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12. आकाशास्तिकाय
जैन दार्शनिकों ने जिस प्रकार गति और स्थिति के माध्यम के रूप में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है, उसी प्रकार उन्होंने स्थान देने रूप अवगाहन के लिए आकाश द्रव्य का माध्यम स्वीकार किया है। जीव और पुद्गल द्रव्यों में गति और स्थिति की योग्यता स्वभावत: होती है। फिर भी इनकी गति और स्थिति रूप क्रियाओं में धर्म एवं अधर्म रूप माध्यमों की सहायता अपेक्षित होती है। इसी प्रकार पदार्थों के स्थान ग्रहण रूप अवगाहन की योग्यता स्वभावत: होती है। फिर भी इन अवगाहन क्रिया के लिए आकाश रूप माध्यम की सहायता अपेक्षित होती है। इस दृष्टि से जैन दार्शनिकों के अनुसार अन्य द्रव्यों की भाँति ‘आकाश' भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है। आकाश का वर्णन करते हुए आगमकार कहते हैंभायणं सव्व दव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 28, गाथा 9 दुविहे आगासे पण्णते तं जहा-लोगागासे च अलोगागासे चेव।
-स्थानांग सूत्र, स्थान 2, उद्देशक 2 अर्थात् धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल ये पाँच अजीव द्रव्य तथा एक जीव द्रव्य को मिलाकर कुल छह द्रव्य रूप यह 'लोक' है।