________________
जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य रहने के लिए न भोजन की आवश्यकता है, न वायु की। वे बिना किसी यान के अन्तर्ग्रहीय यात्राएँ कर सकते हैं। ‘प्लैवोवेक्टिन' जीवाणुओं पर अधिक ताप और शीत का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये अवातजीवी हैं। इनका भोजन भास्वीय है।"1
जैनागमों में इसी से मिलता-जुलता वर्णन सूक्ष्म, स्थावर व निगोद के जीवों का आता है। केवल विचारणीय है तो जन्म-मरण न होने का विषय है। इसे समझने के लिए दर्शन में वर्णित एक विलक्षण तथ्य को ध्यान में लाना होगा और वह तथ्य यह है कि जैनदर्शन निगोद के शरीर के जन्म-मरण से निगोद के जीवों का जन्म-मरण नहीं मानता है अपितु उस शरीर के ज्यों के त्यों विद्यमान रहते हुए भी उस शरीर में स्थित अनन्त जीवों का जन्म-मरण निरंतर होता रहना मानता है। इस दृष्टि से यदि वैज्ञानिकों को इन सूक्ष्मतम जीवों के शरीर नष्ट होते नजर न आये हों और इसलिए उनमें जन्म-मरण न माना हो तो इससे जैनागमों से कोई असंगति नहीं होती, प्रत्युत् समर्थन ही होता है। वैज्ञानिकों द्वारा इन जीवों को एक ओर तो अनाहारी मानना और दूसरी ओर भास्वीय आहारी मानना जैनदर्शन की इस मान्यता को पुष्ट करने वाला है कि सूक्ष्म-निगोद के जीव आहारी हैं।
जैनागमों में निरूपित सूक्ष्म स्थावर जीवों की तुलना बैक्टेरिया जीवों से की जा सकती है। बैक्टेरिया जीवों के विषय में वैज्ञानिकों का कथन है कि-"ये कीटाणु इतने छोटे होते हैं कि सूक्ष्म-दर्शक-यन्त्र से भी इनका पता लगाना कठिन है। संसार में कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ ये न हों। ये कीटाणु हर किस्म के पानी में, हवा में, हर ऊँचाई पर, जमीन की गहराई
1. नवनीत, जून 1963, पृष्ठ 59-60