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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य है। अत: यह फलित होता है कि जैनदर्शन में वर्णित यह तथ्य की परिणमन और क्रिया काल के उपकार हैं विज्ञान जगत् में मान्य हो गया है।
काल के परत्व-अपरत्व लक्षण को कुछ आचार्यों ने व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति, क्षेत्र आदि के दो माध्यम स्थापित कर उनको सापेक्ष रूप में समझाने का प्रयास किया है। परंतु विचारणीय यह है कि जब काल के वर्तना, परिणाम और क्रिया लक्षण स्वयं उसी पदार्थ में प्रकट होते हैं, तो परत्व-अपरत्व लक्षण भी उसी पदार्थ में प्रकट होने चाहिये। इनके लिए भी एक सापेक्ष्य की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। लगता है कि उस समय के व्याख्याकार आचार्यों के समक्ष कोई ऐसा उदाहरण या विधि विधान नहीं थे जिससे वे काल के परिणाम-क्रिया आदि अन्य लक्षणों के समान परत्व-अपरत्व को भी स्वयं पदार्थ में ही प्रमाणित कर सकते। विज्ञान जगत् में इसे आज भी केवल गणित के जटिल समीकरणों से ही समझा जा सकता है, व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा नहीं। पदार्थ की आयु की दीर्घता का अल्पता में, अल्पता का दीर्घता में परिणत हो जाना परत्वअपरत्व है। दूसरे पदार्थ में पदार्थ की अपनी आयु का विस्तार और संकुचन परत्व-अपरत्व है।
विश्व में चोटी के वैज्ञानिक आइंस्टीन व लारेंसन ने समीकरणों से सिद्ध किया है कि गति के तारतम्य से पदार्थ की आयु में संकोच-विस्तार होता है। उदाहरण के लिए एक नक्षत्र को लें जो पृथ्वी से 40 प्रकाश वर्ष दूर है अर्थात् पृथ्वी से वहाँ तक प्रकाश जाने में 40 वर्ष लगते हैं। यहाँ से वहाँ तक पहुँचने के लिए यदि एक रॉकेट 2,40,000 किलोमीटर प्रति सैकेण्ड की गति से चले तो साधारण गणित की दृष्टि से 50 वर्ष लगेंगे। कारण कि प्रकाश की गति प्रति सैकेण्ड 3,00,000 किलोमीटर है। अत: 3,00,000/2,40,000 x 40 = 50 वर्ष लगे। परंतु फिर