________________
199
पुद्गल द्रव्य सब द्रव्य ध्रुव हैं, न तो शून्य से किसी द्रव्य का निर्माण ही संभव है और न कोई द्रव्य अपना अस्तित्व खोकर शून्य बनता है। आगम वर्णित द्रव्य के इस लक्षण को जैनेतर दर्शन स्थान नहीं देते हैं। उनकी मान्यता यह रही है कि ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय परस्पर विरोधी गुण हैं, अत: किसी द्रव्य में ये एक साथ नहीं रह सकते हैं। परंतु विज्ञान के विकास में जैनदर्शन में कथित द्रव्य के उक्त लक्षण का पूर्ण समर्थन किया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक लेवाईजर (Lavoiser) का कथन है-"Nothing can be created in every process. There is just as much substance (quality of matters) present before and after the process has taken place. There is only change of modification of matter."
अर्थात् किसी भी क्रिया से कुछ भी नवीन उत्पत्ति नहीं की जा सकती तथा प्रत्येक क्रिया के पूर्व और पश्चात् की पदार्थ की मात्रा में कोई अंतर नहीं पड़ता है। क्रिया से केवल पदार्थ का रूप परिवर्तित होता है।
यह रूपवान जगत् जिसमें असंख्य प्रकार के पार्थिव पदार्थ भरे पड़े हैं, जैनदर्शन इन समस्त पदार्थों का उत्पादन कारण एकमात्र पुद्गल द्रव्य को मानता है। संभवत: जैनदर्शन ही ऐसा दर्शन है जो विश्व के समस्त पार्थिव पदार्थों को चाहे वे ठोस हों (Solid) अथवा द्रव्य (Liquid) वायव्य (Gases) हों अथवा ऊर्जा (Energy) रूप हों, इन सबको मूलत: एक ही तत्त्व 'पुद्गल परमाणु' से निर्मित्त मानता है। विश्व के अन्य दर्शन पृथ्वी, जल, अग्नि, जल आदि चार या पाँच या पच्चीस आदि तत्त्वों की विभिन्न संख्या को पदार्थों का उपादान कारण मानते हैं। कोई इसे तत्त्व ही नहीं मानकर मिथ्या या अलोक मानता है और न अलग-अलग मौलिक तत्त्व ही, प्रत्युत एक ही तत्त्व के विभिन्न रूप मानता है। साथ ही यह भी
1.
From law of indestrcutibility of matter as difiened by Lavoiser.