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वनस्पति में संवेदनशीलता
117 है और यह अपने भविष्य व भावी संतान की सुरक्षा, सुविधा के लिए सामग्री व सम्पत्ति संचित करती हैं।
कषाय
जैन ग्रन्थों में प्रयुक्त 'कषाय' शब्द अपना विशेष पारिभाषिक अर्थ रखता है, यथा
सुख-दुक्ख सुबहुसस्सं कम्मक्खेतं करोदि जीवस्स। संसार-दूरमेरं तेण कसाओत्ति णं वेति।।
-गो.जी. 282, धवला 1-1-4 जीव के सुख-दुःख रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसार रूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्म रूप खेत का जो कर्षण करता या उसे फल देने योग्य बनाता है, उसे 'कषाय' कहते हैं।
आत्मा को कसने-बद्ध करने वाला कर्म है। कर्म की उत्पत्ति का कारण राग-द्वेष रूप परिणाम-भाव है। अत: राग-द्वेषात्मक परिणाम ही कर्षण रूप कषाय है। कषाय के चार भेद हैं।
चत्तारि कसाया पण्णत्ता तं जहा कोह-कसाए, माण-कसाए, मायाकसाए, लोह-कसाए, एवं नेरझ्याणं जाव वेमाणियाणं।
-स्थानांग श्रुत 1, अध्ययन 4, उद्देशक 1, सूत्र 18 कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। ये चारों ही कषाय नारक जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक अर्थात् सर्व संसारी जीवों में पाये जाते हैं। अत: वनस्पति में भी कषाय के ये चारों ही भेद माने गये हैं।
क्रोध कषाय-जिस प्रकार मनुष्य, पशु आदि अन्य प्राणी कुपित व हर्षित होते हैं, उसी प्रकार वनस्पतियाँ भी कुपित व हर्षित होती हैं। सूडान