति प्रागुक्त श्रीहीरप्रश्नोत्तरोक्तेऽपि सङ्गतत्वम्, अन्यथा समावेशे तु तदुक्तेरपि वैयर्थ्यात् । एवम्-'तथा रोहिण्युपवासः पञ्चम्याद्युपवासश्च कारणे सति मिलन्त्यां तिथौ क्रियते न वा ? । इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् - कारणे सति मिलन्त्यां तिथौ क्रियते कार्यते चेति प्रवृत्तिर्दृश्यते । कारणं विना तूदयप्राप्तायामेवेति बोध्यम्' इति सेनप्रश्नोत्तरवचनस्य क्षयरूपकारणे सति पञ्चम्यादितिथिसम्बन्धितपोऽनुष्ठानादेः पूर्वतिथौ समावेशो गणनीय इत्यर्थं परिकल्प्य क्षीणभाद्रशुक्लपञ्चम्याराधनायाश्चतुर्थ्यां समावेशकल्पनाऽप्यज्ञानविजृम्भितैव बोध्या । तत्प्रश्नोत्तरस्य क्षीणपञ्चम्यादिविषयकत्वाऽसिद्धेः । 'कारणे सति' इत्यस्य क्षयरूपकारणे सति ‘मिलन्त्यां तिथौ क्रियते कार्यते चे' त्यस्य 'पूर्वतिथौ समावेशो गणनीय' इत्यर्थकत्वे मानाभावाच्च । वस्तुतस्तु, ‘औदयिक पञ्चम्यादिलाभेऽपि कारणे सत्यनौदयिक्यां तत्तपोऽनुष्ठानादि क्रियते कार्यते चेति, तथा च कारणे सति 'उदयंमि जा तिहि' इत्यादिवचनाऽऽवेदितौदयिकनियमबाधेऽपि न प्रत्यवायाशङ्का विधेये' त्येवंरूपतात्पर्यकत्वमेवैतत् प्रश्नोत्तरस्य । अन्यथा, 'क्षये पूर्वे' ति वचनेनैव गतार्थत्वेनैतत्प्रश्नोत्तरस्योत्थानाऽनुपपत्तेश्चेत्यलम् । नन्वस्त्वेतत् । परं टिप्पनके पूर्णिमाया अमावास्यायाश्च क्षये वृद्धौ चाऽऽराधनायां 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे 'ति वचनानुसारेण त्रयोदश्याः क्षयवृद्धिकरणे श्रीहीरप्रश्नोत्तरे 'यदा चतुर्दश्यां कल्पो वाच्यते' इत्यादिरूपः प्रश्न एव न स्यात् । प्रत्युताऽमावास्यायाः क्षये वृद्धौ च त्रयोदशीक्षयवृद्ध्यकरण एव तथाप्रश्नस्योपपत्तिः । तथाहि -अमावास्यायाः क्षये त्रयोदशीक्षयाकरण एव चतुर्दश्यां कल्पवाचनं प्राप्यते । यतः एकादश्यां पर्युषणाऽष्टाह्निकाप्रारम्भदिनोपवासः, द्वादश्यां पारणकं, त्रयोदश्यां तृतीयदिनं, चतुर्दश्यां च कल्पवाचनमिति । यदि च तदा त्रयोदशीक्षयः क्रियते तदैकादश्यां प्रारम्भः, द्वादश्यां पारणकं, चतुर्दश्यां तृतीयदिनम्, अमावास्यायां कल्पवाचनमिति चतुर्दश्यां कल्पवाचनमेव न प्राप्यते इति कथं षष्ठतपः प्रश्नावकाश: ? । एवम् अमावास्याया वृद्धौ त्रयोदशीवृद्धिकरणेऽप्यमावास्यादिवृद्धौ वाऽमावास्यायां प्रतिपदि वेत्यादिनाऽपि षष्ठ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ग्रन्थत्रयी तपःप्रश्नाऽनवकाश एव । स्यादेव च तदा त्रयोदशीवृद्ध्यकरणे तादृशप्रश्नावकाशः । तदा हि-त्रयोदशीद्वयकरणे प्रथमत्रयोदश्यां प्रारम्भः, द्वितीयत्रयोदश्यां पारणकं, चतुर्दश्यमावास्ययोश्च षष्ठं तप इति सर्व सम्झसमेवेति कुत्र प्रश्नावकाशः ?। त्रयोदशीद्वयाऽकरणे च त्रयोदश्यां प्रारम्भः, चतुर्दश्यां पारणकं, प्रथमामावास्यायां