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जैसे अनेक सरसव के दानों को गुड़ में मिलाकर उसका लड्डु बनावें, वह लड्डु एक पिंड रूप में रहता है। इसमें सरसव के सब दाने पृथक्-पृथक् रहते हैं वैसे ही बाह्य से एक पिण्ड रूप दिखने पर भी जो जीव अपना शरीर या व्यक्तित्व पृथक्-पृथक् रखते हैं, वे प्रत्येक शरीरी कहलाते हैं। अप्काय में प्रत्येक शरीरी जीवों का वर्णन करते हुए आगम में कहा है
अप्काय
........ परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसे! जीवाभिगम, प्रथम प्रत्तिपत्ति सूत्र 17
अर्थात् अप्काया से प्रत्येक शरीर जीव असंख्यात हैं। इसका समर्थन जल के विषय में अनुसंधान करने वाली " कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी' के इस मन्तव्य से होता है कि - " सामान्य जल में सभी जलकण आपस में पूरी तरह नहीं मिल पाते हैं और उनके मध्य बहुत-सी सूक्ष्म संधियाँ रह जाती हैं। पानी के भीतर तेज गति वाले पंखों के घूमने के फलस्वरूप ये संधियाँ चौड़ी तथा गहरी हो जाती हैं। इन्हीं संधियों में पानी की भाप से युक्त बुलबुलों का जन्म होता है। इन बुलबुलों के उठने की प्रक्रिया के फलस्वरूप पानी के नलकों में छेद हो जाते हैं और बड़े-बड़े बाँधों में लगे विशाल फाटक तक गल जाते हैं। " तात्पर्य यह है कि जलकण पिंड में एक होने पर भी अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखते हैं।
वस्तुतः वैज्ञानिकों की दृष्टि से जल उतना सामान्य पदार्थ नहीं है जितनी की इसके प्रति साधारण जन ने धारणा बना रखी है। जल के अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिकों का कथन है- “ आज भी हिमकणों, जल के स्वरूप, प्यास इत्यादि के संबंध में वैज्ञानिक लोगों को बहुत कम जानकारी है। कई दशाब्दियों से निरंतर प्रयत्न जारी रहने के बाद भी, जल के