________________
जीव तत्त्व का स्वरूप
15
मान्यता मिथ्या है। कामना पूर्ति में सुख मानने से अनेक नई कामनाएँ पैदा होती हैं, उन कामनाओं की पूर्ति के लिए प्राणी जीवन पर्यन्त दौड़ता रहता है-भ्रमण करता है। परन्तु उसे स्थायी सुख की उपलब्धि एवं संतुष्टि नहीं होती। कामना-उत्पत्ति सुख-प्राप्ति के लिए ही होती है। सुख प्राप्ति का प्रयत्न वही करता है, जिसे सुख का अभाव है। अत: कामना उत्पत्ति सुख के अभाव की, नीरसता की सूचक है। कामनाओं की पूर्ति से सुख का अभाव मिटता नहीं है, बल्कि क्षणिक सुख का आभास होता है। यदि कामना पूर्ति से यह सुख का अभाव मिटता होता तो प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिदिन बीसों कामनाएँ पूरी हो जाती है और उनकी पूर्ति में उसे सुख का आभास भी होता। यदि यह वास्तविक सुख होता, तो अब-तक सभी प्राणी सुखी हो जाते । आज प्रत्येक व्यक्ति के पास में आज के सौ वर्ष पहले के व्यक्ति से सैंकड़ो गुना वस्तुएँ बढ़ गई हैं। मधुर संगीत सुनने के सुख के लिए लाखों रूपयों से तैयार किये गये गानों के कैसेट, रेडियो, सुंदर दृश्य देखने के लिए सिनेमा, टेलीविजन, जिह्वा इन्द्रिय के सुख के लिए सैंकड़ो प्रकार की मिठाईयाँ, खटाईयाँ, नमकीन, विविध व्यंजन आदि
अगणित सुख की सामग्री बढ़ गई है, जिसका वह भोग-उपभोग कर रहा है, परंतु सुख में अंशमात्र भी वृद्धि नहीं हुई। यदि सुख मिल गया होता, सुख पाना शेष न रहा होता, सुख से तृप्ति व संतुष्टि हो गई होती, तो सुख की कामना उत्पन्न नहीं होती। कारण कि भोग-सामग्री में सुख है ही नहीं। यदि भोग-सामग्री में सुख होता तो सामग्री के विद्यमान रहते सुख भी रहता, परन्तु सामग्री ज्यों की त्यों विद्यमान रहती है और सुख सूख जाता है। सुख प्रतिक्षण क्षीण होकर नीरसता में बदल जाता है। अतः कामना पूर्ति में सुख मानना भयंकर भूल है, घोर मिथ्यात्व है। सुख