तृतीयदिनं, द्वितीयामावास्यायां कल्पवाचनम् । तत्र त्रयोदशी-चतुर्दश्योर्वा चतुर्दशी-प्रथमामावास्ययोर्वा प्रथमद्वितीयामावास्ययोर्वा षष्ठं तपः कार्यमिति विकल्पत्रयाऽवकाशेन भवत्येव तथाप्रश्नावकाशः । तथा च तत्प्रश्नाऽन्यथाऽनुपपत्त्याऽमावास्यायाः क्षये वृद्धौ त्रयोदश्यां क्षयवृद्ध्यकरणमेव सिद्धमिति चेत् । न। सम्यग्भावाऽपरिज्ञानात् । अन्यथाऽनुपपत्तेरेवाऽभावात् । टिप्पनकेऽमावास्यायाः क्षये वृद्धौ चाऽऽराधनायां त्रयोदशीक्षयवृद्धिकरणेऽपि तत्प्रश्नस्याऽन्यथैवोपपत्तेश्च । भाद्रपदप्रतिपदादिक्षयमाश्रित्य चतुर्दशीकल्पवाचनस्य प्राप्तेः । 'यदा चतुर्दश्यां कल्पो वाच्यते' इति प्रश्नस्योपपत्तेः । येषां मते च पूर्णिमाऽमावास्यावृद्धौ प्रतिपद्वयकरणं, तानाश्रित्य प्रतिपदादिवृद्धि चाऽऽश्रित्य अमावास्यादिवृद्धौ वेति प्रश्नस्याप्युपपत्तेश्च । तथा हि-यदा भाद्रपदप्रतिपत्क्षयस्तदा एकादश्यां पर्युषणाष्टाहिकायाः प्रारम्भः, द्वादश्यां पारणकं, त्रयोदश्यां तृतीयदिनं, चतुर्दश्यां कल्पवाचनं, अमावास्यायां श्रीवीरजन्मवाचनम्। अत्र त्रयोदशी-चतुर्दश्योः षष्ठकरणेऽमावास्यापर्वणि पारणकमागच्छति । चतुर्दश्यमावास्ययोश्च षष्ठकरणे द्वितीयायां पारणकमायाति । तदा पर्युषणाया अष्टमं तपः कुत्र कर्तव्यमित्याद्यभिप्रायवतो भवत्येवाऽत्र षष्ठं तपः क्व विधेयमिति प्रश्नावकाशः । एवं द्वितीया-तृतीया-चतुर्थी-पञ्चम्यन्यतमतिथिक्षयेऽपि भवत्येवाऽस्य प्रश्नस्याऽवकाशः । तथा चाऽनुपपन्नमेव यद् अमावास्याक्षये त्रयोदशीक्षयाऽकरण एवाऽस्य प्रश्नस्योपपत्तिचतुर्दश्यां च कल्पवाचनप्राप्तिरिति । अन्यथैव तदुपपत्तेदर्शितत्वात् । ननु टिप्पनकेऽमावास्यायाः क्षये आराधनायां त्रयोदशीक्षयाऽनादरेश्मावास्याया एव क्षयाऽऽदरेऽपि पूर्वोक्तरीत्या भवत्येवैतत्प्रश्नाऽवकाश इति चेत् । यदि भवेत् तदा भवत्वेव त्वां प्रति तदवकाशः । अस्माकं तु तत्र पूर्णिमामावास्याक्षयवृद्धिस्थले प्रागुपदर्शितशास्त्राबाधितशास्त्रानुसार्यविच्छिन्नसुविहितपरम्परागतत्रयोदशीक्षयवृद्धिकरणप्रवृत्त्यादरवतां तत्प्रश्नस्य न काऽपि बाधकता, नाऽप्यन्यथानुपपत्त्या तत्प्रश्नस्य तादृशप्रवृत्त्यभावसाधकतेति सूपपादितमेव । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ वस्तुतस्तु तत्राऽमावास्याक्षये शास्त्रपरम्परोभयसिद्धत्रयोदशीक्षयाऽनादरवतस्तव षष्ठतपःप्रश्नावकाश एव न स्यात् । यतोऽमावास्याक्षये चतुर्दश्यामेव पाक्षिकदिनत्वं । कल्पधरदिनत्वं च । अमावास्यापर्वणश्च टिप्पनके क्षीणत्वेन तव मते नास्त्येव तस्य पृथक् सत्ता । तत्क्षये च तदाराधनस्यापि तव मते व्यतीतत्वेन चतुर्दश्यां समाविष्टत्वेन वा नास्त्येव तस्य पृथगाराधनापीति । न चैवमपि षष्ठं तपः क्व विधेयमित्यस्त्येवाऽत्र प्रश्नाऽवकाश इति वाच्यम् । 