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जीव तत्त्व का स्वरूप
रहना ही धर्म-साधना है, धर्म ध्यान है तथा जितना राग-द्वेष कम होता जाता है उतने-उतने दुष्कर्मों (पापों) के स्थिति व अनुभाग
घटते जाते हैं अर्थात् कर्मों की निर्जरा होती जाती है। 12. दर्शन गुण की परिपूर्णता प्रकट होना (केवल दर्शन) ही स्वरूप में
अवस्थित होना है, साध्य को प्राप्त करना है। जीव के प्रकार जीव दो प्रकार के हैंसंसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया
-उत्तराधययन सूत्र अध्ययन 36, गाथा 48 अर्थात् संसारस्थ और सिद्ध दो प्रकार के जीव हैं। सर्वथा कर्मयुक्त आत्मा को सिद्ध कहते हैं और संसार में स्थित आत्मा कर्मों से बँधा होता है उसे संसारस्थ (संसारी) कहते हैं। संसारी जीव दो प्रकार के हैंसंसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया। तसा य थावरा चेव।।
-उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 36, गाथा 68 अर्थात् संसारी जीव दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर। जिसमें जानने, देखने (अनुभव) करने की शक्ति हो, चेतना गुण हो, वह जीव है। जीव के 14 भेद हैं
एगिदिय सुइमियरा, सन्नियर पणिंदिया य सवितिचउ।
अपज्जत्ता पज्जत्ता, कमेण चउदस जिअ ठाणा।
अर्थ-1. एकेन्द्रिय सूक्ष्म, 2. ऐकेन्द्रिय बादर, 3. द्वीन्द्रिय, 4. त्रीन्द्रिय, 5. चतुरिन्द्रिय, 6. असंज्ञी पंचेन्द्रिय और 6. संज्ञी पंचेन्द्रिय इन सात प्रकार के जीवों के पर्याप्ता और अपर्याप्ता कुल 14 प्रकार के जीव हैं।