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वनस्पति में संवेदनशीलता
119 विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके जीवन-रक्षा करते हैं। जहाँ सहायता मिल सकती है वहाँ वे पारस्परिक सहायता करते और एक-दूसरे का आश्रय लेते हैं। जहाँ सहायता सहज में नहीं मिलती वहाँ लता वृक्ष के सहारे पनपती है, एक से दूसरा पौधा पोषण पाता है। जहाँ सहायता सहज में नहीं मिलती वहाँ बरबस ली जाती है। आत्म-रक्षा के लिए आपस में रगड़ा-झगड़ा भी होता है-एक-दूसरे का वे नाश भी करते हैं।"
___ मान-जैनदर्शन मनुष्य के समान वनस्पति में भी कषाय मानता है। समवायांग सूत्र में मान के रूपों का वर्णन करते हुए कहा है
___“माणे, मदे, दप्ये, थंभे अत्तुक्कोसे, गव्वे, परपरिवाए, अक्कोसे, अवक्कोसे, उन्नए, उन्नामे"
-समवायांग, 52 अर्थात् मान, मद, दर्प, स्तंभ, आत्मोत्कर्ष, गर्व, परपरिवाद, आक्रोश, अपकर्ष, उन्नत और उन्नाम ये ग्यारह मान के अभिधान हैं। संक्षेप में कहा जाय तो धन-धान्य आदि पर-पदार्थों व गुणों में अहंत्व भाव होना ही 'मान' है; जैसे धन होने से अपने को धनी मानना, विद्या से अपने को विद्वान् मानना आदि। मानी व्यक्ति की संपत्ति में अहंत्व वृद्धि होती है। अत: सम्पत्ति के विस्तार में अपना विस्तार व उत्कर्ष मानता है। यही कारण है कि मानी प्राणी में तन, धन, जन आदि संपत्ति के विस्तार की बड़ी भूख होती है। संपत्ति के विस्तार से उसके अहंकार का पोषण होता है और फिर यह अहंकार गर्व, मद, उन्मत्तता आदि रूप धारण करता है। मान के ये रूप वनस्पति में भी पाये जाते हैं।
जिस प्रकार मनुष्य धन से सम्पन्न होता है तो गर्व से फूला नहीं समाता है उसी प्रकार पौधे भी फूलों से सम्पन्न होते हैं तो प्रफुल्लित हो, 1. नवनीत, जुलाई 1957, पृष्ठ 52