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13. कालद्रव्य
अजीव द्रव्य का चौथ भेद काल' है। जैनागमों में काल का विशद् वर्णन है। काल के स्वरूप पर जैन दार्शनिकों की व्याख्या इस प्रकार है
'वत्तणालक्खणो कालो' -उत्तराध्ययन सूत्र 28.10 वर्त्तनापरिणाम: क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य -तत्त्वार्थ सूत्र 5.22
काल का लक्षण वर्तना है अथवा वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालद्रव्य के उपकार हैं। इस प्रकार से वर्तना काल का उपलक्षण है। उसमें ही परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व का अन्तर्भाव हो जाता है। वर्तमान शब्द, 'युच्', प्रत्यय पूर्वक 'वृतु' धातु से बना है, जिसका अर्थ है वर्तनशील होना। उत्पत्ति, अप्रच्युति और विद्यमानता रूप वृत्ति अर्थात् क्रिया वर्तना कहलाती है। वर्तना सभी पदार्थों में विद्यमान है। वर्तमान रूप कार्य की उत्पत्ति जिस द्रव्य का उपकार है, वही काल है।
परिणाम परिणमन का ही रूप है। परिणमन और क्रिया सहभावी है। परिणाम और क्रिया के उपकार किस प्रकार हैं, इस विषय में जैन दर्शन का स्पष्ट मत है यथा
ण य परिणमदि सयं सो ण य परिणामेई अण्णमण्णेहि। विविहपरिणमियाणं हवदि हु कालो सयं हेदू॥ कालं अस्सियदव्वं सगसगपज्जायपरिणदं होदि। पज्जायावट्ठाणं सुद्धणये होदि णमेतं।।
__-गोम्मटसार, जीवकांड 569-70