'त्रयोदशीचतुर्दश्योः षष्ठं तपः कार्य, यद्वा चतुर्दश्यमावास्ययो'रित्यादिविकल्पावकाशस्थल एव तादृशप्रश्नस्य सावकाशत्वात् । तव मते त्वमावास्यायाः क्षीणतयाऽसत्त्वेन पूर्वोक्तप्रभृतिविकल्पावकाशाभावानिरवकाश एव तत्र 'षष्ठं तपः । विधेय'मिति प्रश्नः । षष्ठतपोऽभिग्रही तु तत्र विकल्पाभावेन त्रयोदशीचतुर्दश्योरेव षष्ठं करिष्यतीति । तथा च प्रागुपदर्शितशास्त्र निर्दुष्टपरम्परागताया: पूर्णिमामावास्याक्षये त्रयोदशीक्षयकरणप्रवृत्तेबर्बाधकतयोपन्यस्तः 'यदा चतुर्दश्यां कल्पो वाच्यते' इत्यादिना षष्ठतपःप्रश्नः स्वस्वरूपमेव तव मते न लभेतेति कुतस्तस्य बाधकता ?। नहि गगनकुसुमं कस्यचिद्बाधकं साधकं वा भवति, स्वस्वरूपस्यैवाऽभावात् । __ प्रतिपदादिक्षयमाश्रित्य तु स्यादेवाऽऽवयोर्द्वयोरपि चतुर्दश्यां कल्पवाचनं षष्ठतपः प्रश्नावकाशश्च । परं, न तस्याऽस्मन्मतबाधकता त्वन्मतसाधकता वेति । नन्वेवमपि 'अमावास्यादिवृद्धौ' इति प्रश्नोपपत्तिः कथमिति चेत् । __इत्थम् । अत्र पूर्णिमामावास्ययोवृद्धौ श्रीविजयदेवसूरीयसम्प्रदायेऽस्मद्गुरुपर्यन्तं यावत् त्रयोदशीवृद्धिकरणप्रवृत्तिः । सम्प्रदायान्तरे च प्रतिपद्वृद्धिकरणप्रवृत्तिरिति प्रकाद्धयान्यतरप्रकारमाश्रित्यैव 'यदा चतुर्दश्यां कल्पो वाच्यते, अमावास्यादिवृद्धौ वाऽमावास्यायां प्रतिपदि वा कल्पो वाच्यते तदा षष्ठतपः क्व विधेय?"मिति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-षष्ठतपोविधाने दिननैयत्यं नास्तीति यथारुचि तद्विधीयतामिति कोऽत्राऽऽग्रहः ?' इत्यत्र, 'अमावास्यादिवृद्धौ' इति प्रश्नस्यापि घटना । तत्र प्रथमप्रकारे-प्रथमत्रयोदश्यां पर्युषणाप्रारम्भः, द्वितीयत्रयोदश्यां पारणकं, चतुर्दश्यां तृतीयदिनं, अमावास्यायां कल्पवाचनमिति । द्वितीयप्रकारे तु-त्रयोदश्यां प्रारम्भः, चतुर्दश्यां द्वितीयादिनं, अमावास्यायां तृतीयदिनं प्रथमायां प्रतिपदि कल्पवाचनमिति । तथा चाऽत्राऽमावास्यावृद्धौ कैश्चित त्रयोदशीवृद्धिमानिभिरमावास्यायां कल्पो वाच्यते, कैश्चिच्च प्रतिपवृद्धिमानिभिः प्रतिपदीति प्रथमप्रतिपदि कल्पो वाच्यते । अत्रोभयेषामपि पर्युषणाष्टाह्निकाप्रारम्भदिनैक्यम्, पर्युषणा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० . ग्रन्थायी महापर्वदिनस्याप्यैक्यम् । परं, षष्ठं तप उभयेषामपि क्व विधेयमिति प्रश्नार्थः । अत्र त्रयोदशीवृद्धिकारि प्रतिपद्वृद्धिकारि सम्प्रदायद्वयं प्रत्यपि माध्यस्थ्यमालम्ब्याऽनाग्रहभावेनैवोत्तरम् । तत्तु स्पष्टार्थमेव । ___ एवम्-'अमावास्यादिवृद्धा' वित्यत्राऽऽदिपदात् प्रतिपवृद्धौ द्वितीयावृद्धौ तृतीयावृद्धौ चतुर्थीवृद्धौ पञ्चमीवृद्धौ वा प्रतिपदि कल्पो वाच्यते तदा षष्ठं तपः छ विधेय-' मिति प्रश्नः । अत्रोत्तरमपि तथैवेति । अत्र तिथिवृद्धिविषयकप्रश्नद्वयस्याऽपि एकमेवोत्तरमिति