________________
11. धर्म-अधर्म द्रव्य
पूर्व खण्ड में जैनदर्शन में वर्णित 'जीव - तत्त्व' के विविध पक्षों को विज्ञान की कसौटी पर परखा गया है। अब आगे 'अजीव - तत्त्व' पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जा रहा है। जैनागमों में अजीव के पाँच भेद कहे गये हैं यथा
धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदं सीहिं । ।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 28, गाथा 7 अर्थात् धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल ये पाँच अजीव द्रव्य तथा एक जीव द्रव्य को मिलाकर कुल छह द्रव्य रूप यह 'लोक' है।
साधारणतया ‘धर्म’ शब्द कर्त्तव्य, गुण, स्वभाव, आत्म-शुद्धि के साधन व पुण्य अर्थ में तथा 'अधर्म' शब्द दुष्कर्म व पाप अर्थ में प्रयुक्त होता है परंतु प्रकृत में धर्म-अधर्म ये दोनों ही शब्द इन अर्थों में प्रयुक्त न होकर जैनदर्शन के विशेष पारिभाषिक शब्दों के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। ये दोनों ही दो मौलिक अजीव द्रव्यों के सूचक हैं जिनका स्वरूप जैनदर्शन में इस प्रकार है
दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगं दव्वं, खित्ताओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ णासी न कयाइ ण भवइ, ण कयाइ न भविस्सइ त्ति, भुवि भवइ