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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य हैं। इन शाखाओं पर मोटी, चिकनी व लम्बी पत्तियाँ होती हैं। पत्तियों की लम्बाई तीन फुट से भी अधिक तक होती है। प्रत्येक पत्ती का सिरा पतला होकर धागे के रूप में हो जाता है। यह धागा किसी दूसरे पेड़ या किसी अन्य वस्तु के चारों ओर लिपट जाता है। इस धागे से लटका हुआ एक खोखले घड़े-सा फूल होता है। घड़े का मुँह सदा ऊपर की ओर रहता है तथा उसके मुंह पर एक ढक्कन होता है। मुँह के पास से एक मीठा रस निकलकर उसके चारों ओर लगा रहता है। पौधा अपने इसी रस से या कभी-कभी अपनी गंध से कीड़े-मकोड़ों को आकृष्ट करता है। बेचारा कीड़ा स्वाद व गंध के वशीभूत हो फूल के मुँह द्वार तक पहुँच जाता है। घड़े की मुँह की सतह अंदर की ओर बहुत चिकनी व फिसलनदार होती है। इस कारण कीड़ा जैसे ही घड़े के मुँह पर बैठता है फिसलकर घड़े के भीतर जिसे मौत का कुआँ ही कहना चाहिए, गिर जाता है और अपने को एक पेटी में, जिसका कुछ भाग पाचक तरल पदार्थ से भरा रहता है, बंद पाता है। कीड़ा ऊपर की ओर आने का यत्न करता है तो नीचे की
ओर झुके हुए नुकीले बाल उसके इस यत्न को निष्फल कर देते हैं। कीड़ा मृत्यु-कूप के तरल पदार्थ में गोते खाने लगता है और प्राण दे देता है। फिर यह तरल पदार्थ उसे पचाकर पौधे का भोजन बना देता है।
सनड्यू या ड्रासरा (Sundew or Drasara)-यह वनस्पति भी धोखेबाज वनस्पतियों में से एक है। ऐसे तो इसका पौधा प्रायः संसार के प्रत्येक महाद्वीप में पाया जाता है परंतु भारत के चटगाँव व पूर्वी बंगाल के जगंलों में विशेष रूप पाया जाता है। इसके फूल नहीं, पत्तियाँ चित्ताकर्षक होती है। यह पौधा कुछ इंच ही ऊँचा होता है और इस पर पत्तियों के गुच्छे निकले रहते हैं जिन्हें टेंटेकिल (Tantacles) कहते हैं।