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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य बमों का प्रेक्षेपणास्त्रों के निर्माण में जुट रहा है, जिसकी विध्वंसकारी विभीषिकाओं एवं प्रलयकारी आशंकाओं से संसार थर-थर काँप रहा है। यदि समय रहते तथाकथित इस विज्ञान को वास्तविक विज्ञान का रूप न दिया गया तो मानव समाज की वही स्थिति व गति होगी; जो किसी बालक की उसके हाथ में अस्त्र देने से होती है। विश्व के विज्ञ-जन भयभीत है कि मानव अपने ही विज्ञान के हाथों अपना विनाश न कर बैठे।
विज्ञान का कार्य जीवन में सामञ्जस्य व समीचीनता लाकर जीवन का विकास करना है। जीवन का निर्माण आत्मा, मन व तन के योग से हुआ है तथा परिवार, समाज, राज्य धन आदि के साथ इसका संयोग जनित व स्वनिर्मित संबंध है। अतः जो ज्ञान इन सबमें समीचीन सामञ्जस्य स्थापित करता है और समता लाता है, वही वास्तविक विज्ञान है। इसे ही जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान कहा है। सम्यग्ज्ञान का आधार है-भेदविज्ञान, कारण कि जड़चिद् ग्रंथी के भेदन रूप भेद-विज्ञान से ही आभ्यंतरिक शक्तियों का आविर्भाव होता है। जीवन में समता, समीचीनता और लयता आती है तथा सर्व समस्याओं का समाधान होता है। सर्व समस्याओं का समाधान ही समाधि है। समाधि चित्त की शांत स्थिति का, सच्चे आनन्द का अर्थात् सच्चिदानन्द का ही रूप है।
तन, मन, धन आदि जीवन के सब अंगों का वास्तविक आधार आत्मा है। आत्मा के अभाव में जीवन का कोई अर्थ व मूल्य नहीं रह जाता है। शक्ति की दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा अनन्त विलक्षण शक्तियों का भंडार है, मन असीम शक्ति का भंडार है, तन की शक्ति ससीम व स्वल्प है तथा धन आदि भौतिक पदार्थों की शक्ति अत्यल्प है। जीवन में आत्मा, मन, तन व धन की उपयोगिता और महत्त्व का अनुपात