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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य केवल प्रकाश के अभाव रूप नहीं है, उसमें ऊर्जा (Energy) होती है
और इसी कारण उसमें विद्युदणु निकलते हैं। ऊर्जा पदार्थ का ही एक रूप है, अत: अंधकार पदार्थ है।
छाया
'प्रकाशावरणनिमित्ता'
-सर्वार्थसिद्ध, 5.34 अर्थात् प्रकाश पर आवरण पड़ने पर छाया उत्पन्न होती है। प्रकाशपथ में अपारदर्शन कायों (Opeque Bodies) का आ जाना आवरण कहलाता है। छाया अंधकार की कोटि का ही एक रूप है, इस प्रकार यह भी प्रकाश का अभाव-रूप नहीं अपितु पुद्गल की पर्याय है। अंधकार के वर्णन में कथित काली पट्टियों के रूप में जो छाया (Shadows) होती है, उसे विज्ञान ऊर्जा का ही रूपान्तर मानता है। इससे सिद्ध होता है कि 'छाया' पदार्थ की एक पृथक् पर्याय है।
जैन ग्रन्थों में छाया का विवेचन करते हुए कहा गया है कि विश्व के प्रत्येक इन्द्रियगोचर होने वाले मूर्त पदार्थ से प्रतिपल तदाकार प्रतिच्छाया प्रतिबिंब रूप से निकलती रहती है और वह पदार्थ के चारों
ओर निरंतर आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में जहाँ उसे अवरोध या आवरण मिल जाता है, वहाँ ही वह दृश्यमान हो जाती है। प्रतिच्छाया के रश्मिपथ में दर्पणों (Mirrors) और अणुवीक्षों (Lenses) का आ जाना भी एक प्रकार का आवरण ही है। इस प्रकार के आवरण से वास्तविक (Real) अवास्तविक (Virtual) प्रतिबिंब बनते हैं। ऐसे प्रतिबिंब दो प्रकार के होते हैं-वर्णादि विकार परिणत और प्रतिबिम्ब मात्रात्मक। वर्णादि विकार परिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिम्ब लिये जा सकते 1. सा द्धेधा वर्णादिविकारपरिणता प्रतिबिम्बमात्रात्मिका चेति। -सर्वार्थसिद्ध, 5.24