बोध्यम् । न चैवं सत्यमावास्यावृद्धौ अमावास्यायां प्रतिपदि वा कल्पो वाच्यते, प्रतिपदादिवृद्धौ प्रतिपदि कल्पो वाच्यते, तदा षष्ठतपः क्व विधेयमिति पृथक् पृथगेव कथं न प्रश्नोपन्यासः कृत इति वाच्यम् । तत्र प्रथमप्रश्न एव द्वितीयप्रश्नस्याऽन्तर्भावसम्भवाल्लाघवादुत्तरसाम्याच्च प्रश्नद्वयस्य पृथकपृथगुपन्यासस्याऽनावश्यकत्वादिति । तथा चैतत्प्रश्नस्याप्येवमन्यथैवोपपत्तिरिति तदन्यथाऽनुपपत्तिरेवाऽऽकाशकुसुमायितेति तदधीना पूर्णिमामावास्यावृद्धौ त्रयोदशीवृद्धिकरणरूपाऽविच्छिन्ननिर्दुष्टपरम्पराया अभावसाधनाऽपि तवाऽभिमताऽऽकाशकुसुमायितैवेत्यलम् । . अथ टिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चम्याः क्षये आराधनायां किं चतुर्थ्याः क्षयः कार्यः? किं वा तृतीयायाः? एवं तद्वृद्धावपि किं चतुर्थ्या वृद्धिः कार्या ? किं वा तृतीयायाः?! इति चेत् । अत्र केचिद्-'भाद्रशुक्लचतुर्थ्यपि पर्वतिथिरिति तस्या अपि क्षयवृद्ध्यभावाद, तथा, पूर्णिमामावास्ययोः क्षये त्रयोदश्या एव क्षयः क्रियते, वृद्धौ चाऽपि त्रयोदश्या एव वृद्धिः क्रियते, तथा भाद्रशुक्लपञ्चम्यां क्षयेऽपि तृतीयाया एव क्षयः कार्यः, वृद्धौ च तृतीयाया एव वृद्धिः कार्ये'त्यामनन्ति । एतन्मते 'भाद्रशुक्लचतुर्थ्याः क्षयेऽपि तृतीयाया एव क्षयः कार्यः, वृद्धावपि तृतीयाया एव वृद्धिः कार्या, न तु चतुर्थ्यास्तस्यां पर्वतिथित्वा दित्यपि बोध्यम् । ___ अपरे त्वेवमाचक्षते यद्-भाद्रशुक्लचतुर्थ्या न पञ्चमीवत् पूर्णिमादिवद् वा पर्वतिथित्वम्, किन्तु, अपर्वतिथित्वमेव । निशीथचूादौ तस्या अपर्वत्वेनैवोक्तत्वात्।। यदि च श्रीकालिकाचार्यभगवता तत्र चतुर्थ्यां पर्युषणाऽऽनीतेति पर्युषणापर्वणो . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ भाद्रशुक्लचतुर्थीकर्तव्यताकत्वेन ततः प्रभृति भाद्रशुक्लचतुर्थ्या अपि पर्वतिथित्वमस्तीति विभाव्यते, तथापि तदपेक्षया तस्या नैमित्तिकपर्वतिथित्वमेव न तु नित्यपर्वतिथित्वम् । तथा च तस्याः क्षयवृद्धिस्वीकारेऽपि न काचिद् बाधा । 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे 'ति विशेषवचनस्य तथाविधा पूर्वतिथिक्षयवृद्धिगणनरूपा नित्यपर्वतिथिविषयिकैव सुविहितपरम्परागता प्रवृत्तिर्दृश्यते इति कल्याणकतिथाविव भाद्रशुक्लचतुर्थ्यामपि नित्यपर्वतिथित्वाभावेन तद्वचनस्य न तत्र तथाविधा प्रवृत्तिः । वस्तुतस्तु श्रीपर्युषणापर्वणो न भाद्रशुक्लचतुर्थीकर्तव्यताकत्वनियमः । किन्तु, 'अंतरा वि य से कप्पइ' इत्यनेन वचनेनाऽऽराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाऽव्यवहितपूर्वदिनकर्तव्यताकत्वनियमः । 