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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य का नाम “एसे-तुकी” अर्थात् जीवन-जल, दूसरे स्रोत का नाम नारजान अर्थात् शक्ति जल है।
ऊपर कहा गया है कि प्रत्ये प्रकार का जल अपनी विशेषता रखता है। ये ही विशेषताएँ वैज्ञानिकों की भाषा में "रासायनिक प्रक्रियाएँ" नाम से कही जाती हैं। विभिन्न प्रकार के जलों के अनुसंधानकर्ता आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि-"जल की रासायनिक प्रक्रियाएँ इतनी असामान्य है कि आज तक कोई भी वैज्ञानिक इनका सही उत्तर नहीं दे पाया।"1
जैसे पृथ्वीकाय के जीवों की प्रकृति का प्रभाव मानव-स्वभाव पर पड़ता है; उसी प्रकार जलकाय के जीवों की प्रकृति का प्रभाव भी मानवस्वभाव पर पड़ता है। किसी कूप, वापी, सर, सरिता, स्रोता या निर्झर के पास निवास करने, बैठने, नहाने व पानी पीने से पड़ने वाले मानसिक प्रभाव से सभी परिचित हैं। कहावत ही बन गयी है कि-"जैसा पीवे पानी वैसी होवे बानी” अर्थात् जैसा जल पीया जाता है मनुष्य की वैसी ही बानी-वाणी या प्रकृति होने लगती है। साधारणतः हमें जल एक पिण्ड रूप में दिखाई देता है परंतु वस्तुतः वैसा है नहीं। जैसे पार्थिव पदार्थों (पृथ्वीकाय) के कण पिंड रूप में एक होकर भी निज रूप में पृथक्-पृथक् होते हैं, वैसे ही जल के कण पिण्ड रूप में एक होकर भी पृथक्-पृथक् होते हैं। ऐसे पृथक् शरीरधारी जीव किसी पिंड में सामूहिक रूप में कैसे रहते हैं, इसको समझाते हुए आगम में कहा है
“जह सगलसरिसवाणं पत्तेय-सरीराणं गाहा॥" जह वा तिलसक्कुलिया गाहा से तं पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया
-जीवाभिगम, प्रथम प्रत्तिपत्ति सूत्र 20
1. नवनीत, जुलाई 1959