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14. पुद्गल द्रव्य
अजीव तत्त्व का पाँचवाँ भेद 'पुद्गल' है। 'पुद्गल' जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जैनदर्शन में प्रयुक्त पुद्गल शब्द आधुनिक विज्ञान के Matter (पदार्थ) शब्द का समानार्थवाची कहा जा सकता है। पारिभाषिक होते हुए भी यह रूढ़ न होकर व्यौत्पत्तिक है। पुद्गल शब्द पुद् और गल इन अवयवों के योग से बना है। 'पुद्' का अर्थ है पूरा होना या मिलना (Combination) और 'गल' का अर्थ है गलना या मिटना (Disintegration)। अत: जो द्रव्य प्रति समय मिलता-मिटता रहे, बनताबिगड़ता रहे वह पुद्गल है।'
पुद्गल को एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है। जैनशास्त्रों में द्रव्य का लक्षण बताते हुए कहा है-'सद् द्रव्यलक्षणम्। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।' अर्थात् द्रव्य सत् है और सत् उसे कहते हैं जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुण से युक्त हो। जैनदर्शन यह मानता है कि वस्तु अपने अस्तित्व रूप में नित्य रहती है, उसका नाश कभी भी नहीं होता है। उत्पत्ति और विनाश तो उसकी पर्याय मात्र हैं। जैसे स्वर्ण के मुकुट को तोड़कर कुण्डल बना देने पर भी स्वर्णत्व यथावत् बना रहता है। यहाँ स्वर्णत्व ध्रौव्य है और मुकुट रूप आकार का नाश और कुण्डल रूप आकार का निर्माण इसकी व्यय और उत्पाद पर्यायें हैं। अर्थात् रूपान्तर मात्र है इसी प्रकार
1. (अ) पूरणगलनान्वर्थसंज्ञात्वात् पुद्गलाः। -तत्त्वार्थराजवार्तिक अध्ययन 5, सूत्र 1, वा 24
(आ) पूरणात् पुद्गलयतीति गलः। शब्दकल्पद्रुमकोष। 2. तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 5, सूत्र 29