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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य चत्तारि सण्णाओ पण्णत्ताओ तं जहा-आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा। -स्थानांग, स्थान 4, उद्देशक 4, सूत्र 196
__ अर्थात् संज्ञाएँ चार होती हैं, यथा-आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा और परिग्रह-संज्ञा। आगम में संसार के समस्त प्राणियों के उक्त चारों ही संज्ञाएँ मानी गई हैं। वनस्पति भी इसका अपवाद नहीं है। प्रकृत में सर्वप्रथम वनस्पति की 'आहार-संज्ञा' का विवेचन किया जाता है।
आहार-संज्ञा-साधारणत: इस बात से प्रायः सभी परिचित हैं कि पौधे बढ़ते हैं परंतु यह बात कम व्यक्ति जानते हैं कि पौधे की यह वृद्धि उसी प्रकार भोजन से होती है जिस प्रकार हमारे शरीर की वृद्धि भोजन से होती है। प्रत्यक्ष ही देखा जाता है कि पौधों को खाद, जल, वायु, प्रकाश आदि आहार मिलना बंद हो जाने पर वे मुरझाने तथा सूखने लगते हैं।
जैनागमों में वनस्पति के आहार विषयक विविध पक्षों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। वनस्पति किस प्रकार का आहार करती है, इसका वर्णन करते हुए कहा गया है
“उस्सण्णकारण पडुच्च वण्णओ कालाई णीलाइं जाव सुक्किल्लाई, गंधओ सुब्भिगंधाइं, दुब्भिगंधाइं, रसओ जाव तित्त महुराई, फासओ कक्खड मउय जाव निद्ध लुक्खाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे जाव फासगुणे विष्परिणामइत्ता, परिपालइत्ता, परिसाडइत्ता, परिविद्धंसइत्ता, अन्ने अपुब्बे वण्णगुणे, गंधगुणे जाव फासगुणे उप्पाइत्ता आयसरीरओगाढे, पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति।"
-जीवाभिगम, प्रथम प्रतिपत्ति अर्थात् वनस्पतिकायिक जीव स्वाभाविक कारण रूप में काला, नीला आदि सब वर्गों का, सुगंध-दुर्गंध का, लवणीय, कटु, मधुर आदि