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मंद करने वाला हरिणंदी नाम का राजा था। उनके पीयुषस्यन्दिनी अमृत वृष्टि करने वाली कौमुदी सरीखी जो नाम और दर्शन से प्रियदर्शना नामकी पटरानी थी। चित्रगति का जीव महेन्द्र देवलोक से च्युत होकर उस प्रियदर्शना की कुक्षि में महास्वप्न को सूचित करता हुआ अवतीर्ण हुआ। समयपूर्ण होने पर जिस प्रकार पांडुकवन की भूमि कल्पवृक्ष को जन्म देती है, वैसे ही देवी प्रियदर्शना ने एक प्रियदर्शन पुत्र को जन्म दिया। राजा ने उसका अपराजित नामांकन किया। धात्रियों से लालित वह बालक अनुक्रम से बड़ा हुआ। सर्व कला संपादन करके, यौवनवय प्राप्त होने पर वह कामदेव जैसा पुण्य-लावण्य का समुद्र हुआ। उसका बाल्यवय से ही धूलिक्रीड़ा करने वाला साथ ही अध्ययन करने वाला विमलबोध नामक एक मंत्रीपुत्र उसका परम मित्र था।
(गा. 261 से 268) एक बार वे दोनों ही मित्र अश्वारूढ़ होकर क्रीड़ा करने के लिए बाहर गये। इतने में उनका तीव्रगति वाला अश्व उनका हरण करके बहुत दूर एक महाअटवी में ले गया। वहाँ पहुँच कर वे अश्व शांत होने से खड़े हो गये। अतः वे दोनों एक वृक्ष के नीचे उतरे। राजपुत्र अपराजित ने अपने मित्र विमलबोध से कहा, 'हे मित्र! ये अश्व अपने को हरण करके यहाँ ले आए, वह बहुत अच्छा हुआ नहीं तो अनेक आश्चर्यों से पूर्ण ऐसी पृथ्वी को हम कैसे देखते? यदि हम बाहर जाने की आज्ञा भी मांगते तो अपने विरह को सहन न करने वाले अपने माता-पिता अपने को कभी भी आज्ञा नहीं देते, इससे यह बहुत अच्छा रहा। अपना इन अश्वों ने हरण किया है, अपने माता-पिता को दुःख तो अवश्य लगेगा, परन्तु हम तो यथेच्छ घूम फिर सकेंगे। माता-पिता तो जो हुआ, वह सहन करेंगे। राजपुत्र के इन वचनों को मंत्रीपुत्र ने एवमस्तु कहकर समर्थ किया। इतने में ‘रक्षा करो' 'रक्षा करो' 'बचाओ-बचाओ' कहता हुआ कोई पुरुष वहाँ आया। उसके सारे अंग कांप रहे थे और लोचन व्याकुल हो रहे थे। उसको शरण में आया हुआ देखकर कुमार ने उसे कहा- डरो मत। तब मंत्रीपुत्र ने राजकुमार से कहा- 'तुमने यह सोचे बिचारे बिना बोल दिया, यदि यह पुरुष अन्यायी निकला तो?
(गा. 269 से 276) परन्तु शरणागतों की रक्षा करना तो क्षात्रधर्म ही है, चाहे वह न्यायी हो या अन्यायी, कुमार ने कहा। इतने में तो मारो-मारो, पकड़ो-पकड़ो बोलते हुए
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)