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वनस्पति में संवेदनशीलता मिलाने, यंत्र द्वारा छेदने से प्रासुक अर्थात् निर्जीव हो जाती है। आधुनिक वैज्ञानिक भी वनस्पति को निर्जीव करने के लिए उबालना आदि उपर्युक्त क्रियाओं का उपयोग करते हैं।
तात्पर्य यह है कि वनस्पति भी अन्य प्राणियों के समान संवेदनशील होती है तथा काटने, छेदने, आघात पहुँचाने आदि से वह घायल हो जाती है एवं मर जाती है। अतः हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम जिस प्रकार मनुष्य, पशु, कीट, पतंग आदि जीवों की रक्षा करते हैं उसी प्रकार वनस्पति के जीवों की भी यथा संभव रक्षा करें।
ऊपर वनस्पति विषयक जिन सूत्रों को विज्ञान सम्मत सिद्ध किया गया है उनमें से एक भी सूत्र विश्व के अन्य किसी दर्शन ग्रंथ में नहीं मिलता है तथा ये सूत्र विज्ञान के जन्म के पूर्व असंभव समझे जाते थे। इन सूत्रों की रचना जैन आगमकारों ने भौतिक विज्ञान के जन्म से हजारों वर्ष पूर्व की थी। अत: यह कहा जाय तो अत्युक्ति या अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वनस्पति के अनेक सूत्रों के मूल प्रणेता जैन आगमकार ही थे। सजीवता
विज्ञान जगत् में वनस्पति को सजीव सिद्ध करने वाले वैज्ञानिकों में सर्वप्रथम नाम श्री जगदीशचन्द्र बसु का आता है। उन्होंने सन् 1920 ईस्वी में वनस्पति में चेतना अभिव्यक्त करने वाले ऐसे यन्त्रों की रचना की जो पौधों की गतिविधि को एक करोड़ गुणे बड़े रूप में दिखाते थे। साथ ही इनसे समय का बोध भी एक सैकेण्ड के सहस्रवें भाग तक होता था। ये यन्त्र स्वयंलेखी थे। इनसे पौधों की गतिविधि की क्रिया, प्रतिक्रिया, प्रक्रिया, स्वत: अंकित होती थी। इन यन्त्रों से उन्होंने स्पष्ट रूप से यह सिद्ध कर दिखाया कि वनस्पतियों और प्राणियों के तंतुओं पर नींद, ताप, वायु, आहार आदि का प्रभाव बहुत कुछ तरह का ही पड़ता है।'
1. नवनीत, फरवरी 1957, पृष्ठ 35