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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य पत्तियाँ दिन को खुल जाती हैं और रात को बंद हो जाती हैं। उनका यह कार्य घड़ी के काँटे की तरह बिल्कुल ठीक वक्त पर होता है। जब कोई पौधा ठीक से बढ़ता नहीं या ठीक ढंग से फल नहीं देता है तो इसका कारण 'जैविक घड़ी' में ढूँढ़ा जा सकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के पौधा शरीर-विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. गिरिराज किशोर सिरोही के उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि जिस प्रकार मनुष्य के अनेक रोगों का कारण अन्त:करण की विकृति होती है, उसी प्रकार वनस्पति की रुग्णावस्था का कारण भी उसके सहज ज्ञान या अन्त:प्रेरक शक्ति की विकृति में विद्यमान रहता है।
वनस्पति में व्यक्त होने वाला यह अन्त:प्रेरणा रूप मति-श्रुत ज्ञान किसी-किसी वनस्पति में इतना उच्च स्तरीय होता है कि जिसे जानकर अपने को अत्यधिक विकसित मानने वाला पंचइन्द्रियधारी मानव भी दाँतों तले अंगुली दबाने लगता है। दिक्, काल व भविष्य सूचक ऐसी ही विलक्षण ज्ञानधारी वनस्पतियों में से कुछ के उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं।
'डार्विन का कहना है कि उद्भिजों के दिमाग नहीं है।' इतनी बात तो प्रत्यक्ष है ही कि जड़ें कहीं झुकती हैं, कहीं हटती हैं, कहीं जरा ऊपर की ओर चल पड़ती हैं, तो कभी फिर नीचे की ओर जाती हैं और इसका अर्थ हुआ कि धरती के भीतर जड़ें काफी सोच-विचार के साथ अपने भोजन की तलाश करती हैं। शोधों से यह प्रमाणित हो चुका है कि जड़ का रेशा बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखता है। जहाँ खतरे की आशंका हुई वहाँ से वह हट जाता है, कड़ी जमीन पाकर मुड़ जाता है तथा नमी पाकर चाव से आगे बढ़ता है।
1. दिनमान, 6 अगस्त 1967, पृष्ठ 28-29 2. नवनीत, जुलाई 1957, पृष्ठ 52