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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य हैं और आँखों के आस-पास के चारों ओर का भाग पौधों के द्वारा इनके लिए संचय की हुई भोजन सामग्री है। उसका सेवन कर ये संताने अर्थात् नये पौधे उसी प्रकार जीते व बढ़ते हैं, जिस प्रकार बालक माता का दूध पीकर जीते व बढ़ते हैं। ये आँखें ही इनकी संताने हैं, यह इसी से सिद्ध हो जाता है कि आलू या अदरक के जिस टुकड़े को बोया जाता है, उसमें यदि आँखे विद्यमान हैं तो वह टुकड़ा नवीन पौधे का रूप ले लेता है, अन्यथा नष्ट हो जाता है।
कृपण व्यक्तियों के समान जलघनिया आदि कुछ वनस्पतियाँ भी कृपण होती हैं जो अपने लिए कुछ भी खर्च न कर सब कुछ अपनी संतान के लिए ही छोड़ जाती हैं तथा जिस प्रकार सभी मनुष्य अपने व अपनी संतान के लिए समान रूप से संग्रह नहीं कर पाते हैं, इसी प्रकार सब वनस्पतियाँ भी समान रूप से संग्रह नहीं कर पाती हैं। पीपल, पोस्ता, चना, मूंग आदि वनस्पतियाँ संतान के लिए बहुत ही कम भोजन सामग्री का संग्रह छोड़ जाती हैं। अतः इनके पौधे बीज से बाहर निकलते ही शीघ्र हरे हो जाते हैं और भोजन-प्राप्ति के लिए स्वयं परिश्रम करने लगते हैं। जिस प्रकार कुछ व्यक्ति बड़े निर्धन होते हैं वे अपनी संतान के लिए कुछ भी नहीं छोड़ जाते हैं, उसी प्रकार दूब आदि के पौधे बड़े निर्धन होते हैं
और संतान के लिए कुछ नहीं जोड़ते व छोड़ते हैं। ऐसे पौधे अपनी वंशवृद्धि के लिए एक विशेष रीति काम में लेते हैं। ये अपने तने भूमि पर फैलाते हुए बढ़ते हैं। इस प्रकार नवीन पौधे भोजन सामग्री के भंडार के अभाव में भी अपना पोषण बिना अधिक श्रम किये कर लेते हैं।
अभिप्राय यह है कि वनस्पति-विज्ञान ने प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि मानव के समान ही वनस्पति में भी परिग्रहसंज्ञा विद्यमान