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वनस्पति में संवेदनशीलता का कथन है-हे गौतम! वनस्पतिकायिक जीव आदि (जड़ कंद) से आहार करते हैं, मध्य (तना, शाखा, प्रशाखा आदि) से आहार करते हैं तथा अंत (फूल-पत्ते आदि) से आहार करते हैं।
इसी प्रसंग में ऊपर कहा गया है कि वनस्पति “सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति" अर्थात् सब प्रदेशों में आहार करती है। इससे यह फलित होता है कि आगमकार, वनस्पतिकायिक जीवों द्वारा जड़, कंद, स्कंध, शाखा, प्रशाखा, फूल, पत्ते आदि सारे शरीर से आहार करना मानते हैं।
वनस्पति विज्ञान में भी इसका स्पष्ट व विस्तृत विवेचन है कि वनस्पति अपने सारे शरीर से आहार करती है। वनस्पति अपने मूल रोमों द्वारा खनिज पदार्थों के विलयन व जल आदि तरल पदार्थों का आहार करती है। स्कंध, शाखा, प्रशाखा, पत्तों आदि अन्य अंगों के पर्णशाद द्वारा वह प्रकाश में बाहरी वातावरण से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड आदि अन्य गैसों का आहार करती है। वनस्पति द्वारा प्रत्येक अंग से आहार लेने की प्रक्रिया का वनस्पति-शास्त्र में विस्तार से वर्णन है। तात्पर्य यह है कि वनस्पति अपने सब अंगों से, सारे शरीर से आहार करती है। यह बात वनस्पति विज्ञान में खोज का विषय न रहकर सिद्धांतत: स्वीकार कर ली गई है।
जैन-शास्त्रों में सामान्यतः आहार तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-(1) प्रक्षेपाहार, (2) रोमाहार और (3) ओजाहार। इनकी व्याख्या इस प्रकार से की गई है
सरीरेणोयाहारो, तयाइ फासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण कवलिओ होइ नायव्वो।।
-सूत्रकृतांग सूत्र, 2 अध्ययन, 3 नियुक्ति