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जीव तत्त्व का स्वरूप
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यथा-1. सचेतनता, 2. स्पंदनशीलता, 3. शारीरिक गठन, 4. भोजन, 5. वर्धन, 6. श्वसन, 7. प्रजनन, 8, अनुकूलन, 9. विसर्जन, 10. मरण। तदनन्तर इनका प्रयोगात्मक विश्लेषण करके वनस्पति कार्य की सजीवता का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् वनस्पतिकाय के आगमानुसार भेद-प्रभेद को वैज्ञानिक प्रमाण से सिद्ध किया गया है। इसका विस्तृत वर्णन देखने के लिए लेखक की पुस्तक 'विज्ञान के आलोक में जीव-अजीव तत्त्व' का अवलोकन किया जा सकता है।
तत्पश्चात् वनस्पति के भेदों का विवेचन किया गया है। वनस्पति में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह, ये चारों संज्ञाएँ विद्यमान हैं। इनमें आहार संज्ञा पर स्थानांग, जीवाभिगम, पन्नवणापद, भगवती आदि जैन सूत्रों में प्रतिपादित रोमाहार, ओजाहार के उद्धरणों को उदाहरणों से प्रस्तुत किया गया है। इसमें वनस्पति द्वारा वनस्पति का आहार (अमरवेलादि) करती है। भय संज्ञा में वनस्पति द्वारा भयभीत होना और अपनी रक्षा का उपाय करना, मैथुन संज्ञा में गर्भाधान आदि और परिग्रह संज्ञा में वनस्पति द्वारा संग्रह वृत्ति का उदारहण है।
वनस्पति में क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चारों कषाय होने के प्रमाण एवं उदहारण दिए हैं। ‘वनस्पति में उपयोग' प्रकरण में मतिश्रुत ज्ञान, अचक्षु दर्शन आदि में प्रमाण एवं उदाहरण दिए हैं। वनस्पति में कृष्ण, नील, कपोत और तेजस् लेश्याओं के प्रमाण एवं उदाहरण प्रमाण दिए हैं। वनस्पति में आयु (4600 वर्ष के वृक्ष), ऊँचाई 500 फुट, उद्योत नाम कर्म आदि विशेषताओं का वर्णन है। इस प्रकार वनस्पति में सजीवता संवेदनशीलता के प्रमाण एवं उदाहरण में है।
त्रसकाय का है, इसमें कंटक-कवच, राडार मछली, टेलीफोन