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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य अर्थात् हे गौतम! जो भाषा भिन्नत्व से निःसृत या प्रसारित होती है वह अनंतगुनी वृद्धि को प्राप्त होती हुई लोक के अंतिम भाग को स्पर्श करती है अर्थात् व्याप्त होकर संसार के पार तक पहुँच जाती है और जो भाषा अभिन्न रूप से नि:सृत होती है वह संख्यात योजन जाकर भेद को प्राप्त होती है। भाषा के अभिन्न और भिन्न रूप
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि शास्त्रकारों ने भाषा के दो रूप माने हैं-एक अभिन्न रूप और दूसरा भिन्न रूप। अभिन्न रूप भाषा या ध्वनि के मूल रूप का द्योतक है तथा भिन्न रूप भाषा या ध्वनि के मूल में परिवर्तन या परिणमन होकर भिन्न रूप में रूपांतरित होने का द्योतक है। साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि भिन्नत्व अर्थात् रूपांतर को प्राप्त हुई भाषा ही अनंत गुनी परिवर्द्धित होकर लोक की चरम सीमा तक पहुँचती है, तथा अरूपांतरित, असली, मूल रूप में विद्यमान अर्थात् अभिन्न भाषा परिवर्द्धन को प्राप्त नहीं होती है वह स्वाभाविक गति से बढ़ती हुई संख्यात योजन चलकर नष्ट हो जाती है अर्थात् भाषावर्गणाएँ बिखर जाने से भाषा, भाषा रूप नहीं रहती है। फिर वे बिखरी हुई भाषावर्गणाएँ असंख्यात योजन चलने के पश्चात् भिद् जाती हैं अर्थात् फिर वे भाषावर्गणाओं के रूप में भी नहीं रहती है।
उपर्युक्त भाषा या ध्वनि विषयक जैन सिद्धांत से वर्तमान विज्ञान भी सहमत है। आधुनिक विज्ञान भी ध्वनि के दो रूप मानता है। प्रथम मूल रूप और द्वितीय परिवर्तित रूप। मूल रूप में ध्वनि वस्तु, व्यक्ति, वाद्य आदि से जिस रूप में निकलती है उसी रूप में चारों ओर फैलती है। इसकी प्रसारण की गति 1,100 मील प्रति घण्टा है। इस गति से बढ़ती