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आकाशास्तिकाय
183 परिवर्तित तथा परिवर्द्धित समीकरणों द्वारा शून्य (पदार्थ रहित) आकाश की विद्यमानता को संभावित सिद्ध किया।
___ इस प्रकार जहाँ आइंस्टीन का विश्व आकाश सम्पूर्ण रूप में अवगाहित है, वहाँ डी. सीटर का विश्व आकाश सम्पूर्ण रूप में अवगाहित शून्य है। जैनदर्शन सम्पूर्ण लोक आकाश को अवगाहित मानता है और सम्पूर्ण अलोक आकाश को अवगाहित-शून्य मानता है। इससे यह कहा जा सकता है कि विश्व समीकरण में मूलभूत पद लोक आकाश का है
और परिवर्द्धित पद अलोक आकाश का सूचक है। आइंस्टीन का विश्व लोकाकाश है और डी. सीटर का विश्व अलोक आकाश। इस प्रकार आइंस्टीन व डी. सीटर के विश्व का समन्वित रूप जैनदर्शन में विश्व लोकालोक अभिव्यक्त होता है।
विश्व की वक्रता के विषय में विश्व समीकरण के हल, वैज्ञानिकों के समाने यह समस्या खड़ी कर देते हैं कि वक्रता धन है, अथवा ऋण? धन वक्रता वाला सांत और बद्ध तथा ऋणवक्रता वाला विश्व अनंत और खुला पाया जाता है। आइंस्टीन का विश्व धन वक्रता वाला है। अतः सांत
और बद्ध है। ऋण वक्रता वाले विश्व की संभावना भी विश्व समीकरण के आधार पर हुई है। इस प्रकार धन और ऋण वक्रता के आधार पर क्रमश: ‘सांत और बद्ध' तथा 'अनंत और खुले' विश्व की संभावना होती है। लोकाकाश की वक्रता धन और अलोकाकाश को ऋण मानने पर जैनदर्शन का सिद्धांत पुष्ट हो सकता है। लोकाकाश का आकार धन वक्रता वाला है, यह क्षेत्रलोक के गणितीय विवेचन से स्पष्ट है। अतः अलोकाकाश का आकार स्वत: ऋण वक्रता वाला हो जाता है। इस प्रकार
1. फ्रेम यूक्लीड टू एडिंग्टन, पृष्ठ 126