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वनस्पति में संवेदनशीलता
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आहार करते हैं, उनका 'चय' करते हैं, जिन पदार्थों का आहार नहीं करते हैं उनका चय नहीं करते हैं तथा जिन आहारों का चय किया है उसका सार भाग शरीर-इन्द्रिय रूप परिणमता है और असार भाग का निहार या विसर्जन हो जाता है । '
यहाँ सूत्र में आया 'चिज्जंति' शब्द उल्लेखनीय है । 'चिज्जंति' शब्द चय अर्थ का द्योतक है। चय का अभिप्राय है अभीष्ट पदार्थों को चुनकर संचय करना। इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि वनस्पति अपने संसर्ग में आए सभी पदार्थों को भोजन रूप में ग्रहण नहीं करती है अपितु उनमें से आहार योग्य पदार्थों का ही चयन कर उनका ग्रहण या संचय करती है। आहार के अयोग्य पदार्थों का चयन या संचय नहीं करती है - उन्हें छोड़ देती है। वनस्पति की इस विलक्षण चय शक्ति को वनस्पति विशेषज्ञ भी स्वीकार करते हैं। उन्होंने प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि यदि मिट्टी में सोडियम और पोटेशियम दोनों ही पदार्थ सम मात्रा में मिले हों तब भी वनस्पति सोडियम की अपेक्षा अपने रुचिकर भोज्य पदार्थ पोटेशियम का ही अधिक संचय करती है।
आगम के उपर्युक्त कथन में से यह पहले दिखाया जा चुका है कि वनस्पति विविध द्रव्यों के स्कंधों का आहार करती है। उस आहार का सार भाग शरीर रूप परिणमता है तथा शेष रहा हुआ निस्सार भाग दूषित मल के रूप में शरीर से बाहर निकलता है । मल विसर्जन की यह क्रिया वनस्पति में उत्स्वेदन के रूप में होती है। इसके विषय में कहा है- “ जिस प्रकार लोग अपने शरीर से पसीने के रूप में पानी निकालते हैं, उसी प्रकार पत्तियों की सतह से पानी वाष्प बनकर उड़ा करता है । वृक्ष जड़ों द्वारा मिट्टी से पानी
1. भगवती सूत्र खण्ड 4, पृष्ठ 81 (पं. बेचरदासजी के अर्थ का हिन्दी अनुवाद)