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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य में आहार के विलयन की सुविधाओं की सुलभता अधिक होती है तब पौधे खूब दूंस-ठूस कर आहार नहीं करते अपितु भरते भी हैं। उसमें से जितना आहार पौधों की वर्तमान आवश्यकता से अधिक होता है वह उनकी जड़ों, कन्दों व स्कन्धों में जमा हो जाता है तथा वसंत व ग्रीष्म ऋतु में तापमान की वृद्धि से उत्पन्न उष्णता की समीचीनता से पौधों में सर्जन व प्रजनन शक्ति सक्रिय हो जाती है जिससे पौधे फलते-फूलते व हरीतिमा को प्राप्त होते हैं। परंतु जड़, कंद, स्कंध, पूर्व की अपेक्षा अधिक दुबले-पतले हो जाते हैं। इसका कारण पौधे की जड़, कंद आदि में संचित आहार के पुद्गलों का उष्णता व प्रजनन क्रिया के कारण विक्रमण' अर्थात् चलायमान होकर पौधे के अन्य अंगों के प्रोषण-रूप में परिणत होना ही है।
तात्पर्य यह है कि जैन आगम के इस कथन का वर्तमान विज्ञान पूर्ण समर्थन करता है कि ग्रीष्म ऋतु में पौधों के अधिक फलने-फूलने व हरीतिमा से अपनी शोभा बढ़ाने का कारण उष्णता से पुद्गलों का चलायमान होना व प्रजनन शक्ति का सक्रिय होना है।
इसी प्रसंग में प्रश्न उपस्थित होता है कि वनस्पतिकायिक जीव अपना आहार किस अंग से करते हैं? इस विषय में निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है-“भंते! किं आई आहारेंति मज्झे आहारेन्ति पज्जवसाणे आहारेंति? गाोयमा! आई पि आहारेंति मझे वि आहारेंति पज्ज्वसाणे वि आहारेंति।"
-जीवाभिगम प्रथम प्रतिपत्ति हे भगवन्! वनस्पतिकायिक जीव क्या आदि से आहार करते हैं? क्या मध्य से आहार करते हैं? क्या पर्यवसान से आहार करते हैं? भगवान
1. मुनिश्री अमोलकऋषिजी ने विक्रमण का अर्थ चलायमान होना लिया है, यह अधिक उपयुक्त लगता