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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य होती है। घी-कुँवार जाति के पौधे फूलने से पहले वर्षों तक बढ़ते रहते हैं और अपनी जड़ों में भविष्य के लिए आवश्यक सामग्री का संचय करते हैं। इस कार्य में इन पौधों को अत्यन्त सावधानी व धैर्य का परिचय देना पड़ता है। बाद में फल पैदा करने के लिए जब एकाएक शक्ति की आवश्यकता पड़ती है तो वे अपनी संचित शक्ति का आसानी से उपयोग कर लेते हैं। शक्ति संचय में काफी समय लगता है और इसी से ये पौधे शीघ्र नहीं फूलते। बड़ी प्रसिद्ध कहावत है कि घी-कुँवार वर्षों में एक बार फूलता है।
जैसे कुछ मनुष्य लोभ के वशीभूत हो, जिस हांडी में खाते हैं उसी में छेद करने वाले होते हैं अर्थात् जिनसे पलते हैं उन्हीं का व्यवसाय व संपत्ति छीनने वाले होते हैं। परिणामस्वरूप पालक याचक बन जाता है
और याचक पालक। इसी प्रकार कुछ वनस्पतियाँ भी ऐसी होती हैं जो अपने आश्रयदाता पालक को हटाकर स्वयं ही वहाँ जम जाती हैं। पीपल, बरगद आदि में यह प्रकृति विशेष देखी जाती है। कलकत्ता के 'बोटानिकल गॉर्डन' में एक बरगद का पौधा ताड़ के वृक्ष पर याचक के रूप में उगा। धीरे-धीरे उसने ताड़ को बर्बाद कर उसके स्थान पर अपना आसन जमा लिया। आज उस स्थान पर ताड़ का पेड़ नहीं, बरगद का पेड़ है।
आलू, बैंगन, आदि पौधों में लगने वाला गठवा रोग भी और कुछ नहीं, एक वनस्पति द्वारा डाला गया डाका है। यह वनस्पति अपनी जड़ें जमीन के अंदर दूसरे पौधे के पास पहुँचती है और उसकी पोषण-सामग्री का शोषण कर स्वयं पुष्ट बनती है।
तात्पर्य यह है कि वनस्पति में भोगेच्छा, कांक्षा, संग्रहवृत्ति, शोषण आदि लोभ के रूप विद्यमान हैं।
1. नवनीत, जुलाई 1957