'चउत्थी पत्तिया' इत्यादौ चतुर्थीशब्दस्यापि तदव्यवहितपूर्वदिनपरत्वस्यैव प्राग् व्यवस्थापितत्वेन तत्र चतुर्थीपरत्वाऽऽग्रहस्याऽप्यनौचित्यमेव । १६१ एवं 'पञ्चाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः' इत्यादिवचनानामपि पर्युषणाया आराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाऽव्यवहितपूर्वदिनकर्तव्यताकत्व एव तात्पर्य विभावनीयम् । तथा च भाद्रशुक्लपञ्चम्याः क्षये चतुर्थ्या एव क्षयः कार्यः । वृद्धौ च प्रागुपदर्शितरीत्या च चतुर्थ्या एव वृद्धिः कार्या । न तु तृतीयायाः । एवं भाद्रशुक्लचतुर्थ्याः क्षयेऽपि चतुर्थ्या एव क्षयो गणनीयः । वृद्धावपि चतुर्थ्या एव वृद्धिर्गणनीया । न तु तृतीयायाः । सर्वत्राऽपि श्रीपर्युषणापर्वण आराध्यभाद्रशुक्लपञ्चमीदिनाऽव्यवहितपूर्वदिनकर्तव्यताकत्वस्य निराबाधत्वान्नाऽनुपपत्तिलेशोऽपीति । अत्रोभयपक्षेऽपि भाद्रशुक्लपञ्चम्या भाद्रशुकलचतुर्थ्या वा क्षये वृद्धौ वा पर्युषणादिनैक्यमेवेति बोध्यम् । तृतीयः पन्थास्तु आधुनिकः शास्त्रपरम्परोभयपथातीतत्वेन निष्प्रमाणतयाऽनुपादेय एवेति । नन्वेवं वि० सं० १९८९ तमे वर्षे चण्डुटिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चम्याः क्षयसत्त्वेऽपि कथं प्रायः सर्वत्र श्रीश्रमणसङ्घेन षष्ट्या एव क्षयः स्वीकृतः, न तु चतुर्थ्या: ? । चतुर्थ्यां शुक्रवासरे एव चाऽऽराधितं सांवत्सरिकं महापर्व, न तु तृतीयायां गुरुवासरे ?, इति चेत् । सत्यम् । परं तदा चण्डुटिप्पनकानुसरणेन न षष्ठीक्षयः स्वीकृतः । किन्त्वन्यटिप्पनकानुसारेणैव तदा षष्ठोक्षयः प्रायः सर्वत्र श्री श्रमणसङ्घेन स्वीकृतः । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ग्रन्थत्रयी तस्मिन् वर्षे चण्डुटिप्पनकादन्यत्र प्रायः सर्वत्र टिप्पनकेषु षष्ठीक्षयस्यैव सत्त्वात् । यथा वि०सं० १९५२ तमे वर्षे चण्डुटिप्पनके भाद्रशुक्लपञ्चम्याः क्षयसत्त्वेऽपि जयपुरटिप्पनकोज्जयिनीटिप्पनक-काशीटिप्पनकादिष्वनेकेषु टिप्पनकेषु षष्ठीक्षयस्य सत्त्वेन सर्वत्र श्री श्रमणसङ्घेन षष्ठीक्षय एव स्वीकृतः । तदानीं तु पुनर्न केवलमन्यटिप्पनकेषु बहुवुः षष्ठीक्षयदर्शनमात्रात्तदादरणं कृतमपि तु चण्डुटिप्पनककारकथनादपि । यतञ्चण्डुटिप्पनककार एव तदा- 'मट्टिप्पनके यद्यपि पञ्चमीक्षयो वर्तते तथापि जैनैस्तु षष्ठीक्षय एव कार्य:, चतुर्थ्यां शुक्रवार एव च विधेयं सांवत्सरिकं पर्वे 'ति न्यवेदयत् । तथा च चण्डुटिप्पनककारवचनस्यैवाऽऽहतत्वेन कुतस्तट्टिप्पनकवचनस्याऽनादरसङ्कल्पाsaकाशोऽपि ? 1 वि० सं० १९६१ तमे वर्षेऽप्येवमेवेति । तथा च न तत्र काऽपि क्षतिरिति बोध्यम् । किञ्च, लोकोत्तरमार्गेऽपि कारणे यदा कदाचित् 'आउरदिट्टंतेणं तं चैव हियं असंथरणे' इति वचनमालम्ब्याऽऽचरणेऽपि न भवति 'जं भत्तपाणं उग्गमउप्पायनेसणेहिं सुद्धं वा निस्संकियं वा न भवइ । दितियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं' इत्यादि वचनस्याऽनादरशङ्काकणाऽवकाशोऽपि । किं पुनः टिप्पनकादौ तु यदा कदाचिदन्यटिप्पनकस्थषष्ठीक्षयावलम्बनेऽपि चण्डुटिप्पनकस्याऽनादरशङ्का ? 