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चित्रगति रत्नवती के साथ विषयसुखों का भोग करने लगा और अर्हत पूजादिक धर्माचरण भी करने लगा। जो धनदेव और धनदत्त के जीव थे, वे वहाँ से च्यव कर इस भव में भी मनोगति और चपलगति नाम से चित्रगति के अनुजबंधु हुए थे। उन दोनों भाईयों और रत्नवती को साथ लेकर चित्रगति इंद्र की तरह नंदीश्वरादिक द्वीप में यात्रा करने लगा। हमेशा समाहित होकर अरिहंत प्रभु के पास जाकर धर्मश्रवण में और भार्या एवं भाईयों के साथ साधुजनों की सेवा में तत्पर रहने लगा।
(गा. 246 से 249) अनंगसिंह ने सूरचक्रवर्ती को राज्यसिंहासन पर बिठा कर दीक्षा अंगीकार की और उत्कृष्ट चारित्र साधना कर कर्म खपाकर अंत में मोक्ष पधारे। चित्रगति मानो नवीन चक्रवर्ती हो ऐसे अनेकानेक विद्याओं को साधकर अनेक खेचरपतियों को अपना सेवक बनाकर अपना अखंड शासन चलाने लगा। एक बार मणिचूल नामक उनका कोई सामंत राजा मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके शशि और शूर नामक दो पुत्र थे। पिता के अवसान के पश्चात् दोनों राज्य के लिए लड़ने लगे। यह सुनकर चित्रगति वहाँ गया और दोनों को राज्य बांट दिया। साथ ही युक्तिपूर्वक धर्मवाणी से समझाकर उनको सन्मार्ग में स्थापित किया। फिर भी एक बार दोनों वनहस्तियों की तरह युद्ध करते हुए खत्म हो गये। यह सुनकर महामति चित्रगति का चिंतन चल पड़ा कि 'इस नाशवंत लक्ष्मी के लिए जो मंदबुद्धि वाले युद्ध करते हैं, मरण प्राप्त करते हैं और दुर्गति में पड़ते हैं, उनको धिक्कार है। वे जैसे शरीर की अपेक्षा रखे बिना लक्ष्मी के लिए उत्साह रखते हैं, उसी प्रकार जो यदि मोक्ष के लिए उत्साह रखे तो उनको क्या कमी हो सकती है ? ऐसा विचार कर संसार से उद्विग्न हो चित्रगति ने रत्नवती के ज्येष्ठ पुत्र पुरंदर का राज्याभिषेक करके रत्नवती व अपने दोनों अनुज बंधुओं के साथ दमन्धर नामके आचार्य के पास चारित्र ग्रहण किया। चिरकाल तक तप करके अंत में पादपोपगम अनशन करके मृत्यु के पश्चात् चित्रगति महेन्द्र कल्प में परमार्द्धिक देवता हुआ। रत्नवती और उसके दोनों कनिष्ट बंधु भी उसी देवलोक में परस्पर प्रीति रखने वाले देवता हुए।
__ (गा. 250 से 260) पूर्व विदेह में पद्म नामक विज्य में सिंहपुर नामक नगर देव तुल्य नगर था। उस नगर में जगत को आनंददायक और सूर्य की तरह अन्यों के तेज को
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)