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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य भविस्सइ य, धुवे णियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे भावओ अवन्ने अगंधे अरसे अफासे, गुणाओ गमणगुणे य। अधम्मत्थिकाए-अवण्णे एवं चेव नवरं गुणाओ, ठाणगुणे। -स्थानांग सूत्र, स्थान 5, उद्देशक 3, सूत्र 1
अर्थात् धर्मास्तिकाय द्रव्य से एक, क्षेत्र से लोक प्रमाण, काल से भूत, भविष्य व वर्तमान इन तीनों कालों में विद्यमान, ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित; भाव से वर्ण, गंध, रस व स्पर्श रहित, गुण से गमन गुण वाली है। अधर्मास्तिकाय गुण से स्थिर गुण वाली है। इसके शेष सब लक्षण धर्मास्तिकाय के समान ही हैं।
धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल द्रव्य की गति में किस प्रकार सहायभूत होती है, इस विषय में कहा गया है
ण य गच्छदि धम्मत्थो गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदि गदिस्सप्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।। उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए। तह जीव पुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।।
-पञ्चास्तिकाय, 88 और 85 अर्थात् धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलती है और न किसी को चलाती है। वह तो गतिमान जीव और पुद्गलों की गति में केवल माध्यम रूप से साधनभूत है। जिस प्रकार जल मछलियों के लिए गति में अनुग्रहशील है, उसी प्रकार धर्म द्रव्य, जीव और पुद्गलों के लिए अनुग्रहशील है।
___ धर्मास्तिकाय गति में प्रेरक कारण न होकर सहकारी कारण है। जिस प्रकार बिजली के तार बिजली को, रेल पटरी रेल को चलने के