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वनस्पति में संवेदनशीलता प्रयत्नशील रहती है। जिस प्रकार जीव-जन्तु प्रजनन द्वारा अपनी जाति या वंश का विस्तार करते हैं, उसी प्रकार वनस्पतियाँ अपने वंश का शीघ्रता से विस्तार कर अपना उत्कर्ष देखना चाहती हैं। उदाहरणार्थ 'आधाशीशी का डोडा' वनस्पति को ही लीजिये। एक समय था जब इसका डोडा बड़ी कठिनाई से मिलता था और बड़ा महंगा बिकता था। परंतु कुछ समय पूर्व इसने अपने वंश का विस्तार करना प्रारंभ किया और अल्प काल में ही अपने जंगल के जंगल खड़े कर लिए। इसका यह विस्तार विस्मयकारी था। जहाँ कहीं भी इसे यत्किंचित् भी खाली जमीन मिली, इसने अपनी जड़ें जमायीं और फैलकर उस पर अपना ऐसा साम्राज्य स्थापित किया जिसमें मानव भी प्रवेश करते हुए हिचकता था।
राजस्थान के अनेक भूभागों का तो यह हाल था कि उनमें स्थित पर्वत, खेत, पड़त भूमि आदि पर जहाँ कहीं भी दृष्टि पड़ती थी यह वनस्पति अपने विस्तार के गर्व से उन्मत्त हो झूमती दिखाई देती थी।
__जीव-जंतु के समान वनस्पतियाँ भी अपनी वंश-वृद्धि के लिए विविध व विलक्षण उपाय काम में लेती हैं। अनेक वनस्पतियों के बीजों के पंख होते हैं जिनसे वे उड़कर दूर-दूर पड़कर वंश का विस्तार करते हैं। ब्राजील के वृक्ष 'हुराक्रेपिटान्स' की तो अपने वंश-विस्तार की विधि बड़ी विचित्र हैं। इसके टेनिस बाल जितने बड़े फल का शुष्क काष्ठ सरीखा आवरण अचानक फूटता है। फूटने की ध्वनि आधा मील दूर तक सुनाई देती है और फलों में से पके बीज उछलकर दूर-दूर तक पहुँचते हैं।
विस्तार के भूखे वृक्षों में से 'वट' भी एक है यह अपनी डालियों से शाखाएँ फेंकता है जो भूमि पर अपने पैर जमाकर तना व जड़ का रूप ले लेती हैं। इस प्रकार बरगद अपना विस्तार करता हुआ आगे से आगे