1 I न च (ननु) तत्र कल्य्याऽकल्प्ये उत्सर्गापवादविषयैव विचारणेति न दोषः इति चेत् । तर्ह्यत्रापि तथैव किं न विचार्यताम् ? । न हि तावदस्ति किञ्चिन्मानं, यल्लौकिके टिप्पनकादौ च विचारणायामपवादवार्तव नेति । इत्थं च श्रीश्रमणसङ्घेनैव चण्डुटिप्पनकानुसरणमादृतम् । श्री श्रमणसङ्घेनैव यदा कदाचित्कारणविशेषतोऽपेक्षाविशेषतो वाऽन्यटिप्पनकानुसारेण षष्ठीक्षय आदृतस्तत्र का नाम बाधा ? । को नाम शास्त्रविरोध: ? । न हि क्वचित् शास्त्रे चण्डुटिप्पनकमेव सर्वदाऽऽदरणीयं नान्यत् टिप्पनक-मितिविधिर्वा निषेधो वा दृष्टः श्रुतो वेति । प्रत्युत श्रीपारमर्षे प्रवचने तु सर्वत्राऽपि 'तम्हा सव्वाणुन्ना, सव्वनिसेहो व पवयणे नत्थि ।' इत्यादि वचनमेव विभावनीयमिति । तदानी चण्डटिप्पनके पञ्चमीक्षयेऽपि कतिपयजनातिरिक्तसकलग्रामनगराादस्थित - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणातिथिविनिश्चयः ॥ १६३ सकल श्रीचतुर्विधसङ्घरूप श्री श्रीमणसङ्घपरिगृहीतत्वादन्यटिप्पनकस्थस्याऽपि षष्ठीक्षयस्याऽनुसरणस्यैव प्रामाण्यं युक्तियुक्तत्वं च । इत्थं च सकल श्री श्रमणसङ्घसमुदयेन सह तदानीमपि षष्ठीक्षयाऽनुसरणे चतुथ्या शुक्रवासरे च सांवत्सरिकमहापर्वकरणे च शास्त्राबाधितशास्त्रानुसारिशिष्टपरम्पराऽप्यनुसृतैव । अस्माकं तु पर्वाद्याराधनात्मकस्य कस्यापि धार्मिकाचरणस्य ग्रामनगररादिसकलश्रीसङ्क्तः पृथग्भूय कर्तव्यताभिलाषकणावकाशोऽपि न सुन्दरः प्रतिभाति । अयं च श्रीपर्युषणातिथिनिर्णयोऽस्माभिर्यथाक्षयोपशमं शास्त्रतात्पर्यमाकलय्य यथा सम्यक् प्रतिभातस्तथैव दर्शितः । परं नास्मिन्नस्मन्मीमांसितेऽर्थेऽस्मदुक्तंमेव सत्यं, नाऽन्यदित्येवंविधोऽस्माकं प्रामाण्याभिनिवेशः । किन्तु 'तमेव सच्चं णिस्संकं जं जिणेहि पवेइयं' इत्यत्रैवास्माकमाग्रहः । यथार्थभावेन गीतार्थे: श्री श्रमणसङ्घेन च विभाव्यैव चाऽस्मदुक्तं प्रमाणयितव्यम् । तत्र शास्त्रबाधासम्भवेऽस्माकमपि मिथ्यादुष्कृतमेव भूयादिति । श्रीशत्रुञ्जयतीर्थराजतरण श्रीमारुदेवं प्रभुं श्रीमच्छान्तिजिनं च जामनगरे श्री रैवताधीश्वरम् । श्रीनेमिं प्रकटप्रभावनिभूतं पाश्वं च सेरीसके श्रीकादम्बकमौलिरत्नमनिशं श्रीवर्धमानं स्तुवे ॥ १ ॥ पृथ्वीपुत्रोऽपि योऽसावतिचरणपदातीतरूपेण रम्यो रागातीतस्वभावो मृगगमनमृतेऽप्युच्चभावं दधानः । सर्वस्थानस्थितोऽपि प्रकटितकुशलो नैव वक्रो न चास्त इन्द्रार्ण्यक्षेन्द्रभूतिर्भवतु स गणभृद्गौतमो मङ्गलाय ॥ २ ॥ निर्ग्रन्थोऽभिधया सुधर्मगणितः श्रीसुस्थितात्कोटिकश्चन्द्रश्चन्द्रगुरो र्वनेत्यभिधया सामन्तभद्रप्रभोः । विख्यातः प्रभुसर्वदेवसुगुरोर्गच्छो वटेत्याख्यया सोऽयं चैव तपाख्यया विजयते सूरेर्जगच्चन्द्रतः ॥ ३॥ तस्मिन् शास्त्रपरम्परोभयबले गच्छेऽच्छनीतिप्रथे सम्राट् सूरिषु राजते गुणनिधिः श्रीनेमिसूरीश्वरः । यस्याऽध्यात्मनयप्रमाणललिता वाणी वरत्रायते संसारान्धककूपमग्नजनुषां भव्यात्मनामुद्धृतौ ॥ ४ ॥ यस्य ग्रन्थगवी प्रमाणवितताऽनेकान्तमार्गप्रथा क्ष्मापान्तःकरणाऽऽहताऽभयप्रदा भव्यालिबोधोद्धुरा । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ग्रन्थत्रयी पञ्चहुर्नयतारकाकवलिनी जाग्रद्दशाधायिनी जीयात्स प्रबलप्रतापमहिमा सूरीश्वरोऽहर्पतिः ॥ ५ ॥ ऐदंयुगीन उदयी स युगप्रधानः, श्रीनेमिसूरिभगवान् विहितप्रसादः । श्रद्धाविलेऽस्तु कृपया मयि भक्तिलेशे यस्य प्रभावत इयं सफला प्रवृत्तिः ॥६॥ तत्पट्टाम्बरभास्करो विजयते सिद्धान्तवाचस्पतिः सूरिः श्रीविजयोदयः शमवतामग्रेसरत्वं दधत् । तत्पट्टागतनन्दनेन नभसः शुक्ले दिने पञ्चमे । वयङ्काङ्कविधौ च जामनगरे ग्रन्थः कृतः सूरिणा ॥ ७ ॥ सिद्धान्तशास्त्रनयशुद्धपरम्परातो यद् गुम्फितं जडधिया मयका विरुद्धम् । शोध्यं तदत्र कृपया समयज्ञवृन्दैमिथ्या च दुष्कृतमिहास्तु ममापि नूनम् ॥ ८ ॥ श्रीरस्तु ॥ इति श्रीपरमपूज्य-परमोपकारि-सकलसिद्धान्ततर्कव्याकरणादिविविधशास्त्रवाचस्पति-निखिलभव्योपकारखणीतन्यायप्रभा-तत्त्वप्रभा-प्रतिमामार्तण्ड-न्यायसिन्धुसप्तभङ्ग्युपनिषद्-नयोपनिषद्-स्वोपज्ञवृत्तिसमेतानेकान्ततत्त्वमीमांसा-बृहद्हेमप्रभालघुहेमप्रभा-परमलघुहेमप्रभाधनेकग्रन्थसन्दर्भविहितव्याख्या-प्रज्ञप्त्यादियोगोद्वहनप्रभृतिप्रवचनोक्तक्रियाकलापसमाराधितविद्यापीठादिपञ्चप्रस्थानमयीश्रीसूरिमन्त्र-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र - शासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवर्ति-जगद्गुरु-परोपकारैकार्पितकरण-तीर्थप्रभावनैकबद्धलक्ष्यप्रातःस्मरणीय-तपागच्छाधिपति-सुगृहीतनामधेय-भट्टारक-पूज्यपादाऽऽचार्यमहाराजाधिराजश्रीश्रीश्रीश्रीश्री १००८ श्रीश्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरपट्टाम्बरनभोमणि-सिद्धान्तवाचस्पतिन्यायविशारद-आचार्यमहाराज-श्रीविजयोदयसूरीश्वरपट्टधर-न्यायवाचस्पति-सिद्धान्तमार्तण्ड-शास्त्रविशारद-कविरत्नविजयनन्दनसूरिविरचितः श्रीपर्युषणातिथिविनिश्चयः । लिखितचाऽयं विक्रमातीतवेदनिध्यङ्कविधुमिते (१९९४) वर्षे वैशाखशुक्लदशम्यां सोपवासरे सर्वतीर्थसार्वभौमतीर्थाधिराजश्रीसिद्धगिरिभगवन्मुख्यशृङ्गसदृशप्रभावाढ्यसजीवनकूटरूपगतचतुर्विशिकाचतुर्विंशश्रीसम्प्रतितीर्थकृद्गणभृत्कोटिमुनिसमन्वितश्रीकदम्बगणधरसिद्धिनिकेतनाऽपारमहिमशालिछायावृक्षकल्पवृक्षरसकूपिकारत्रखानिप्रकट- . प्रभावानेकौषधिपरिकलिततीर्थाधिराजश्रीकदम्बगिरितीर्थस्योपरि प्राक् श्रीश्रीनाभगणधरसदुपदेशेन श्रीभरतचक्रिनिर्मापितश्रीवर्धमानस्वामिप्रासादे तपागच्छीयश्रीधर्मोद्याने निरन्तराऽस्खलितदृढतरतीर्थभक्त्या अचिन्त्योत्साहेनाऽसाधारणमतिवैभवेनाऽमोघोपदेशदानेन भक्तेभ्य Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६५ पर्युषणातिथिविनिश्चयः॥ उदारचित्तेभ्यो भव्यश्रावकेभ्योऽनेकद्रव्यलक्षव्ययेन कारितश्रीतीर्थराजश्रीकदम्बागिरितीर्थसमुद्धाराणां प्रवर्तापितशास्त्रोपदर्शिततन्महामहिम्नां सर्वतन्त्रस्वतन्त्राणां शासनसम्राजां सूरिचक्रचक्रवर्तिनां जगद्गुरूणां तपागच्छाधिपतीनां भट्टारकाचार्याणां श्रीविजयनेमिसूरीश्वराणां स्वपट्टधरल्यायवाचस्पतिशास्त्रविशारदश्रीविजयदर्शनसूरि-सिद्धान्तवाचस्पतिन्यायविशारदश्रीविजयोदयसूरि-तत्पट्टधरश्रीविजयनन्दनसूरि-स्वपट्टधर-श्रीविजयविज्ञानसूरि-पन्यासश्रीकस्तूरविजयगणि-पन्न्यासश्रीसोमविजयगणि-प्रवर्तकमुनिश्रीगीर्वाणविजयप्रभृत्यनेकसाधुसमुदयपरिवृतानां सदुपदेशेनाऽनेकसाध्वीजनेषु-दशसहस्रसङ्ख्यकेषु श्रावक-श्राविकाजनेषु-पञ्चसहस्रसङ्ख्यकेषु जैनेतरजनेषु च सम्मिलितेषु जावालग्राम-भावनगर-राजनगरस्तम्भतीर्था-ऽणहिल्लपत्तनप्रभृति-नगरवास्तव्यैः सुश्राद्धैः द्रव्यशतसहस्रव्ययेन चैत्रकृष्णैकादशीदिनादारभ्य पञ्चदशदिनानि यावनिष्प्रत्यूहं साधर्मिकवात्सल्य-पूजा-प्रभावनाऽनेकरथयात्राऽ-नेकप्रकारतीर्थादिरचनाशेषशास्त्रोक्तकर्मकाण्डविधानादिभिः द्वापञ्चाशज्जिनालयमण्डिते श्रीऋषभविहाराभिधश्रीऋषभस्वामिप्रासादेश्रीसूर्यकुण्डसमीपवर्तिनि श्रीनेमिविहाराभिधश्रीनेमिनाथस्वामिप्रासादे तदुपरितनभागे श्रीसीमन्धरस्वामिप्रासादे स्थायिरचनात्मकश्रीसिद्धगिरौ च श्रीऋषभस्वामि-श्रीनेमिनाथश्रीसीमन्धरस्वामिप्रभृतिजिनबिम्बानां शतत्रयीप्रमितानां रत्नमयजिनबिम्ब-राजतजिनबिम्बराजतसिद्धचक्रपट्टक-राजतैङ्कारहीङ्कारपट्टकजिनपादुकासमेतानां सार्धचतुःशतीप्रमितानां च शास्त्रोक्तविधिपुरस्सरं प्रतिष्ठादिमहामहोत्सवे प्रवर्तमाने तीर्थाधिराजश्रीकदम्बगिरितीर्थपरिसरे बोदानानेसेत्यपराभिधानायां श्रीकदम्बपुर्यां द्वासप्ततिदेवकुलिकामण्डितश्रीकदम्बविहाराभिधश्रीवर्धमानस्वामिप्रासाद-धर्मशालापौषधशाला-तपागच्छीयश्रेष्ठिजिनदासधर्मदासाभिधसंस्थालयप्रभृतिधर्मस्थानपरिकलिते तपागच्छीयश्रीधर्माराममध्ये जामनगरवासिश्रेष्ठिसङ्घपतिपोपटलालभाइ-धारशीभाइ-श्रेष्ठिसङ्घपतिचुनीलालभाइलक्ष्मीचन्द्र-इत्येताभ्यां कारिततपागच्छीयोपाश्रयोपकलितायां राजनगरवासिश्रेष्ठिमाणेकलालभाइचुनीलालभाईकारिततपागच्छीयसप्तापवरकधर्मशालोपशोभितायां तपागच्छीयैकादशापवरकधर्मशाला-तपागच्छीयचत्वारिंशदपवरकधर्मशाला-पुष्पवाटिका-कूपद्वयंप्रभृति-स्थानपरिकलितायां श्रीतपागच्छवृद्धिवाटिकायां जयतारणवास्तव्येन दीपचन्द्रसूनुना शिवराजनाम्ना लेखकेन । शुभं भवतु श्रीश्रमणसङ्घस्य । प्रतिरियं तपागच्छाधिपतिभट्टारकाऽऽचार्यश्रीविजयनेमिसूरिचित्कोषसत्का ॥ . 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