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आकाशास्तिकाय
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जाने का प्रयत्न करते हैं, त्यों-त्यों हमारे वेग में और विस्तार में कमी होती है। परिमाणतः हम सीमा को प्राप्त नहीं कर सकते । इस विचार को हम जैनदर्शन की उस उक्ति के समीप मान सकते हैं कि - " लोक के सब अंतिम भागों में अबद्ध, पार्श्व, स्पृष्ट पुद्गल होते हैं; लोकांत तक पहुँचते ही सब पुद्गल स्वभाव से ही रुक्ष हो जाते हैं । वे गति में सहायता करने की स्थिति में संगठित नहीं हो सकते । इसलिए लोकांत से आगे पुद्गल की गति नहीं हो सकती। यह एक लोकस्थिति है। " " रुक्षत्व परमाणुओं का मूल गुण माना गया है। कुछ प्रमाणों के आधार पर यह एक प्रकार का (ऋण अथवा धन) विद्युत् आवेश हो, ऐसा लगता है। पोइनकेर के अभिमत को यदि जैनदर्शन में विवेचित सिद्धांत का केवल शब्दांतर ही माना जाये तो अबद्ध, पार्श्व, स्पृष्ट पुद्गल का अर्थ 'वास्तविक शून्य तापमान वाला पुद्गल' हो सकता है। कुछ भी हो, दोनों उक्तियों के बीच साम्य है, यह स्पष्ट है। पोइनकेर ने आकाश की सांतता और परिमितता के अंतर को स्पष्ट करने के लिए उक्त विचार दिया है, जबकि जैनदर्शन ने लोकाकाश की सांतता और अलोकाकाश में गति - अभाव के कारण के रूप में उक्त तथ्य बताया है। 2
आशय यह है कि आधुनिक विज्ञान जैनदर्शन में वर्णित आकाश के स्वरूप को स्वीकार करता है तथा दोनों में आश्चर्यजनक समानता है।
1. सव्वेसु वि णं लोगंतेसु अबद्ध पासपुट्ठा पोग्गला लुक्खताए कज्जंति जेणं जीवा य पोग्गला य णो संचायति बहिया लोगंता गमणयाए एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता । -ठाणांग सूत्र 10
जैन भारती, 15 मई, 1966
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