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वनस्पति में संवेदनशीलता
135 ___ यहाँ ज्ञातव्य यह है कि जैन-आगम वनस्पति में मति-श्रुतज्ञान तो मानते हैं, परंतु उसमें मन-मस्तिष्क नहीं मानते हैं। यह बात सामान्य विचार से बड़ी अटपटी-सी लगती है, परंतु विकासवाद के प्रतिपादक प्रसिद्ध विद्वान् ‘डार्विन' के उपर्युक्त इस मन्तव्य से कि उद्भिजों के दिमाग नहीं होता है फिर भी वे बड़ी सूझ-बूझ पूर्वक कदम उठाते हैं, जैनागमों की उक्त मान्यता का पूर्ण समर्थन हो जाता है।
इस प्रकार जैनागमों में प्रतिपादित इस सिद्धांत का कि 'वनस्पति में मतिश्रुत ज्ञान है, विज्ञान पूर्णरूपेण समर्थन करता है। अब वनस्पति में अनाकार उपयोग (दर्शन) के विषय पर विचार किया जाता है
___ पुढविकाइयाणं भंते! अणागारोवओगे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! एगे अचक्खुदसणअणागारोवओगे पण्णत्ते, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं।
-पन्नवणा पद 29, सूत्र 4 भगवन् ! पृथ्वीकाय में अनाकार उपयोग कितने हैं ? गौतम ! पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यंत तक एक ही 'अचक्षुदर्शन' होता है।
अचक्षुदर्शन-देखने की शक्ति को दर्शन कहा जाता है। अचक्षुदर्शन से अभिप्रेत है चक्षु इन्द्रिय के बिना भी स्पर्शन आदि अन्य इन्द्रियों के माध्यम से वस्तु एवं उसके आकार-प्रकार को देखना। वनस्पति में एक ही इन्द्रिय स्पर्शन होती है। अत: वनस्पति को यह दर्शन केवल स्पर्शनेन्द्रिय से ही होता है। इस विषय में वैज्ञानिकों के मन्तव्य कौतूहलजनक हैं तथा जैनागम से कितने मेल खाते हैं, यह ज्ञातव्य है, यथा
एक जर्मन वनस्पति-विज्ञानवेत्ता ने वृक्षों की देखने की शक्ति का पता लगाया है। आँखों का मुख्य कार्य होता है बाहर के जगत् के ज्ञान
जप