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वनस्पति में संवेदनशीलता
107 रक्षात्मक प्रयत्न करती हैं। श्री जगदीशचन्द्र बसु ने यंत्रों की सहायता से स्पष्ट दिखाया कि वनस्पति के अंग पर प्रहार होते ही या संहार का खतरा उपस्थित होते ही वह थर-थर काँपने लगती है-उसके रोएँ खड़े हो जाते हैं। छुई-मुई वनस्पति पर तो भय का प्रभाव बिना यंत्रों के भी देखा जा सकता है। उसके किसी अंग को अंगुली छू जाय तो वह भयभीत हो जाती है और रक्षा के लिए सारे शरीर की पत्तियों को सिकोड़ कर अपने सब अंग ढक लेती है। कश्मीर में 'जवागल' नामक वनस्पति होती है। हथेली पर रखते ही यह ज्वर-पीड़ित मनुष्य की तरह काँपने लगती है।
जिस प्रकार मनुष्य अपने शत्रुओं से बचने के लिए विविध उपाय काम में लेता है, ठीक उसी प्रकार पौधे भी अपने शत्रुओं से बचने के लिए विविध उपाय काम में लेते हैं। बिच्छू जाति का पौधा अपनी रक्षा पत्तियों के रोओं से करता है। इन पौधों को छूने व खतरा पहुँचाने वाले व्यक्ति की खाल में ये रोएँ चुभकर एक प्रकार का विष फेंकते हैं जो जलन पैदा करता है। उससे असह्य पीड़ा होती है। फलत: व्यक्ति उसे छोड़ देता है
और पौधा खतरे से छुटकारा पा जाता है।' चमचमी नामक वनस्पति कोजो प्रायः तालाब के किनारे पैदा होती है-छूने से छूने वाले व्यक्ति के सारे शरीर में खुजली चलने लगती है अत: व्यक्ति इससे दूर ही रहते हैं और यह भी खतरे से परे रहती है। ‘काक-तुरई' अपनी रक्षा दुर्गन्ध से करती है। इसे छू लेने से बहुत समय तक हाथ से दुर्गन्ध नहीं जाती है। इसलिए इसे छूना कोई पसन्द नहीं करता है। हाथी थूहर के काँटे तो इतने तीक्ष्ण होते हैं कि स्पर्श मात्र से ही ऐसा अनुभव होता है मानो किसी ने सूइयाँ चुभोई हों, साथ ही जलन भी इतनी पैदा करते हैं मनुष्य की तो क्या बात, पशु भी उसके निकट जाने का साहस नहीं कर पाते हैं।
1. नवनीत, जुलाई 1957, पृष्ठ 57