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धर्म-अधर्म द्रव्य
177 लिए प्रेरित नहीं करते हैं, उदासीन व मूक सहायक होते हैं। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी गति-क्रिया में निष्क्रिय माध्यम का काम करती है। उदासीन व सहकारी कारण बनती है।
विश्व के समस्त द्रव्यों के हलन-चलन का कारण धर्मास्तिकाय ही है। इसका वर्णन करते हुए आगम में कहा है
धम्मत्थिकाएणं भंते! जीवाणं किं पवत्तइ? गोयम! धम्मत्थिकाएणं जीवाणं आगमण-गमण-भासुम्मेस-मणजोग, वइजोगा-कायजोगा-जे यावण्णे तहप्पगारा चला भावा सब्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति।
-भगवती शतक 13, उद्देशक 4, सूत्र 14 हे भगवन्! धर्मास्तिकाय से जीवों का क्या प्रवर्तन होता है? भगवान फरमाते हैं कि-हे गौतम! धर्मास्तिकाय से जीव का आगमन, गमन, बोलना, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और अन्य भी ऐसे सब चलन स्वभाव वाले कार्य होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि मनोवर्गणाओं व भाववर्गणाओं जैसे अति सूक्ष्म पुद्गलों के प्रसारित होने में भी धर्मास्तिकाय को निमित्त कारण माना गया है।
आगम में निरूपित उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि 'धर्मास्तिकाय' वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से रहित है। अत: यह भौतिक द्रव्य नहीं है। एक है अर्थात् अखण्ड-अविभाज्य है। लोक-प्रमाण है अर्थात् केवल लोक में परिव्याप्त है। अविभागी है तथा गतिमात्र में सहायक है।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी एक ऐसे द्रव्य को ढूँढ़ा है जो उपर्युक्त धर्मास्तिकाय द्रव्य से समता रखता है। इसका नाम 'ईथर' (Ether) है। ईथर और जैनदर्शन में कथित धर्म-द्रव्य के गुणों में इतना अधिक साम्य