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तत्पश्चात् सुमित्र देव प्रत्यक्ष होकर अत्यन्त हर्ष से बोला- 'हे चित्रगति! तुम मुझे पहचानते हो?' चित्रगति ने कहा- तुम कोई महर्द्धिक देव हो, ऐसा मैं जानता हूँ। पीछे सुमित्रदेव ने पहचानने के लिए अपना मूल रूप बतलाया। चित्रगति उसका आलिंगन करता हुआ बोला- 'हे महामति! तुम्हारे प्रसार से ही मैंने इस निरवद्य जैन धर्म को प्राप्त किया है।' तब सुमित्र ने कहा- 'उससे ही मैं इस समृद्धि को पा सका हूँ। परंतु यदि उस समय पच्चक्खाण और नवकार मंत्र मृत्यु रहित होती तो मैं मनुष्यजन्म भी नहीं पा सकता और इस स्थिति तक भी नहीं पहुंच पाता। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे की प्रशंसा करने वाले दोनों कृतज्ञ मित्रों को देखकर सूर चक्रवर्ती प्रमुख सर्व खेचरेश्वर खूब हर्षित हुए। उस समय रूप और चारित्र से अनुपम ऐसे चित्रगति को देखकर अनंगसिंह की पुत्री रत्नवती काम के बाणों से बिंध गई। अपनी पुत्री को व्याकुल हुई देखकर अनंगसिंह ने विचार किया कि, 'ज्ञानी ने जो पूर्व में कहा था, वह अक्षरशः मिलता आया है। खड्गरत्न हरण कर लिया, पुष्पवृष्टि भी हो गई और मेरी पुत्री को अनुराग भी तत्काल ही उत्पन्न हुआ है। इसलिए ज्ञानी के वचनों के अनुसार यह पुरुष मेरी पुत्री रत्नवती के योग्य है। ऐसी दुहिता और जमाता के कारण मैं इस जगत में श्लाघ्य रूप हो जाऊंगा। परंतु यहाँ देवस्थान में लग्न संबंधादिक सांसारिक कार्य के विषय में परिवार के साथ अपने निवास स्थान पर गया, और सुमित्र देव और खेचरों को सत्कार पूर्वक विदा करके चित्रगति भी अपने पिता के साथ अपने घर आया।
(गा. 229 से 240) अनंगसिंह ने निवास स्थान पर आकर एक मंत्री को सूरचक्री के पास भेजा। उसने वहाँ जाकर प्रणाम करके निष्कपट विनयपूर्वक इस प्रकार कहा, 'हे स्वामिन्! आपका कुमार चित्रगति कामदेव जैसा है। साथ ही अपने अनुपम
और लावण्य से उसने किसे आश्चर्यचकित नहीं किया ?' हे प्रभु! अनंगसिंह की रत्नसमान पुत्री रत्नवती का संबंध चित्रगति के साथ करो। उन दोनों का विवाह आपकी सहमति पर ही निर्भर है। इसलिए हे नरसिंह! अनंगसिंह राजा का संदेशा मान्य करके मुझे आज ही विदा होने का आदेश दें। सूरराज ने उचित योग की इच्छा से उसका वचन स्वीकार किया। पश्चात् महोत्सवपूर्वक उनका विवाह सम्पन्न किया।
(गा. 2 41 से 245)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)